” ममता…ज़रा मेरी पीठ खुजला दे…।”
” अभी आई…।” कहकर ममता शकुंतला जी की तरफ़ बढ़ी ही थी कि शीलप्रभा जी ने उसे आवाज़ दे दी,” ममता बहन..मेरी चोटी तो बना दे..।”
” अभी आई शील दीदी..।” कहते हुए ममता शकुंतला जी पीठ खुजलाकर शीलप्रभा जी के बिस्तर पर बैठकर उनकी चोटी बनाने लगी।तभी पास के बेड पर लेटी अस्सी वर्षीय जमुना देवी कंपकंपाते स्वर में बोलीं,” ममता..तु..म..न…आती..तो..ह..मा..रा..क्याss हो..ता..।”
” कैसे न आती आंटी..आप लोगों का प्यार और स्नेह पाने के लिये तो मुझे यहाँ आना ही पड़ता है।” चोटी बनाते हुए ममता बोली और सोचने लगी, मैं तो घर से मरने के लिये ही निकली थी लेकिन जीवन की #ढलती साँझ में ये सुख देखना लिखा था तो यहाँ…।उसकी आँखों के सामने अतीत के पन्ने एक-एक करके खुलते चले गये।
ममता के पति राकेश एक सरकारी दफ़्तर में काम करते थें।अंशिका और वंशिका नाम की दो प्यारी बेटियाँ थीं जिनके पालन-पोषण में उसके दिन मज़े-से बीत रहे थें।राकेश भी दफ़्तर के बाद का पूरा समय अपने परिवार को ही देते थे।फिर एक दिन…दोनों बच्चियाँ स्कूल से घर आईं तो आगे के कमरे में पिता को सफ़ेद कपड़े में लिपटे फ़र्श पर लिटा देखा।अंशिका समझ गई कि उसके पापा..।बहन को लेकर रोती हुई अपनी माँ से लिपट कर वो भी रोने लगी।
उस कठिन समय में ममता ने खुद को संभाला और बेटियों को भी।दफ़्तर से मिला क्वार्टर छोड़कर वो बच्चों के साथ एक किराये के मकान में शिफ़्ट हो गई।पति के दफ़्तर से मिले पैसे और उनकी सेविंग से उसने बच्चों की पढ़ाई नियमित रखी लेकिन भविष्य की चिंता तो सिर पर रहती ही थी।कभी-कभी भाई मिलने आ जाते थे।
एक रक्षाबंधन पर बेटियों को लेकर भाई के घर गई तब भाभी ने ताना मार दिया तो फिर पलटकर नहीं गई।भाई से इतना ही कहा कि कोई काम दिला दो, यही एहसान बहुत है।भाई की पहचान से उसे एक बैग बनाने वाली फ़ैक्ट्री में काम मिल गया।खाली समय में वो घर में भी आसपास के लोगों के कपड़े सिल लिया करती थी।बेटियाँ उसकी होशियार और मेहनती थीं।दोनों ही बिना एक्स्ट्रा ट्युशन के ही अपनी कक्षा में अव्वल आती रहीं।
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अंततः ममता की मेहनत रंग लाई।अंशिका ने अंग्रेजी में एमए किया और वंशिका ने बीए करके फ़ैशन डिज़ाइनिंग में डिप्लोमा पूरा किया।भाई की मदद से उसने अंशिका का विवाह एक प्राइवेट बैंक में कार्यरत प्रशांत से कर दिया और साल भर बाद वंशिका का विवाह भी एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले वरुण के साथ करके वो अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो गई।फ़ैक्ट्री के काम के बाद शाम को वापस घर आती तो फ़ोन पर बेटियों से बात कर लेती।
अंशिका ने जुड़वाँ बच्चों, एक बेटा और एक बेटी को जनम दिया तब उसने अपनी माँ को कहा कि अब तुम्हें सिलाई करके अपनी आँख मत फोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है…मेरे पास आ जाओ और नाती-नातिन के साथ अपना बाकी जीवन बिताओ।वंशिका भी तुमसे मिलने आ जाया करेगी।
बेटी की बात पर ममता ने विचार किया..फ़ैक्ट्री में साथ काम करने वालों ने भी उसे यही सलाह दी कि अब ढलती उम्र में अपने बच्चों के साथ रहना ही उत्तम है।बस, उसने काम से हमेशा के लिये छुट्टी ले ली और अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर मुंबई जाने वाली ट्रेन में बैठ गई।
