दोस्ती पक्की वाली – गीता वाधवानी

दो पक्के दोस्त किशन और कन्हैया। इतनी पक्की वाली दोस्ती कि दोनों  को एक दूसरे को देखे बिना चैन ही नहीं पड़ता था। रोज सुबह सैर करते समय दोनों ढेरों बातें करते और फिर रात को एक बार जरूर मिलते। दोनों के घरों में कुछ दूरी थी। 

एक सुबह सैर करने के बाद जब दोनों पार्क की बेंच पर बैठे तब कन्हैया ने महसूस किया कि किशन आज कुछ चुप-चुप सा है। उसने पूछा-“यार किशन, क्या बात है आज कुछ तनाव में लग रहे हो, बड़े चुप-चुप से दिख रहे हो।” 

किशन-“हां यार, तुमसे क्या छिपी है मेरी हालत, तुम्हें तो पता ही है कि विजय मेरा बेटा विदेश जाकर पढ़ने की जिद कर रहा है। मैंने जैसे तैसे पैसों का इंतजाम किया लेकिन फिर भी दो लाख कम पड़ रहे हैं।” 

कन्हैया-“क्या यार, तूने तो मुझे पराया कर दिया। मैंने अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए रूपए जोड़ने शुरू कर दिए हैं पर उस हिसाब से अभी वह बहुत छोटी है। वह रुपए मैं तुम्हें दे देता हूं जब तुम्हारा बेटा पढ़कर कमाने लगेगा ,तब दे देना।” 

किशन-“यार तूने तो मेरी सारी टेंशन ही खत्म कर दी, तेरा बहुत-बहुत शुक्रिया।” 

कन्हैया-“यार अब शर्मिंदा मत कर।”अगले हफ्ते कन्हैया, किशन को ₹2 लाख दे देता है और उसका बेटा पढ़ाई के लिए विदेश चला जाता है। 

अब भी दोनों दोस्त रोज मिलते और एक दूसरे का हालचाल जानते। लगभग 2 साल बीत गए थे। अब किशन रोज पार्क में नहीं आता था। कन्हैया ने उससे पूछा भी, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। धीरे-धीरे वह 15 दिन में एक बार पार्क आने लगा और फिर आना ही बंद कर दिया। एक दो बार कन्हैया उसके घर भी गया और उसकी पत्नी ने कहा कि वह घर पर नहीं है। 




कन्हैया को लगने लगा कि वह पैसे वापस करना नहीं चाहता है। उसके मन में बेईमानी आ गई है। उसके मन में क्रोध जाग उठा और उसने किशन की परवाह करना छोड़ दिया। 

एक दिन किशन के पड़ोसी ने बताया कि किशन बहुत बीमार है। तब भी गुस्से के कारण कन्हैया उससे मिलने नहीं गया। एक तो मेरे दो लाख हड़प गया, अब बीमार है तो मैं क्या करूं उसने मन में सोचा। 

एक दिन शाम को ऑफिस से घर वापस आने पर उसने देखा कि किशन की पत्नी बैठी है। कन्हैया ने उससे कोई बात नहीं की। वह चुपचाप उठ कर चली गई। उसके जाने के बाद कन्हैया ने अपनी पत्नी से पूछा-“यह क्यों आई थी?” 

कन्हैया की पत्नी ने कहा-“आप बिना गुस्सा किए मेरी बात शांति से सुनिए। किशन भाई साहब बहुत बीमार हैं और आपसे मिलना चाहते हैं। आपको कुछ बताना चाहते हैं। मैं कहती हूं आखिर एक बार मिलने में हर्ज ही क्या है। आप अपनी पक्की वाली दोस्ती को बिल्कुल भूल गए हैं क्या। आप तो कभी पैसों को रिश्तो से ज्यादा नहीं आंकते थे। एक बार सोच कर देखिए।” 

कन्हैया को सारी बातें ठीक लग रही थी। वह पत्नी सहित किशन से मिलने गया। किशन को इतना कमजोर और मायूस देखकर उसकी आंखों में आंसू आ गए। किशन भी उन्हें देखकर रो पड़ा और एक पैकेट उनकी तरफ बढ़ाते हुए बोला-“यार, देरी के लिए माफ कर दे, पर मैं बेईमान नहीं हूं।” 

कन्हैया भी रो पड़ा और बोला-“तू मुझे माफी दे दे, भूल जा पैसों को, नहीं चाहिए मुझे। मुझे तो बस अपना दोस्त चाहिए और उसकी पक्की वाली दोस्ती।” 

रोकर जब दोनों का दिल हल्का हो गया तब किशन ने बताया कि-“बेटे ने पढ़ाई के बाद विदेश में बसने का फैसला कर लिया और जब मैंने उससे कहा कि मैंने तेरी पढ़ाई के लिए पैसा उधार लिया है तब उसने कहा-“यह तो आपका फर्ज था, आप ही जानो, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता।”तब से मैं बहुत शर्मिंदा था कि मैं तेरे पैसे समय पर लौटा नहीं पा रहा हूं। मैं थोड़े थोड़े पैसे जोड़ता रहा और जब पूरे दो लाख हो गए, तब अपनी पत्नी को तेरे घर भेजा।” 

कन्हैया-“पहले हमें गैर बना दिया, यह बात पहले भी तो बता सकता था और इस चक्कर में अपना अच्छे से इलाज भी नहीं करवाया। चल अब उठ, पहले किसी अच्छे डॉक्टर के पास चलते हैं, बाद में तेरी खबर लेता हूं। चारों  हंस पड़े और माफी मांग कर दिल की कड़वाहट दूर हो गई। 

स्वरचित, अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली

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