निस्वार्थ भाव – शालिनी श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

  घर चलो अजय, मां ने दोपहर का खाना तैयार करके रखा होगा… तुम भी खा लेना… नहीं तो फिर बाहर का खाना खाओगे और रोज बाहर का खाना हमारी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता…. रवि ,तुम कब तक मुझे रोज यूं ही घर ले जाकर खाना खिलाते रहोगे??? अजय तुम ऐसा क्यों सोचते हो??? तुम अगर हमारे साथ बैठकर दो रोटी खा लेते हो ,तो  क्या हमारा बहुत नुकसान हो जाता है ???ऐसा नहीं सोचा करते… वैसे भी इस दुनिया से क्या ही ले जाएंगे ???जितना भी समय हम इस धरती पर हैं ,क्यों ना अच्छे से मिलकर जिया जाए…

रवि मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि, मेरी दोस्ती तुमसे हो गई …वरना आज के समय में कोई बिना मतलब के किसी को पानी भी नहीं पूछता …जब से शहर आया हूं ,लोगों के अलग-अलग चेहरे देखकर बहुत निराश हो गया था…. मैं तो मान भी नहीं रहा था शहर आने के लिए… पिताजी ने जबरदस्ती की …कि तुम आगे की पढ़ाई शहर से करो… अरे अजय अच्छी बात है ना ….तुम्हारे पिताजी तुम्हारा अच्छा ही सोचते हैं … पढ़ लिखकर तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओगे तो घर के हालात भी सुधार सकोगे …

नहीं तो तुम भी अपने पिताजी की तरह गांव में खेती ही कर पाते और प्राकृतिक आपदाएं आने पर फिर बड़े जमींदारों से कर्ज लेते और उसके बाद पूरा साल उस कर्ज की भरपाई करते रहते …हां रवि, बात तो सही है …मैंने बहुत बार पिताजी को कर्ज उठाते हुए देखा… हमारे पास ज्यादा जमीन तो नहीं है …परंतु कभी सूखा और कभी बाढ़ आ जाती है …पिताजी का तो काफी जीवन कर्ज लेने में और कर्ज उतारने में ही बीत गया…. मां ने अपने कुछ जेवर रखे हुए थे …उन्हें बेचकर यहां डॉक्टरी पढ़ने मुझे भेज दिया …

अच्छी बात है अजय …यह कुछ साल तुम्हें मुश्किल लगेंगे… लेकिन फिर तुम्हारा आगे का जीवन बहुत अच्छा होगा और इससे तुम अपने माता-पिता को भी आरामदायक जीवन दे सकोगे… अब घर चलो ….मां राह देख रही होगी…. अजय मेरे साथ अक्सर घर आ जाया करता और हम दोनों साथ में खाना खाते… मां भी स्वभाव की बहुत अच्छी थी …मैं जब भी अजय को अपने साथ घर ले जाता, तो मां उसे भी खाने की थाली परोसती और अक्सर कहती कि बेटा तुम हमारे साथ ही रह लो, जब तक तुम्हारी पढ़ाई पूरी नहीं होती …

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परंतु अजय का मानना था कि , हमारी दोस्ती में फीका पन् ना आ जाए… इसलिए इस रिश्ते को बहुत संभाल कर रखना चाहता है… उसके साथ 5 साल कैसे बीत गए ,पता ही नहीं चला …सच में मेरी मां अक्सर कहती थी कि ,अजय को उसके घर से बहुत अच्छे संस्कार मिले हैं… यहां शहर में अकेला रहकर भी वह अपने संस्कार नहीं भूला … जैसा गांव से आया था ,आज भी वैसा ही है…. सीधा-साधा …उसे बिल्कुल भी शहर की हवा नहीं लगी… किसी ने सच्च कहा है ,अगर नीव पक्की हो ,तो दीवारों में दरार कभी आ ही नहीं सकती…