बेटी का भरा-पूरा घर देखकर ममता बहुत खुश थी।नाती-नातिन को मालिश करने, उसे नहलाने-धुलाने और उनके साथ खेलने में उसके दिन बीतने लगे।कुछ समय बाद वंशिका की डिलीवरी होने वाली थी तो वो वहाँ चली गई।उसके वहाँ छह महीने रहकर वो वापस अंशिका के पास आ गईं।इस तरह से बेटियों के पास आने-जाने का उनका क्रम बना रहा।बच्चे बड़े होने लगे और उनका शरीर थकने लगा।साठ साल में ही वो सत्तर-बहत्तर की की दिखने लगी।
एक दिन ममता वंशिका के चार वर्षीय बेटे के साथ खेल रही थी कि अचानक उसे खाँसी आ गई।बस वंशिका ने बेटे को उससे छीन लिया और उसे अपने घर के आउटहाउस में शिफ़्ट कर दिया।बेटी के व्यवहार से उसका मन आहत हो उठा।फिर तो उसने तय कर लिया कि अब यहाँ कभी नहीं आयेगी।अंशिका के पास ही रहकर अपना बाकी जीवन बिता देगी।
अंशिका के पास वापस आते ही ममता निढाल हो गई और बेटी से बोली,” अंशु(अंशिका)..अब मुझसे ये भाग-दौड़ नहीं होता..मैं तो तुम्हारे पास ही…।”
” आप यहाँ रहेंगी माँ तो मेरे सास-ससुर कहाँ रहेंगे।जैसा चल रहा है..चलने दीजिये..आपका मन लगा रहेगा और हमें भी आराम…।” तपाक-से अंशिका बोली तो वो दंग रह गई।सुना था कि बेटे स्वार्थी-मतलबी होते हैं लेकिन यहाँ तो उनकी बेटियाँ ही…।माँ की तकलीफ़ और परेशानी से उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता..दोनों ही बस अपना काम निकालना जानती हैं।फिर भी औलाद के मोह के कारण वो सब सह गई और दोनों बेटियों के बीच पेंडुलम की तरह घूमती रही।
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एक दिन अंशिका ने अपने सास-ससुर के सामने ही ममता को कुछ बोल दिया जो उसके लिये असहनीय था।वो रात भर पिछली बातों को याद करके आँसू बहाती रही..और सुबह तक में उसने निश्चय कर लिया कि मैं गंगा जी में कूद जाऊँगी.. अब मेरे जीने का कोई उद्देश्य नहीं है। बेटियों के नाम एक संदेश कि अब मैं जा रही हूँ
‘ लिखकर उसने घर छोड़ दिया और भूखी-प्यासी सड़क पर चलते हुए सोचने लगी कि मेरी भी क्या ज़िंदगी है..कम उम्र में साथ निभाने वाला पति साथ छोड़ गया..खुद को जलाकर जिन बेटियों का जीवन सँवारा और अब वो ही..।किसी ने सच ही कहा है कि बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं होता… बेटों की तरह ही बेटियों को भी अपनी माँ बोझ लगती हैं..अब जी कर क्या करुँगी..हे भगवान! मुझे उठा..,सहसा उसे ठोकर लगी और वो बेहोश हो गई।
होश आया तो ममता ने खुद को एक बिस्तर पर पाया।सामने खड़ी युवती को देखकर बोली,” आप लोग कौन..मैं यहाँ..।” अपना परिचय देते हुए युवती बोली,” मैं स्नेहा हूँ…आप हमारी कार से टकराकर बेहोश हो गई थीं..थैंक गाॅड कि आप सही-सलामत हैं..आपको कुछ हो जाता तो..।”
” मुझे क्यों बचाया..मर जाने देती…जीकर क्या करुँगी..मैं अपनों के लिये ही बोझ हूँ..।” कहते हुए वो फूट-फूटकर रोने लगी।उसके आँसुओं ने उसकी व्यथा सुना दी थी। तभी स्नेहा के पति सुशांत दोनों हाथों से एक व्हील चेयर को ढ़केलते हुए उनके पास आये और बोले,” आंटी..ये मेरी बारह साल की तन्वी है।एक दुर्घटना ने इसके कमर से निचले हिस्से को बेकार कर दिया।तब से व्हीलचेयर ही इसका साथी है परन्तु न तो हमने हिम्मत हारी और ना ही तन्वी के अंदर नकारात्मकता को पनपने दिया।वो बैठे-बैठे ही लिखती- पढ़ती है..ड्राइंग भी करती है।तन्वी बेटे..इन्हें अपनी पेंटिग तो दिखा..।”
