परिवार की ताक़त – डॉ. पारुल अग्रवाल

दिव्या की कुछ दोस्त उसके घर पर पार्टी के लिए आमंत्रित थी। सब उसके यहां आकर उसके घर, फर्नीचर और उसकी शानोशौकत की बहुत तारीफ कर रही थी, साथ-साथ उन्हें मन ही मन दिव्या से जलन भी हो रही थी। उनको लग रहा था कि वो लोग तो बस घर के कामों में लगी रह जाती हैं,पर दिव्या ने अपने आपको कितना व्यवस्थित कर रखा है।

उन सभी की बातें दिव्या का घमंड ओर भी बढ़ा रही थी  दिव्या को शुरू से ही अपनी सुंदरता पर बहुत घमंड था, अपने आगे कुछ किसी को कुछ ना समझने का अंहकार उसमें कूट-कूट कर भरा था।समय के साथ साथ उसके पति का व्यापार काफी बढ़ जाने से उसका अंहकार और भी बढ़ गया था। अब दिव्या ने उन लोगों को कहा कि मेरे लिए तो परिवार का मतलब सिर्फ मैं,मेरा पति और मेरे बच्चे हैं। मैं नहीं पड़ती ये ससुराल के लोगों को झंझट में। अब दिव्या ने मंत्रमुग्ध होकर बताना शुरू किया कि शुरू से ही मैं ऐसे लड़के के साथ शादी करना चाहती थी जो इकलौता हो और खूब अमीर हो।पर दोनों बातें एक साथ नहीं मिल पा रही थी,तब मेरे मां-बाप ने खूब अच्छे व्यापारी परिवार में उसकी शादी कर दी। लड़के के एक बहिन थी जो शादीशुदा थी और पास ही दूसरे शहर में रहती थी।अब शादी अकेले लड़के से तो नहीं हुई पर मैंने ऐसा जाल बिछाया कि ससुराल की सारी सत्ता मेरे हाथ आ गई।मैंने घर में जाते ही फूट डालों और राज करो योजना पर अमल किया।मैने अपने पति के कान उनके घर वालों के लिए भरने शुरू कर दिए। उनकी एक ही बहन थी उसको भी बार-बार अपमानित करके घर में आना बंद करवा दिया क्योंकि आज के समय में देने-लेने के चक्कर में कौन पड़े और वैसे भी मेरे पति इतनी मेहनत से कमाते हैं। सास ससुर तो वैसे भी बूढ़े हैं, उनकी इतनी हिम्मत नहीं है कि वो मेरे को कुछ कह सकें। इस तरह मैं तो बहुत मज़े में अपनी जिंदगी पूरे थाट-बाट के साथ जी रही हूं। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो ससुराल वालों की सेवा में ही जीवन निकाल दूं। उसकी बातें कुछ लोगों को पसंद आ रही थी,कुछ को नहीं। उनमें उसकी दोस्त रचना भी थी, वो कॉलेज के बाद दिव्या से अब मिल रही थी।उसको ये सब सुनकर बहुत अजीब लगा।उसने दिव्या को समझाने की कोशिश भी की और कहा कि परिवार की ताकत तुम अभी नहीं समझ रही हो पर ज़रूरत पड़ने पर अपने ही काम आते हैं। पर दिव्या पर तो जैसे अंहकार का परदा पड़ा था।


कहते भी हैं, कि समय कभी एक जैसा नहीं रहता। एक रात दिव्या के पति की फैक्टरी में शॉर्ट सर्किट से आग लग गई। पलक झपकते ही पूरी फैक्टरी फायर ब्रिगेड के आने से पहले स्वाहा हो गई। जब तक दिव्या और उसके पति को पता चला तब तक तो उनकी दुनिया ही लुट चुकी थी। उनके साथ हुए हादसे की खबर हर जगह पहुंच चुकी थी। व्यापार लेन-देन से चलता है, ऐसे समय में देने वाले तो गायब हो गए पर लेने वाले अपना पैसा मांगने आ गए। कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। पैसे के बलबूते पर बने उसके दोस्त आज दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहे थे।उसके घर आने वाली कुछ महिलाएं जिन्हे वो अपना हमदर्द समझती थी,वो तो मन ही मन बहुत खुश थी और एक दूसरे से कह रही थी कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।

पर जब उसकी ननद को पता चला तो वो आई और बिना किसी के कुछ कहे जो मां-बाप ने प्रॉपर्टी उसके नाम की थी, वो बेचकर सारा पैसा भाई को दे दिया। दिव्या की आंखो में आज ग्लानि की भावना साफ देखी जा सकती थी। उन पर पड़ा अंहकार का पर्दा आज हट गया था।उसका घमंड चूर-चूर हो गया था।दिव्या ने हाथ जोड़कर अपनी ननद से माफी मांगनी चाही तब उसकी ननद ने बड़े प्यार से कहा हम सब एक परिवार हैं अगर एक दुखी है तो दूसरा सुखी कैसे हो सकता है? आज दिव्या के सारे नैनचक्षु खुल चुके थे। उसको अपने पराए की पहचान हो गई थी। 

दोस्तों परिवार हमारी सबसे बड़ी ताकत होती है। अंहकार में आकर किसी का भी अपमान करने का हक़,हमें किसी ने नहीं दिया। वक्त का पहिया घूमने में देर नहीं लगती इसलिए सभी का सम्मान करें। मायके और ससुराल दोनों जगह का मान बनाएं रखें।

#अंहकार

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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