परख – नीलिमा सिंघल

उपासना जी भरे पूरे घर की सहृदय मालकिन थी 35 बसंत साथ देख चुके थे उपासना जी और उनके पति महेश जी, दोनों के एक पुत्र और दो पुत्रियाँ थी सभी जिम्मेदारी निभा चुके थे दोनों, अपने जीवन के अगले पड़ाव के बारे मे सोचना शुरू ही किया था कि एक रात हृदयाघात से महेश जी उपासना जी को अकेला छोड़ गए थे,

उपासना जी का स्नेह अपनी पुत्रियों पर ज्यादा बरसता था और ये साफ दिखता भी था पुत्रवधू निर्मला ह्रदय से भी निर्मल थी बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप, महेश जी के देहांत के बाद से ही निर्मला उपासना जी का अतिरिक्त ध्यान रखने लगी थी, किंतु उपासना जी की दोनों बेटियां निर्मला के खिलाफ जहर भरती रहती थी, और जैसे झूठ  बार बार बोलने से सच लगने लगता है वैसे ही उपासना जी के मन पर अपनी बेटियों द्वारा कही बातेँ पैठ जमाने लगी थी,

महेश जी के देहांत के 1.5 साल बाद ही उपासना का स्वर कड़वा होने लगा था निर्मला को समझ नहीं आ रहा था कि अचानक उपासना जी को क्या होने लगा पर उसको अह्सास होने लगा था कि जब जब उसकी ननदें आती है या उनका फोन आता है सासु माँ का अंदाज बदल जाता है,

धीरे-धीरे उपासना जी तल्ख बाते अपने बेटे दिव्य के सामने भी करने लगी थी, दिव्य को लगता माँ का अकेलापन शायद उनको ऐसा बना रहा है तो ज्यादा से ज्यादा माँ के साथ मिलने बैठने लगा,


जब दोनों बहनों ने देखा तो उन्होंने माँ को दिव्य के खिलाफ ये कहकर कर दिया कि “दिव्य आप पर नजर रखने के लिए आपके आस-पास घूमता है जरूर अपनी पत्नि की बातों मे आ रहा है, माँ अब ज्यादा व्याकुल रहने लगी दिव्य भी उन्हें समझाते समझाते हार गया एक दिन निर्मला ने दिव्य को अपने मन की शंका बताई,

एकाएक दिव्य विश्वास नहीं कर पाया पर लगातार माँ का बदलता व्यवहार देखते हुए निर्मला की बातों को सही मानने लगा।

और एक दिन अपनी दोनों बहनों से बोला “दीदी आप यहां आती हो अच्छी बात है घर घर जैसा लगता है, पर ये घर आप दोनों का भी है तो इसको तहस नहस मत करो”

सुनते ही दोनों बहनों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी पी माँ को सामने देखते ही रोने का नाटक करने लगी, अपनी बेटियों के बहते आंसू उपासना जी के दिल को जला रहे थे उन्होंने तत्क्षण निर्णय लिया और बेटे को फैसला सुनाया-

” दिव्य तुम अपनी पत्नि को लेकर यहां से जा सकते हो मुझे अब चैन से जीने दो “

दिव्य माँ की बात सुनकर काम्प सा गया अपनी आँखों की नमी को छुपाते हुए निर्मला को आवाज़ दी और घर से सिर्फ अपने कपड़े लेकर चले गए, दोनों बहने अपनी जीत पर खुश थी, अब ये बंगला और हर महीने 75 हजार की पेंशन पर सिर्फ उन दोनों का हक था,

दोनों ने बैंक और घर के काग़ज़ों पर माँ के सिग्नेचर करवाए  और माँ को लेकर वृद्धाश्रम में छोड़ने चली गयी ,माँ को लगा कि वो बेटियों के साथ वृद्धाश्रम में दान करने आयी है पर जब मेनेजर से दोनों के मध्य बात सुनी तो हैरान रह गयी,

उनके पैसों और घर पर निर्मला की नजर कभी थी ही नहीं, ना वो इन सबको लेकर अपने माता-पिता का घर भरने जा रहीं थीं ये वो पर्दा था जो उपासना जी की आँखों पर उनकी बेटियों के अंधे प्रेम ने डाला था।

मेनेजर ने दोनों को समझाने की बहुत कोशिश की पर दोनों बहने लालच मे अंधी हुए जा रही थी।

मेनेजर उपासना जी के पास आया और उन्हें अंदर ले जाने को कहा तब उन्होंने मेनेजर से एक बार अपने बेटे से बात करने की इच्छा की,


दिव्य के पास unknown नंबर से कॉल आ रही थी दो बार उसने फोन नहीं उठाया जब तीसरी बार कॉल आयी तो दिव्य ने फोन उठा लिया, मेनेजर ने सारी वस्तुस्थिति दिव्य को बताई,

दिव्य एकदम ऑफिस से निकला और पता पूछकर उसी वृद्धाश्रम मे आ पहुंचा जहाँ उसकी माँ थी,

दिव्य अंदर पहुंच कर माँ से लिपट कर रो पड़ा,  मेनेजर से बोलकर माँ को अपने साथ घर लाने के लिये विकल हो गया था,

मेनेजर ने कहा “बेटे पर भी भरोसा करो, बेटियों पर भी कभी आंख बंद कर भरोसा मत करो  और बहु को भी अपना बनाकर देखो,

टूटे अनचाहे रिश्ते कभी जिंदगी भर का साथ बन जाते हैं तो अपनत्व और स्नेह से मिश्रित रिश्ते हमेशा नासूर बने रहते हैं

शुभांगी

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