स्नेहा ने ममता को तकिये के सहारे बैठाकर तन्वी की पेंटिंग दिखाई और बोली,” आंटी.. आपने तो अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया है, फिर अपनी बेटियों से उम्मीद क्यों रखती हैं? सूरज को देखिये..वो प्रतिदिन इस संसार को अपनी रोशनी और ऊर्जा देकर शाम को अस्त हो जाता है।फिर अगले दिन नये उत्साह के साथ उदय होता है।तो आप क्यों निराश होकर जीवन से अपना मुख मोड़ रहीं हैं।” ऐसे ही प्रेरक बातों से स्नेहा और सुशांत उसका मन बहलाने का प्रयास करते रहे।फिर सुशांत बोले,” आप कल हमारे साथ एक जगह चलिये…उसके बाद भी यदि आपकी मरने की इच्छा रही तो हम आपको नहीं रोकेंगे।”
अगली सुबह स्नेहा तन्वी को लेकर चेकअप के लिये डाॅक्टर के पास चली गई और सुशांत ममता को लेकर ‘ आश्रय- स्थल’ चले गये।वहाँ पर करीब बीस महिलायें थीं…उनके चेहरे बुझे हुए थे।सुशांत बोले,” ये सभी अपने परिजनों द्वारा त्यागे जाने पर यहाँ लाई गई हैं।इन्हें खाना-कपड़ा तो मिल जाता है लेकिन इनकी सेवा करने और बातें करने के लिये कोई तैयार नहीं होता..ये अपने दिन इस इंतज़ार में काट रहीं हैं कि कोई मदर टेरेसा आये और…।”
‘ आश्रय-स्थल’ से वापस आने पर ममता सोचने लगी, स्नेहा और सुशांत ने हँसते हुए वास्तविकता को स्वीकारा है।उनके अंदर तो कोई निराशा नहीं है, फिर मैं क्यों..।उसकी आँखों के सामने ‘ आश्रय-स्थल’ का दृश्य घूमने लगा।उसे लगा जैसे वो सभी उससे कुछ माँग रहीं हैं।उसने उन सभी बेसहारों की ढलती साँझ में नई रोशनी और मुस्कुराहट भर देने का फ़ैसला कर लिया।
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अगली सुबह उसकी ढलती ज़िंदगी की नई सुबह थी।वो तैयार होकर आश्रय- स्थल चली गई और किसी की बेटी तो किसी की बहन बन कर खुद को उनकी सेवा में समर्पित कर दिया।स्नेहा और सुशांत उसके इस निर्णय से बहुत खुश हुए।
ममता के प्यार, स्नेह और सेवा से वहाँ रह रहीं सभी वृद्धाओं के मुरझाये चेहरे खिलने लगे।उसकी फुर्ती और उत्साह देखकर कोई उसकी उम्र का अंदाज़ा नहीं लगा पाता था।एक दिन शकुंतला जी ने अपने हाथों में मेंहदी लगाने की इच्छा ज़ाहिर की।ममता उनकी हथेली सजाने लगी तो शीलप्रभा जी ने भी अपनी हथेली उसके सामने रख दी तो उसे हँसी आ गई।अब मेंहदी लगे हाथों से न तो पीठ खजुआ सकते हैं और ना ही चोटी बनाई जा सकती है।ममता वही कर रही थी…।
” ममता.. चोटी बनाते-बनाते सो गई क्या! मेंहदी पर नींबू-चीनी का..।” ममता वर्तमान में लौटी।
” हाँ-हाँ आँटी..बस अभी लगाती हूँ।” कहकर वो रसोई में चली गई।
ममता की बेटियाँ तो उसे भूल गई लेकिन उसने हमेशा उन्हें आशीर्वाद ही दिया।समय निकालकर वो स्नेहा के घर भी चली जाती और तन्वी में अपने नाती-नातिन को महसूस कर लेती।
विभा गुप्ता
# ढलती साँझ स्वरचित, बैंगलुरु
अपनों के लिये तो सभी जीते हैं लेकिन जो अपने दुख को भुलाकर दूसरों के चेहरे पर मुस्कान लाये, वही सच्चा इंसान कहलाता है।ममता ने भी यही किया और अपने नाम को सार्थक कर दिया।