मुक्ति- बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

आज पापा की आरिष्टि है।पापा खुद नगर में लोकप्रिय रहे है और मैं स्वयं प्रतिष्ठित डॉक्टर हूँ तो इस कारण नगर के काफी लोग हमारी कोठी के बड़े से लॉन में एकत्रित हुए हैं।एक प्रकार से यह एक शोक सभा हो गयी है।नगर की कई संस्थाओं ने अपने अपने शोक प्रस्ताव भेजे हैं, जिन्हें पढ़ने का दायित्व मैंने अपने एक पुराने मित्र दिनेश को सौप दिया था।जो भी लोग आ रहे थे वे सब पहले मेरे पास आते फिर मुझे सांत्वना देते और जहां हमने बैठने की व्यवस्था की थी,वहां बैठ जाते।

     जब भी कोई मुझे सांत्वना देता तो मेरी आँखों मे आंसू आ जाते, मैं दूसरी ओर अपना चेहरा घूमा लेता।मैं चाह रहा था,जल्द ही यह आरिष्टि कार्यक्रम समाप्त हो जाये।उधर शोक प्रस्ताव पढ़े जाने के बाद कुछ गणमान्य  व्यक्ति मेरे पापा को शब्दों से श्रंद्धाजलि देने लगे थे।मेरे पापा का जीवन ही वास्तव समाज को और फिर परिवार को समर्पित रहा था।

      नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के मेरे पापा की शान में कहे शब्दो ने मुझे अतीत में पहुंचा दिया।मैं उनका एकलौता बेटा था,मुझे बेइंतिहा प्यार करते थे।एक बार बचपन मे शैतानी करते हुए पत्थर की सिल मैं अपने पैर पर गिरा बैठा, इससे मेरे पैर का अगूंठा कुचला गया,भयंकर दर्द के कारण मेरी चीख निकल गयी।प—पा—पा,पापा की आवाज पूरी कोठी में गूंज उठी।पापा बदहवास से दौड़े आये, मेरी हालत देख उन्होंने मुझे गोद मे उठा लिया और ऐसे ही डॉक्टर के यहाँ दौड़ लिये।डॉक्टर ने पापा को बता दिया कि अगूंठे का मांस कुचला गया है,वहां टांके नही लग सकते हैं, ऐसे ही घाव सुखाना होगा,प्रतिदिन पट्टी करानी होगी।दर्द के लिये पेन किलर सीमित मात्रा में देना ही होगा।

     मुझे अब तक याद है,मेरे पापा मुझे गोद मे लिये रात रात भर बैठे रहते,माँ को सुला देते कि  जागोगी तो बीमार पड़ जाओगी।मैं हूँ ना,सब ठीक हो जायेगा।हमारा मुन्ना जल्द ठीक हो जायेगा।मैं भी पापा की गोद मे अपने को और समेट लेता।

      ऐसा कोई एक बार थोड़े ही हुआ,कई बार पापा मैं यदि जरा भी बीमार होता तो मुझे अकेला बिल्कुल नही छोड़ते।सच तो ये था,उनकी उपस्थिति में मेरा मनोबल भी बढ़ता था और मुझे सुरक्षा भी लगती।मेरा लगाव भी अपने पापा से बहुत ही अधिक था।वे मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे।जब मैं प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था तो मेरे पापा दूर चुपचाप बैठ बस मुझे ही निहारते रहते।कभी जूस लाकर रख देते तो कभी फल कभी और कुछ,बिना मुझे डिस्टर्ब किये।

     मेरी पढ़ाई और मेरे पापा की तपस्या ने रंग दिखाया और मेरा चयन मेडिकल की पढ़ाई के लिये हो गया।मेरा मेडिकल कालेज और हमारे नगर के बीच फासला मात्र 50 किलोमीटर का था,सो अवकाश में या तो मैं घर चला जाता या फिर पापा ही आ जाते।असल मे अब मैं उनके मनोभाव समझने लगा था,वे भी मेरे बिना अपने को अधूरा ही मानते थे और मैं भी उन्हें बेहद चाहता था।

        पापा के मनोभाव और अपनी भी इच्छानुसार मैंने कही नौकरी करने के बजाय अपने नगर में ही डाक्टरी करने का निश्चय किया।मेरे निर्णय से पापा बहुत खुश हुए,क्योंकि मैं अब उनके पास ही रहने वाला था,यही मैं सोच रहा था कि ऐसे ही अब पापा के पास रहना हो जायेगा।बिना बोले हम दोनों ही खुश थे।

    सब कुछ ठीक चल रहा था,मेरी प्रैक्टिस खूब बढ़िया चल निकली थी,पैसा और सम्मान खूब मिल रहा था। कोविड समय आ गया।चारो ओर हाहाकार मचा था,लॉक डाउन लगा था,सब घरों में कैद थे,पूरे विश्व मे दहशत का माहौल था,लाखो लोगो को कोरोना लील रहा था।

सामाजिक दूरियां बढ़ गयी थी,कोई  किसी के पास जीने मरने तक मे भी आ जा नही रहा था।इस बीमारी का तब कोई इलाज तक नही था।ऐसे में ही दुर्भाग्यवश मेरे पापा इस बीमारी की चपेट में आ गये।मैं स्वयं डॉक्टर था,मुझे मालूम था इस बीमारी का इलाज नही है,सिवाय मरीज को बिल्कुल एकांतवास में रखा जाये।दिल कड़ा कर मैंने पिता को घर मे ही एक कमरे में  एकांत में रख दिया,पर उनकी हालत गंभीर होती जा रही थी,

