परित्याग – मुकेश कुमार (अनजान लेखक) : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : तुम्हें थोड़ा भी ख़्याल नहीं आया की मेरे पेट में तुम्हारा बच्चा साँस ले रहा है? एक बार भी न सोचा कहाँ जाऊँगी मैं? कैसे जाऊँगी मैं? किसके साथ जाऊँगी मैं?

बीच सड़क पर अकेली थी मैं, सड़क के मुँडेर पर बैठ कर घंटों रोती रही। मेरी आँखें थक गई थी, आँसू आने भी बंद हो गए थे लेकिन दिल था बस रोए जा रहा था। आत्मा थी जो कलप रही थी, अंदर बिखरे हुए काँच और ढहे हुए खँडहर सा हाल था, तब कहाँ थी तुम्हारी सोच? कहाँ फुर्र हो गया था तुम्हारा प्यार?

आज आए हो हक़ जताने।

दोनों बच्चे बड़े हो गए हैं, जिसको मेरे पेट में छोड़ कर तुम गए थे न! वो बिटिया भी जवानी की दहलीज़ तक पहुँच गई है।

बेटा हर दिन देर शाम मुझे लेने आता था मेमसाहेब के बंगले से। पुरे रास्ते बस यही पूछता था “माई तुम कब तक बर्तन धोने का काम करती रहोगी!”

मैं जैसे ही कमाने लगूँगा न वैसे ही तुम्हें यह सब बन्द करवा दूँगा।

उसने आठवीं कक्षा पार करते ही वो साहेब का कुत्ता घुमाने का काम पकड़ लिया। वो अपनी तनख़्वाह से बहन के लिए कपड़े लाता और मेरे लिए जलेबी। तुम्हें याद है न! जलेबी कितना पसंद था मुझे। ख़ैर, छोड़ो यह सब। बेटा बारहवीं पास करते ही रेलवे में लग गया, कितना शौक़ था उसे कॉलेज जाने का! बेचारा कभी-कभी जाता था बहन को छोड़ने तब कॉलेज के हर कोने तक जाता था। वापस आ कर बोलता था “माई आज मेरी रात की ड्यूटी है” दिन में सो लेने दो। मैं नहीं जानती क्या? की वो बिस्तर में पड़ा रोता था अपने सपने के लिए।

चलो मैं मान लेती हूँ, मैं थी मज़बूत इसलिए झाड़ू बर्तन कर के पाल लिया बच्चों को। लेकिन… लेकिन इस पापन और प्यासी शरीर को कैसे समझती? आधी रात को यह पापन कसमसाने लगती थी। कई बार मेरे कपड़े गीले हुए थे। उस बह कर फैल जाने वाले कसमसाहट से घिर्णा हो जाती थी। बदबू सारे कमरे में फैल जाती थी। आधी रात को नहाती थी, बिटिया तो छोटी थी, लेकिन शायद बेटा समझ जाता था। बीना कुछ कहे अदरक वाली चाय बना कर कमरे में रख देता था, बोल कर जाता था “चाय पी लेना और पंखा मत चलाना” गीले बाल से सर्दी हो जाएगी।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

ऐसे ही किसी पर भरोसा मत करों – गुरविंदर टुटेजा




क्या करती मैं! मन पर तो क़ाबू था लेकिन शरीर के भीतर का क्या करती? उस पर तो मेरा क़ाबू नहीं बन पाया, मेरा क्या बड़े बड़े तपस्वी बेक़ाबू हो गए थे। ऐसा नहीं था की लोग नहीं मिले मुझे! एक बार तो मेमसाहेब ने अपने किसी जानकार से शादी कराने की बात चला दी थी। मैंने मना कर दिया, अपने बच्चों के नज़र में नहीं गिरना चाहती थी। मेरे अंदरूनी शरीर ने कई बार भड़काया मुझे लेकिन मैं अड़ी रही। मेरे कपड़े गीले होते रहे मैं आधी रात को नहाती रही।

