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पहचान – जयसिंह भारद्वाज

घटना 2007 के जून माह की है। कानपुर के आर्यनगर में एडवोकेट  त्रिवेदी जी के ऑफिस में उसदिन मैं पिछले वर्ष के वाणिज्यकर (तब वैट लागू ही हुआ था) के केस की तैयारी कर रहा था । तैयारी अंतिम चरण पर थी कि तभी त्रिवेदी जी के पास एक फोन आ गया । वार्तालाप से लगा कि व्यक्तिगत विषय है इसलिए मैंने केबिन से बाहर आकर दरवाजा बंद कर दिया ।




बाहर स्टाफ़ के पास अन्य क्लाइंट्स बैठे हुए थे । वहीं पर खाली कुर्सी पर मैं भी बैठ गया तो स्टाफ ने पूछा,  “क्या आपके केस की तैयारी हो गयी है ?”

– “हाँ, लगभग हो ही गयी है ।”

– “भइया जी, करा लीजिये क्योंकि कल कमिश्नर के पास आपके केस की पेशी है ।”

– “जी, त्रिवेदी जी फोन पर बात कर लें। बस अंतिम बिंदु पर चर्चा और पेपर्स तैयार करने रह गए हैं।”

– “तब ठीक है । हो ही गया समझो ।”

इतना कहने के बाद स्टाफ ने सामने बैठे क्लाइंट्स से कहा,”इनके(मेरे) केस के बाद साहब लंच और रेस्ट करेंगे इसलिए आप लोग एक डेढ़ घण्टे बाद आ जाएँ ।”

यह सुनकर कुछ क्लाइंट्स उठ गए और कुछ बैठे रहे। उनमे से एक क्लाइंट ने कहा – “अब धूप में हम कहाँ जाएंगे। मैं यहीं प्रतीक्षा कर लूँगा ।”

– “जैसा आप उचित समझें ।” स्टाफ ने मुस्कुराते हुए कहा।

तभी वह क्लाइंट घूमा और मुझे सम्बोधित करते हुए कहा – “आपकी आवाज़ मेरे एक मित्र से हू-ब-हू मिलती है।”

मैं मुस्कुराया और बोला – “सच कहूँ तो आज पहली बार किसी ने मेरी आवाज  को किसी दूसरे से मिलती जुलती कहा है वरना अभीतक तो 18 -20 लोगों को मेरा चेहरा ही उनके किसी अपने या किसी चिरपरिचित के जैसा लगा है।”

– “नहीं नहीं आप इसे मज़ाक न समझें । मैं सच कह रहा हूँ ।”

– “अच्छा जी । कहाँ के रहने हैं आपके मित्र जिनसे मेरी आवाज मिलती है?” जिज्ञासावश मैने पूछा तो उन्होंने कहा- “यहीं कानपुर के ही हैं ।”

यह सुनकर मेरी जिज्ञासा और बढ़ी अतः पूछा – “कानपुर! कानपुर में कहाँ के?”

– “के ब्लॉक किदवईनगर।”

मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा और धड़कते हृदय के साथ उनसे पूछा – “आपके मित्र का नाम क्या है?”

अबतक वहाँ उपस्थित अन्य क्लाइंट्स और स्टाफ भी हमारी वार्तालाप को बहुत गौर से सुन रहा था।

– “जय भारद्वाज।” उन्होंने कहा।

अब मैं सन्न था और एकटक उनके चेहरे को देखकर उन्हें पहचानने का प्रयास कर रहा था किन्तु मस्तिष्क संज्ञाशून्य हो चुका था ।

मैने देखा कि स्टाफ हौले हौले मुस्कुरा रहा था । स्वयं को संयत करते हुए मैंने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा – “आपका  नाम क्या है?”

– “अभिनव दीक्षित ।”

उफ्फ ये क्या हो रहा था! न मुझे यह नाम याद आ रहा था और न ही यह सूरत । कोई विशिष्ट और घनिष्ठ व्यक्ति ही होना चाहिए क्योंकि यहाँ पर बहुत कम शब्दों के वार्तालाप के बाद ही इन्होंने आवाज़ पहचान ली थी ।

तभी स्टाफ की आवाज़ ने मुझे इस भँवर से निकाला जो दीक्षित जी से कह रहा था – “यही तो हैं भारद्वाज जी, आपके वही भूले बिसरे मित्र ।”

– “क्या सच में?” कह कर उन्होंने मुझे गौर से देखा और उठकर हाथ मिलाया । खड़े होकर उनकी हथेली को अपने दोनों हाथों में थामे हुए मैंने उनकी आँखों में आँखे डालते हुए कहा – “क्षमा करना  श्रीमन्त किन्तु मैं अभी भी नहीं पहचान सका ।”

मुस्कुराते हुए वे बोले – “मैं लक्ष्मी का हसबैंड …”

– “ओह हो हो ..” मैंने तुरन्त हाथ छुड़ाया और उनके चरण स्पर्श करने के लिए झुक गया किन्तु उन्होंने मुझे ऐसा करने से रोकते हुए कहा – “नहीं नहीं, भाई साहब, आप मुझसे उम्र में बहुत बड़े हैं । इतना सम्मान ही पर्याप्त है ।”

वे मेरे परममित्र शिवाकांत मिश्र की छोटी बहन के पति थे जो पिछले 13 -14 वर्षों से युगांडा रह रहे थे। अभी कुछ माह पहले ही शहर आये थे और अब अपने व्यवसाय के पंजीकरण आदि के लिए यहाँ उपस्थित थे । युगांडा जाने के तीन – चार वर्ष पहले तक उनसे कई बार मैं मिला था और मित्रवर के घर पर उनके साथ बहुत सी लम्बी बैठकें भी हुईं थीं।

– “दीक्षित जी, क्षमा करना मैं आपको पहचान नहीं सका । एक तो 15 -17 वर्षों बाद अप्रत्याशित भेंट और दूसरे आपके व्यक्तित्व में बहुत कुछ बदलाव ।” मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

– “बदलाव तो आपके शरीर पर बहुत हुआ है भाई साहब । कहाँ वह स्लिम ट्रिम काया कहाँ यह मांसल शरीर और उस चिकने चॉकलेटी चेहरे के स्थान पर ये रोबीली मूँछे । मैं भी तो नहीं पहचान सका आपको ।”

कहते हुए वे हँस पड़े तो वहाँ उपस्थित सभी लोग भी हँस पड़े ।  तभी त्रिवेदी जी की आवाज़ सुनकर मैं केबिन के अंदर चला गया ।

बाद में मैं सोचने लगा कि क्या उँगलियों की छाप, आँखों की पुतलियों की छाप, चेहरे की बनावट, शरीर के अंगों के मस्से, तिल व चोट आदि के निशान के साथ ही साथ किसी की आवाज़ भी इतनी सहायक हो सकती है कि उसे 15-17 वर्षों के बाद भी आसानी से पहचाना जा सके !!

 (संस्मरण)

©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

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