ननद का हक –   मुकुन्द लाल

 शोभा की शादी के बाद तुरंत ही विदाई होने के पहले पारम्परिक रीति-रिवाज के अनुसार उसके बक्से को नये-नये कपड़ों, उपहारों व अन्य जरूरी सामानों से रिश्तेदारों द्वारा सजाया जा रहा था। उसी क्रम में उसकी मांँ कागजों में लिपटा एक चौकोर छोटा सा बंडल बक्से में रखने लगी तो वहीं पर खड़ी मुआयना करती उसकी बहू पदमा ने अपनी सास का हाथ पकड़ लिया यह कहते हुए ‘ क्या है इसमें?’ और फिर उसके हाथ से बंडल छीन लिया। इसके साथ ही उसकी आंँखों से क्रोध की चिनगारियांँ निकलने लगी।

अपने बहू के इस अप्रत्याशित कदम से वह सकपका गई।

 उस छोटे से कस्बे में एक ही मिल था, जिसमें गेहूंँ पीसने, सरसों व अन्य तेलहन से तेल निकालने और चूड़ा कूटने का काम होता था। उस मिल में हमेशा भीड़ लगी रहती थी। मिल में अनाजों से भरे बड़े-बड़े बोरों और बोरियों की भरमार रहती थी।

 दो-चार नौकरों के सहयोग से कामों को निबटाने में माधव हमेशा व्यस्त रहता था। उसे सिर खुजलाने की भी फुर्सत नहीं रहती थी।

उसकी बेटी शोभा उस घर में नहीं होती तो शायद ही किसी को समय पर नास्ता, चाय और खाना नसीब होता।

 इधर माधव मिल में व्यस्त रहता था, उधर शोभा मिल के परिसर से जुड़े हुए घर में चौका-चूल्हा में दिन-रात पिसती रहती थी।

 उस घर में सुबह से घरेलू कामों का सिलसिला जो शुरू होता वह रात तक चलता रहता था। शोभा घर के सदस्यों की रसोई तो बनाती ही थी किन्तु त्योहारों और शादी-विवाह के मौसम में जब मिल में काम बढ़ जाता तो जल्द से जल्द काम समाप्त करवाने की नीयत से नौकरों का खाना भी मौके-बेमौके बनाना पड़ता था। उसके कामों में उसकी मांँ अपनी शक्ति के अनुसार मदद करती थी। कभी बासन-बर्तन मांज देती थी, कभी साफ-सफाई कर देती थी, किन्तु उस परिवार का स्वघोषित मालिक और मालकिन की भूमिका में उसके भाई और भाभी थे।

 उसका भाई दिनेश और भाभी पदमा काम के नाम पर खानापूर्ति करते थे। करना-धरना तो कुछ नहीं था परन्तु किसी के काम में मीन-मेख(त्रुटि) निकालना उसकी आदतों में शुमार था।

 जब किसी कारणवश माधव मिल में नहीं रहता या किसी आवश्यक कार्यवश कस्बे से बाहर जाता तो मिल की निगरानी छोड़कर दिनेश व्यर्थ के कार्यों को अंजाम देने में लगा रहता। ऐसी अवस्था में मिल की देखभाल और नौकर-चाकर पर नजर शोभा ही रखती थी। पदमा तो काम से दूर भागती लेकिन सोने के गहनो को बनवाने व नई-नई कीमती रंग-बिरंगी साड़ियों को खरीदने में आगे रहती थी।

 शोभा की फुर्ती, चंचलता और कामों को तेजी से निबटाने की क्षमता के सभी कायल थे।

 माधव अपनी छोटी बेटी के कामों से खुश होकर कुछ पैसे मिठाई खाने के नाम पर दे दिया करता था, किंतु शोभा मिठाई न खाकर पैसे अपनी माँ के पास जमा कर देती थी। जब अपनी ननद(शोभा) को कपड़े या गहने देने की बातें यदा-कदा आती तो पदमा हमेशा विरोध किया करती थी। तब शोभा कहती थी कि वह भीख नहीं मांगती है, उसका भी इस घर में हक बनता है।