बिटिया बड़ी हुई तो गंध सूँघते ही खाट से उतर कर नीचे चटाई पर आ जाती थी। कस कर लपेट लेती थी, मेरे माथे को चूम कर सुलाती थी, बोलती थी नहाने की कोई ज़रूरत नहीं आधी रात में, तुम्हारा ही शरीर है न! रही बात गंध की तो रुको मैं अगरबत्ती जला देती हूँ।

तुम्हारे आँखों पर गुलाबी चश्मा चढ़ा हुआ था, वो छम्मक छल्लो क्या मिली मैं तुम्हें बासी रोटी लगने लगी। रोज़ आते थे कपड़ों पर मेरे अरमानों के लाश ले कर। तुम्हें क्या लगता था? मुझे पता नहीं चलेगा! तुम्हारे कपड़े धोते-धोते रो लेती थी। सोचती थी तुम्हारी जिस्मानी भूख एक दिन ख़त्म हो जाएगी और तुम वापस आ जाओगे।

अरे तुम बता देते की छम्मक छल्लो वाली अदाएं ही तुम्हें रिझाती है तो मैं ही बन जाती तुम्हारी छम्मक छल्लो। क्या कम थी मुझमें उससे। गौर से देखते तब न! उससे ज़्यादा भरी-भरी थी मैं, ज़्यादा छरहरी थी मैं, मेरे शरीर के उभार भी उस से ज़्यादा अच्छे थे।

चलो छोड़ो, मैं क्या बोल रही हूँ! अब तो सब क़ाबू में है, न ही मन भटकता है न ही यह पापन शरीर। बेटे के लिए लड़की भी देख लिया है, अगले महीने शादी है। बिटिया दिल्ली में है कलेक्टर की तैयारी कर रही ही। मैं जानती हूँ उसको, वो एक दो बार के कोशिश में परीक्षा पास कर जाएगी। कलेक्टर न भी बनी तो कोई न कोई मेमसाहेब ज़रूर बन जाएगी।



तुम चले जाओ, बेटा वापस आता ही होगा। उसे पता चल गया तो वो कुछ भी कर गुजरेगा, रोक नहीं पाऊँगी उसको। हाँ तुम्हारा एक धन्यवाद ज़रूर बनता है, तुमने दो कमरों वाला मकान बना कर दिया था… कम से कम सर छुपाने के लिए दर दर नहीं भटकना पड़ा।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

धोखा: दोषी कौन? – संगीता अग्रवाल 

अब तुम चले जाओ… तुमने हमलोग का  त्याग कर दिया था न! हम तुम्हारा परित्याग नहीं करना चाहते… बस तुम चले जाओ।

हाँ भाई साहेब टिकट? टीटी के आवाज़ से मेरा ध्यान हटा। काश ट्रेन की सीट पर बैठे-बैठे ही मर जाऊँ। यह ट्रेन पलट जाए और सिर्फ़ मैं मरूँ। 

उधर डॉली पैसे के लिए रोज़ लड़ती है, उसका बेटा… हाँ उसी का तो है, मेरा होता तो इज़्ज़त भी देता न! लेकिन वो भी डॉली के साथ मिल कर पैसों के लिए गाली-गलौज करता रहता है। रिटायरमेंट का आधा से ज़्यादा पैसा तो दे दिया दोनों को। इतना भी अपने हाथ में न रखूँ तो वो लोग घर से ही निकाल देंगे।

वो डॉली, छ: महीने में ही अपना रुप दिखा दी। किसी का दोस्त दिन भर किसी के घर में पड़ा रहता है क्या? वो भी मेरे ऑफिस जाने के बाद? रात को डॉली से दिल की बात करता तो सप्ताह के छ: दिन तो थकान और दर्द की ही बात करती थी। आख़िर ऐसा कौन सा काम करती थी जो थक जाती थी? घर के काम के लिए तो बाईं लगा रखी थी।

ख़ैर, यह सब तो होना ही था, मैंने भी तो धोखा दिया था किसी को… मुझे भी तो धोखा मिलना ही था किसी से।

मैंने भी त्याग दिया था सुषमा को… उसने जाने बोला लेकिन था तो वो भी परित्याग।

आख़िर मुझे भी तो मिलना ही था परित्याग।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!