नास्तिक – हरीश पांडे

आभा अपने मायके पहुंचते ही फफक फफक कर रोने लगी। माता पिता किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े थे। बार बार आशा भरी निगाहों से दरवाज़े की तरफ देखते मगर किसी और के कदमों की आहट न सुनकर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। बेटी का रोना बंद नहीं हो रहा था और माता पिता के दिलों का ज़ोर से धड़कना।

सब कुछ सही ही तो चल रहा था उनकी बेटी के जीवन में। अगले महीने शादी को एक साल भी पूरा होने का आ रहा था। न कभी कोई जिक्र  न कोई शिकायत और आज अचानक यूँ अकेले चले आना और रोना उनकी समझ मे कुछ नही आ रहा था।

“सहने की भी हद होती है माँ। यूँ घुट घुट के जीने के लिए शादी नहीं की थी मैंने।” रोते रोते ही आभा ने खुद ही अपने आने का कारण बताते हुए कहा।

“अचानक ये सब? क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा तुझे?” माँ ने चुप कराते हुए गंभीरता से पूछा।

“आज आप लोगों के सामने बोल पहली बार रहीं हुँ पर इसका मतलब ये नहीं है कि ये पहली बार हुआ है।” आभा ने आंसू पोंछते हुए कहा।

“ऋषभ ने कुछ कहा?” इस बार पिता ने पूछा।

“वो कहते कहाँ हैं, वो तो सीधा हाथ उठाते हैं।” आभा बोलते बोलते फिर रो पड़ी।

“क्या मसला है, बेटा? सही से बताओ।” पिता ने उसे सोफे पर बिठाते हुए बोला।

“पता नहीं। पर मुझसे कोई भी ठीक से पेश नहीं आता। हर बात पे ताने।” आभा बोली।

“पर क्यों? और तूने पहले कभी नही बताया।” माँ चिंतित होते हुए बोली।




“सहन कर रही थी सब। मुझे लगा धीरे धीरे ठीक हो जाएगा सब। पर वक़्त के साथ तो सब और बिगड़ता चला गया।” आभा बोलते बोलते रुकी।

और फिर बोली ,” पता नहीं क्या बेरुखी है उन्हें मुझसे। हर बात पर खफा। ऑफिस जाती हुँ इस बात पे भी समस्या है उनको। फिर भी जितना मुमकिन हो घर का सब काम करती हुँ, खाना बनाती हुँ। लेकिन कभी कोई सीधे मुँह बात नहीं करता। उल्टा दहेज में कुछ नहीं दिया इसके ताने सुनने को मिलते हैं।” आभा ने मजबूती से कहा।

“पर इन सब बातों पर तो हमने शादी से पहले उनसे विचार विमर्श किया था और वो खुद दहेज नहीं लेना चाहते थे। तुम्हारी नौकरी से भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी?” माँ ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा।

“और ऋषभ क्या कहता है इस विषय मे?” पिता ने बेटी से तफ्तीश की।

“उन्हें कोई मतलब ही नहीं है मेरी परेशानियों से। उल्टा मेरे बहुत कहने पर वो मुझमें ही गलतियाँ निकालना शुरू कर देते हैं और मैं बहस करूँ तो फिर मेरा पिटना लाज़मी है।” आभा ने अपने गृहस्थ जीवन के सच खोलने शुरू कर दिए थे।

“और आज तो मुझे तलाक़ की चेतावनी भी मिल गयी।” आभा ने वाक्य का अंत अश्रुधारा के साथ किया।

“बेटा, हमारी संस्कृति में पति को परमेश्वर माना जाता है। जहाँ दो बर्तन साथ मे रहते हैं वहां आवाज़ तो होती ही है।” तलाक़ का नाम सुनके माँ के प्राण सूख गए थे इसलिए बेटी को समझाने लगी।

अभी तक सारा विवरण शांति से सुन रहे पिता ने बेटी की आँखों मे देखा। आँसू बहाती आँखें सच भी बयान कर रही थीं। पिता ने तुरंत आभा के ससुराल में फ़ोन मिलाया।

“नमस्कार समधि जी। आभा सकुशल पहुँच गयी घर?” आभा की सास फोन पर बोली।

“सकुशल पहुँचने के लिए चिंतित थीं तो किसी को साथ भेज दिया होता।” पिता ने कड़े शब्दों में कहा।

“ये सुनती कहाँ है किसी की, हम तो पीछे से आवाज़ लगाते रह गए?” सास ने खुद का बचाव किया।




“छोड़ने की धमकी भी दो और चिंतित होने का दिखावा भी करो, अजीब संस्कार हैं आपके?” पिता ने अपनी बेटी के आंसुओं का बदला लेना शुरू किया।

“अब पति से ज़बान लड़ाएगी तो उसे भी तो गुस्सा आएगा ही न?  आखिर वो भी तो मर्द जात है।” सास ने कुतर्क प्रस्तुत करते हुए बहस जारी रखी।

“तो ऐसा कीजिए कि अब उसको अपनी मर्दानगी कोर्ट में दिखाने को कहिये। कल आपके पास तलाक का नोटिस आ जायेगा।” पिता का पारा अब बहुत ऊपर चढ़ चुका था।

सास को समझते देर न लगी कि ये कोई गीदड़ भपकी नहीं है। तुरंत मामले को संभालने के लिए बोली ,” देखिए इतना गुस्सा मत कीजिये। पति पत्नी में अन बन तो होती रहती है। ऋषभ ने गुस्से में तलाक का जिक्र कर दिया था। अब वो खुद शर्मिंदा है अपने कहे पे। पति तो आखिर परमेश्वर होता है ना। मैं खुद उसे कल आभा को लेने के लिए भेजूंगी।”

“शर्मिंदा तो आपको अब ताउम्र होना पड़ेगा जब मैं पुलिस में ये केस दर्ज करवाऊंगा।” पिता ने गुस्से में बोला और फ़ोन काटने से पहले एक और बात बोली ,” ऐसे परमेश्वर की इस समाज को कोई जरूरत नहीं जो आपको नास्तिक बनने पर मजबूर कर दे।”

हरीश पांडे

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