पंखे की डोर –   बालेश्वर गुप्ता

     अरे रामदीन क्या मर गया है, हाथ क्यों नहीं चल रहे?देखता नही कितनी गर्मी पड़ रही है,जल्दी जल्दी डोर खींच।

         जी माई बाप, कह कर  पसीने से तरबतर रामदीन ने और जोर से डोरी खींचनी शुरू कर दी।

        असल मे अबकी बार गर्मी कुछ अधिक ही पड़ी थी।वैसे भी बड़े आदमियों को गर्मी हो या सर्दी  कुछ अधिक ही लगती है।जमीदारी के समय बिजली न होने के कारण जमीदारो के हवेली के कमरों में कपड़े के बड़े बड़े पंखे लटके होते थे जिन्हें किसी डोरी के एक सिरे से बीच से बांध दिया जाता था और दूसरा सिरा कमरे के दरवाजे के बाहर बैठे किसी नौकर के हाथ मे होता था,जो डोरी को खींचता और छोड़ता था,जिससे कमरे में लगा कपड़े का विशाल पंखा आगे पीछे चल हवा देता था।

     ऐसे ही जमीदार विक्रम दोपहर में अपनी बड़ी हवेली के अपने बड़े विश्राम कक्ष में आराम कर रहे थे और उनका चाकर रामदीन बाहर बैठा डोरी खींच रहा था।जमीदार साहब को ऐसा अहसास करने की कोई आवश्यकता भी नही थी कि ड्योढी पर बैठे अपने चाकर को भी तो गर्मी लगती होगी।शायद गरीब का शरीर एयर कंडीशनर होता है।

        रामदीन पूरे मनोयोग से जल्दी जल्दी डोर खींच रहा था,उसका ध्यान आज असल मे इसलिये भटक रहा था कि उसे शहर में पढ़ने वाले अपने बेटे को खर्च भेजना था जिसका इंतजाम  बाबू सरकार की मेहरबानी से ही हो सकता था और वो सोच रहा था बाबू सरकार से कैसे कहूँगा?सोचते सोचते उसके हाथ और जोर जोर से पंखे की डोर खींचने लगे।

     रामदीन का जीवन ही जमीदार विक्रम की चाकरी करते बीत गया था।एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा रामदीन ने बचा रखा था,उससे घर के अनाज सब्जी का जुगाड हो जाता था,बाकी बाबू सरकार की चाकरी से काम चल रहा था।रामदीन चाहता था कि उसका मुन्ना पढ़ लिख जाये, उसे उसकी तरह जिल्लत की जिंदगी ना जीनी पड़े।आज मुन्ना इतना बड़ा हो गया था कि शहर में चौदहवीं क्लास में पढ़ भी रहा था और वो बता रहा था बापू मैं पुलिस अफसर बनने की भी तैयारी कर रहा हूँ।सब सुन रामदीन की आंखों में आँसू आ गये, एक गरीब का बच्चा पुलिस बन जाये, ये सपना ही रामदीन की आंखे भिगो गया।




        किसी प्रकार शाम हुई,बाबू सरकार का दोपहर का आराम खत्म हुआ,तब जाकर डोर खींचने से राहत मिली।अकड़े हाथों को झटका देकर वो उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के एक तरफ खड़ा हो,सिर झुकाये बाबू सरकार का इंतजार करने लगा,आखिर उसे मुन्ना की पढ़ाई के खर्च का जुगाड़ भी तो बाबू सरकार से ही करना था।

         अरे रामदीन कड़क आवाज में बाबू सरकार बोले देख आज अपनी घरवाली को भेज देना ठकुराइन का सिर दर्द कर रहा है, दबाने आ जायेगी।ठीक है बाबू सरकार, मैं अभी जाते ही भेज दूंगा।बाबू सरकार एक दरकार थी आपकी मेहरबानी हो जायेगी तो अपना मुन्ना अपनी पढ़ाई पूरी कर लेगा, बाबू सरकार बस 500 रुपये की जरूरत पड़ेगी, आपकी नजरे इनायत हो जाये तो–।किसी प्रकार रामदीन अपनी दरकार कह ही बैठा। विक्रम जमीदार अपनी ठसक भरी आवाज में बोले अरे कितना कब तक देते रहे पहले ही तुम अपनी पगार से अधिक ले चुके हो,बस अब और नहीं।रामदीन के तो होश ही उड़ गये, बाबू सरकार के पैरों में पड़ बोला माई बाप बस ये आखिरी मदद कर दो फिर जरूरत नही पड़ेगी।