मैंने उन्हें होस्पिटल में एडमिट करने का मन बना लिया,मैं जानता था कि वहां भी कोई इलाज नही है,फिरभी घर के अन्य सदस्यों को बचाने तथा पापा को प्रोपेरवे में ऑक्सीजन मिलती रहेगी, ऐसा सोचकर मैंने पापा को बता दिया कि उन्हें कुछ दिन होस्पिटल में रहना होगा।पापा बहुत ही दयनीय स्वर में बोले मुन्ना मैं तुम सबको छोड़कर नही जाना चाहता, मुझे घर पर ही रहने दो।मुन्ना मैं यही मरना चाहता हूँ।

उनके अंतर्नाद को सुन मेरी आँखों से आंसू बहने लगे,पर दिल को कठोर बना मैंने उन्हें होस्पिटल भिजवाना ही उचित समझा।हॉस्पिटल जाते समय भी वे बिलख रहे थे,मुन्ना मुझे मत भेज रे,मैं तुम्हारे सामने ही मरना चाहता हूँ।मैं बस आंखे पौछते हुए उन्हें ढाढस ही बंधा रहा था,अरे नही पापा बस आठ दस दिन की बात है,आप बिलकुल ठीक होकर आयेंगे।मेरे निश्चय को देख वे एकदम चुप हो गये।चुपचाप हॉस्पिटल भी चले गये।जाते समय जिन कातर नजरो से वे मुझे देख रहे थे,वे नजरे दिल चीर देने वाली थी।

         पापा हॉस्पिटल चले गये।वीडियो  कॉन्फ्रेंसिंग से उनसे रोज मैं बात करता,पर वे गुमसुम ही रहे।उनके दर्द को मैं समझ रहा था,पर किया क्या जा सकता था।  आठ दिन ही बीते थे कि होस्पिटल से उनके बेटर प्लेस पर जाने की सूचना आ ही गयी।पापा ऐसे चले जायेंगे कल्पना से परे था।

एक बज्रपात मुझ पर हो गया था।पापा के बिना कैसे रहा जायेगा, कभी सोचा भी नही था।मन मे अपराध भाव अलग से था,डॉक्टर होते हुए भी मैं अपने पापा के लिये भी कुछ न कर सका।बार बार उनका स्वर कानो में पड़ता मुन्ना मुझे होस्पिटल मत भेज रे,मैं यहीं मरना चाहता हूँ।अपराध की ये भावना मेरे मन पर बोझ बनती जा रही थी।पापा का अंतिम संस्कार भी कोविड प्रोटोकॉल से ही हुआ।उन्हें बस दूर से ही देख पाये।

       कोविड की समाप्ति की घोषणा के बाद मैंने पापा की आरिष्टि करने का मन बनाया।मैं सोच रहा था,कि इससे मेरे पापा की आत्मा को शांति प्राप्त होगी।मैंने पापा का एक बड़ा सा फोटो बाहर पंडाल में लगवाया,जिससे सब उन्हें वही श्रंद्धाजलि अर्पित कर सके।उससे पूर्व डॉक्टर होते हुए भी मैंने पापा की शांति के लिये डेढ़ लाख गायत्री मंत्रों का जाप भी कराया। पंडाल में अंत मे मुझे भी सभी आने वालों को धन्यवाद तो देना ही था,किसी प्रकार सबके आगे हाथ जोड़ मैंने धन्यवाद दिया,तो लगा पापा पीछे से बोल रहे हो मुन्ना तू दुःखी मत हो रे,मैं कही नही जाऊंगा,तेरे पास ही रहूंगा।

      मेरी हिचकी बंध गयी।सब मुझे सांत्वना दे रहे थे,उन्हें क्या पता था मैं कैसी मानसिक पीड़ा से गुजर रहा हूँ।मै अपने को गुनाहगार मान रहा था,पर मेरे पास गुनाह की सजा का प्रावधान नही था।

       तीन माह बाद ही मेरी गर्भवती पत्नी की डिलीवरी हुई।मैं पापा बन गया था,एक बेटे का।काश आज पापा होते तो पोते को देख वे कितना प्रसन्न होते।मैं अपने बेटे को गोद मे ले अपनी पत्नी के साथ पापा की फोटो के समक्ष बेटे को आशीर्वाद  दिलाने लेकर गये।मैं उनके फ़ोटो के सामने बेटे को लेकर आंख बंद कर खड़ा हो गया।मेरे कानों में आवाज सी गूंजी मुन्ना मैंने कहा था ना,मैं कही नही जाऊंगा,देख आ गया ना।

मैंने अचकचा कर आंखे खोली तो आसपास पत्नी के अतिरिक्त कोई नही था,तो फिर ये आवाज।तभी मेरी नजर गोद मे लेटे बेटे पर पड़ी, देखा वो मेरी ओर देख शरारती मुस्कान बिखेर रहा था,उसका चेहरा मुझे बिल्कुल पापा जैसा लग रहा था।ओह! तो पापा आज घर वापस आ ही गये।मेरी आँखों मे आंसू थे,चेहरे पर मुस्कान थी,मैंने भावावेश में अपने बच्चे को अपने से चिपटा लिया।अनायास मुँह से निकल गया,पापा पापा——। मेरी पत्नी मेरी ओर देख रही थी अचरज भरी निगाहों से।

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवम अप्रकाशित
VM

 

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