बचपन से ही बच्चों को अच्छे संस्कार दिए जाएं ,तो बड़े होकर वह स्वच्छ समाज का निर्माण करते हैं ….डॉक्टरी की डिग्री लेने के बाद, अजय गांव वापस जाने के लिए तैयार हो गया… उसने मां से बहुत कहा कि मेरे साथ गांव चलिए… परंतु मां घर छोड़कर नहीं जा सकती थी… जब अजय नहीं माना तो, मैं कुछ दिनों के लिए उसके साथ उसका गांव घूमने चला गया …मैं सच में अजय के माता-पिता से मिलना चाहता था …अजय में उन्हीं के आदर्श झलकते थे …मैं उनके पांव छूकर उनका आशीर्वाद लेना चाहता था …हम गांव के लिए रवाना हो गए ..

पूरा एक दिन का सफर था …रास्ते में दो-तीन बार बस ड्राइवर ने चाय पानी के लिए बस रोक ली …हम खाते पीते गांव पहुंच गए… शाम को अजय के पिताजी बस स्टॉप पर खड़े थे ,अजय ने उनके पांव छुए… मैंने भी उनके पांव छुए… हमें देखकर वह बहुत खुश हुए… शायद अजय ने आने से पहले उन्हें बता दिया था टेलीफोन करके… अजय के पिताजी ने हमारी बैग अपने साइकिल पर रखी और चल दिए… हम भी उनके पीछे-पीछे चल दिए …जब घर पहुंचे तो मां की आंखें जैसे नम हो गई…

अजय भाग के उनके पांव छूकर उनके गले लग गया… यह देखकर मेरी भी आंखें भीग गई …सच में परिवार का स्नेह हमारे जीवन में कितने मायने रखता है … परिवार में ही तो हमारी जड़ होती हैं …इसके बिना हम भला किस काम के… मैंने भी मां का आशीर्वाद लिया और मां ने हमें भीतर ले जाकर शरबत पिलाया …घर में बना हुआ कच्ची केरी का शरबत.. बहुत स्वाद था… अजय का घर बहुत सुंदर था… हालांकि वह पक्का मकान नहीं था ,परंतु गोबर से लीपा हुआ फर्श सच में मुझे बहुत अच्छा लगा…

दीवारों पर बहुत सुंदर फूल पत्ते बने हुए थे… छोटा सा कच्चा घर ,परंतु सुकून से भरा हुआ …प्रकृति की गोद में स्वच्छ हवा ,स्वच्छ पानी ,सब कितना अच्छा था… अजय के साथ गांव में एक हफ्ता कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला …अजय की मां मुझे बिल्कुल मेरी मां जैसी ही लगी… फिर मैंने अजय से कहा, अब मुझे जाना होगा… शहर में मां इंतजार करती होगी… अजय गांव में रहकर ही डिस्पेंसरी खोलने वाला था …उसका यही कहना था कि वह अपने माता-पिता से दूर नहीं रह सकता…

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पढ़ाई करने के लिए जितना समय शहर में रहा ,यह वही जानता है कि कितना मुश्किल था उसके लिए… अब अपने माता-पिता के साथ गांव में ही रहेगा और वहीं रहकर बीमार लोगों को दवाई देगा …मैं भी शहर वापस आ गया और एक अस्पताल में नौकरी करने लगा… अक्सर टेलीफोन पर अजय से बात हो जाती और कभी – कभी मैं गांव जाकर उससे मिल लिया करता… एक दो बार तो मां भी मेरे साथ उसके गांव गई थी… सच में कई बार जीवन की राहों पर चलते-चलते कुछ रिश्ते इतने गहरे बन जाते हैं कि जीवन भर हमारे साथ सांस लेते हैं.. ऐसा ही रिश्ता मेरा और अजय का.. निस्वार्थ भाव से बना रिश्ता… 

स्वरचित रचना

शालिनी श्रीवास्तव

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