नही नहीं यहां क्या टकसाल लगी है, क्या जरूरत थी उसे शहर भेजने की,बुला ले उसे ,यही काम काज पर लगा देंगे,उसे भी दो पैसे कमाने का चस्का लगेगा।

       माई बाप बस यह आखिरी इम्तिहान दे ले ,फिर उसे बुला लूंगा,आखिरी मदद कर दो बाबू सरकार।

     तो ठीक है तेरा पीछे का बकाया भी खत्म और अब हम तुझे 1000 रुपये और देंगे, तू अपनी जमीन का टुकड़ा हमारे नाम कर दे।

      माई बाप वो छोटा सा टुकड़ा तो बड़े बाबू सरकार ने ही दिया था मुझ गरीब को,अब आप उसे ले लेंगे तो हमारा घर कैसे चलेगा?बाबू सरकार ऐसा जुल्म मत करो,हम तो जीते जी मर जायेंगे।




      अरे कोई मुफ्त थोड़े ही ले रहे हैं, बाजार भाव से भी ज्यादा दे रहे है,आगे तेरी मर्जी।

       और रामदीन ने जमीन का टुकड़ा जमीदार विक्रम को लिख ही दिया। भविष्य से आशंकित पर मुन्ना के भविष्य से आशांवित। रामदीन भीगी आंखों से घर की ओर चल दिया।

       समय चक्र घूम गया रामदीन का मुन्ना अपनी ट्रेनिग पूरी कर डीएसपी बन गया था उसके क्षेत्र में उसके गावँ का थाना भी पड़ता था। रामदीन को अब गांव वाले अभिवादन भी करने लगे थे।अचानक ही गांव में उसकी इज्जत बढ़ गयी थी।एक दिन तो गजब ही हो गया जब जमीदार विक्रम ने रामदीन को हवेली बुलाकर उसकी जमीन के कागज ही उसे लौटा दिये। रामदीन अचरज से सूरज को पश्चिम से निकलते देख रहा था,उस मासूम को समझ ही नही आ रहा था कि बाबू सरकार इतने दयालु कैसे हो गये? इतने में ही उसके कानों में आवाज पड़ी रामदीन कभी भी किसी और चीज की कभी भी जरूरत पड़े तो बेहिचक मांग लेना।जी बाबू सरकार ,और कहां जाऊंगा, सरकार आपके पास ही तो आऊंगा।

      कोर्निश कर रामदीन जैसे ही मुड़ कर चलने लगा तो पीछे से आवाज आयी रामदीन भई अब तो तुम्हारा लड़का डीएसपी हो गया है उसे एक दिन हवेली पर लेकर आओ तो साथ खाना खा लेंगे–।

      साथ खाना खा लेंगे सुनकर रामदीन तो जैसे आसमान से गिरा, बाबू सरकार उस मुन्ना के साथ खाना खाने को आमंत्रित कर रहे हैं जिसकी पढ़ाई के खर्चे के 500 रुपये मांगने मात्र से ही रामदीन को अपनी जमीन इन्ही बाबू सरकार को देनी पड़ी थी।उसके दिमाग से अब कुछ कुछ पर्दा हटने लगा था।उसकी समझ मे आ गया था अब समय बाबू सरकार का नही मुन्ना का आ गया है।बाबू सरकार कुछ नही कर रहे बस समय परिवर्तन को समझ अपने दिमाग की डोर को जोर से खींच रहे हैं, वैसे ही जैसे कभी रामदीन 500 रुपये बाबू सरकार से कैसे मांगेगा,सोचते सोचते पंखे की डोर को जोर जोर से खींचने लगता था।

        बालेश्वर गुप्ता,पुणे

मौलिक,अप्रकाशित।

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