 उस दिन दिनेश ने पदमा के लिए सोने के खूबसूरत झुमके लाया था।

 शोभा झुमकों की प्रशंसा करती हुई अपने भाई के हाथ से अपने हाथ में लेकर देखने लगी, यह कहती हुई, ” भैया!… बहुत सुन्दर है, मेरे लिए भी झुमके ला दो न…”

 ” यह कोई बात हुई!… मैं तो पदमा के लिए झुमके लाया हूँ, अब तुम्हें भी लाकर दूंँ, मेरे पास क्या खजाना है…”

 ” भाभी के लिए खजाना भरा रहता है, जब मेरी बात आती है तो खजाना खाली हो जाता है।”

 ” दूसरे झुमके क्यों लायेंगे, यही तुम रख लो” कहती हुई पदमा झुमके वहीं पर छोड़कर गुस्से में पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई।

” वाह! वाह!… खून पसीना एक करके कमाई कोई करे, लाभ कोई और ले… यही दुनिया का दस्तूर है।… मैं हाथ किसी के सामने नहीं फैला रही हूंँ, अपना हक मांग रही हूंँ मैं और मैं लूंगी।”

 ” चुप भी रहो शोभा!… क्या बक-बक कर रही हो” कहते हुए दिनेश अपनी पत्नी को मनाने के लिए कानों के झुमके लेकर उसके कमरे की तरफ  बढ़ गया।

” नहीं भाई!… आपने मुझे क्या समझ रखा है? जैसे मेरी बड़ी दोनों बहनों को उल्लू बनाया, उसकी बेमेल शादी करवा कर, बेचारी को जिस खूंटे से बांध दिया, गायों की तरह दोनों बंध गई… वैसा मेरे बारे में मत सोचना।”

 ” तुम क्या पागलों की तरह अनाप-शनाप बक रही हो” उसकी मांँ ने उसको डांँटते हुए कहा।

” मांँ मेरे कानों में जो कर्णफूल हैं, वह कब का दरक गया है, कब टूटकर कहांँ गिर जाएगा कहना मुश्किल है। “

 आखिर ननद, भौजाई के मध्य बीच-बचाव करते हुए उसकी मांँ ने समझा कर दिनेश से कहा कि इसके लिए भी झुमके खरीद कर ला दे, पैसे घटे तो शोभा के पिताजी से मांग लो। हम उन्हें सारी बातें समझा देंगे।

 इस तरह के विवाद ननद और भाभी के बीच होते ही रहते थे, कभी साड़ी के लिए, कभी अन्य सामान के वास्ते।

 शोभा के माता-पिता की उम्र ढलने के साथ-साथ उस परिवार पर दिनेश और पदमा का शिकंजा कसता जा रहा था। उसकी भाभी का घर के हर काम में दखलंदाजी बढ़ती जा रही थी।

 माधव ने सोचा कि समांग(शक्ति) रहते, अपनी जिंदगी में ही शोभा के हाथ पीले कर दे। अपने रिश्तेदारों और शुभचिंतकों से सहयोग लेकर उसने वर ढूँढ़ने काम शुरू कर दिया। दो-चार जगहों पर प्रयास करने के बाद बात बन गई। वैसे भी तीखे नाक-नक्श वाली, शानदार व्यक्तित्व की मालकिन शोभा रूपवान व आकर्षक लड़की थी। अगुआ पहली ही नजर में उसको पसंद कर लेते थे। तेज-तर्रार तो बचपन से ही थी वह। जमाने के अनुसार चालाक भी थी।

 अपना हक लड़ कर लेना जानती थी वह, यही विशेषता पदमा को खलती थी।

 उसने पहले ही सोच लिया था कि जहाँ उसकी शादी होगी, उसके ससुराल में क्या स्थिति होगी कौन जानता है।शादी के वक्त लड़कों के अभिभावक अपनी हैसियत बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। अगर ऐसी स्थिति में उसकी शादी हो गई तो वह ससुराल में मात्र कठपुतली बनकर रह जाएगी। इसी सोच के तहत उसने पहले से ही पैसों, जेवरों और सौंदर्य प्रशाधन की आवश्यक सामग्री संचय करके रखने लगी थी अपनी माँ की सहमति लेकर, अपनी भाभी से चुपके।

 उसकी भाभी अक्सर उसकी शादीशुदा बहनों को किसी घरेलू फंक्शन में उन्हें आमंत्रित नहीं करती थी यह फरमान सुनाकर कि घर-परिवार में तो साल-भर में कई तरह के छोटे-मोटे समारोहों का आयोजन तो होते ही रहते हैं तो हर में आमंत्रित करके भारी-भरकम खर्च करवाकर अपने पति और इस परिवार को भिखारी बनवा दें।

 इसी तरह की उसकी अनुचित दलील के कारण ननद और भाभी में नहीं पटती थी।

 शोभा की शादी तय हो गई और शुभ   तैयारियाँ शुरू हो गई।

 शोभा ने अपनी मांँ के कान में अत्यंत धीमी आवाज में कुछ कहा।

 कागजों में लिपटे हुए रुपये के बंडल को देखकर उसकी भाभी की आंँखें फटी की फटी रह गई। उसके मुंँह से अनायास निकल गया, ” ये रुपये?”

 क्षण-भर के बाद उसने कहा, ” दोनों मांँ-बेटी मिलकर यहांँ पर क्या गड़बड़ी कर रही हो… इस शादी में लाखों रुपये खर्च हुए, फिर इतनी बड़ी रकम, पूरे पच्चास हजार की गड्डी बक्सा में देने का क्या मतलब है?… हमलोग कोई राजा-महाराजा हैं” तल्ख आवाज में पदमा ने कहा।

 उसकी मां सहमते हुए बोली, ” ये रुपये… “

” तुम चुप रहो मांँ… मैं बताती हूंँ… यह रुपये जिसको हाथ में लेकर प्रदर्शन कर रही हैं, वह न तो आपके हैं और न मेरे बड़े भाई के, पन्द्रह वर्षों में पापा ने निजी खर्च के लिए मिठाई खाने के नाम पर दस-बीस रुपये जो देते थे, उसी को मैं मिठाई नहीं खाकर मांँ के पास जमा करती जाती थी… ये रुपये पसीना बहाकर काम करने के कारण बख़्शीश के रूप में पापा द्वारा दिया गया पन्द्रह वर्षों की कमाई है। मैंने कोई चोरी या डाका डालकर नहीं जमा किया है।… बोलो मांँ सबके बीच में मैं जो कह रही हूँ वह सच है या नहीं। “

 शोभा के जवाब से उसकी मांँ की हिम्मत बढ़ गई।

 उसकी मांँ ने कहा,” हांँ बहू!… शोभा बिलकुल सच कह रही है, जब इसी मोहल्ले की लड़कियांँ शैर-सपाटा करती थी, टी. वी. या मोबाइल के माध्यम से मनोरंजन करती थी, उस समय मेरी बेटी इस प्रयास में लगी रहती थी कि उसके मिल का पहिया घूमता रहे, रुके नहीं।”

 उसकी भाभी खामोश होकर अपनी सास की बातें सुन रही थी किन्तु उसके चेहरे पर कड़वाहट साफ दिखलाई पड़ रही थी।

” तुमलोगों ने क्या शोर मचा रखा है?… लोग क्या कहेंगे?… छोङो इन बेबाहियात बातों को, शोभा जो कह रही है वह गलत नहीं है, उसका आचरण भी वैसा नहीं है।… शोभा के साथ विदाई के समय ऐसा बर्ताव करना शोभा नहीं देता है” माधव ने अचानक प्रकट होकर कहा जो बगल वाले कमरे में बैठकर सबकी बातें सुन रहा था।

 पदमा ने हाथ में पकड़े हुए रुपयों की गड्डी को सजाये जा रहे बक्से में फेंककर गुस्से में वहांँ से हट गई।

  स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित

 मुकुन्द लाल

 हजारीबाग

 19-05-2022

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