मुक्ति – सपना शिवाले सोलंकी

मैं जब भी उस सड़क से गुजरती मेरा ध्यान अनायास ही उस बूढ़ी जर्जर काया, झुर्रियों से भरा चेहरे की ओर चला जाता।देखकर लगता तौलने पर किलो भर माँस भी न होगा शरीर में। मुख्य सड़क के फुटपाथ (सर्विस रोड़ ) पर गठरी की तरह सिमट कर बैठी हुई आकाश की ओर टकटकी लगाए जीवन की जाने कौन सी अबूझ पहेली का जवाब खोजती रहती वह। 

वहाँ से गुजरने वाले राहगीर उसके सामनें रुपये पैसे डाल दिया करते । इसी सर्विस रोड़ के पीछे पर एक डिपार्टमेंटल स्टोर्स था जिसे मात देने की कोशिश में एक व्यक्ति ने एक किराने की दुकान खोल रखी थी जिनसे परिचय होने पर उन्हें मैं उमेश भैया कहने लगी थी ।

जिस किसी को छोटी मोटी खरीददारी करनीं होती वह किराना दुकान ही जाता, खरीददारी में वक़्त भी कम लगता और उधारी की व्यवस्था थी जो लोगों को बड़ी सुविधाजनक लगती। मेरा मकान पास की ही एक कॉलोनी में था । 

एक दिन घूमते फिरते सामान लेने मैं किराने की दुकान पहुँची तो मैंने दुकानदार उमेश भैया से पूछा, मैं जब से इस शहर में आई हूँ इस रोड से आते जाते इस बुढ़िया को देख रही हूँ। बहुत ही बीमार लगती है ,इसे किसी अस्पताल या वृद्धा आश्रम में भिजवा देना चाहिए।

मैडम ये अम्मा कहीं नहीं जाने वाली … अरे क्यों नहीं जाएगी ? दरअसल इनके पति और ये दोनों मजदूरी करतें थे। निःसंतान थे। जब हाथ -पैर चलना कम हुए तो दोनो यहीं बैठकर भीख माँगने लगे। दो बरस पहले इसके पति गुज़र गए।

उस दिन से ये अपनीं झोपड़ी में भी नहीं गई, इस स्थान को छोड़ती ही नहीं है। मैंने खूब समझाया पर जाने को राज़ी ही नही होती। नगर निगम के लोग भी कई बार आकर डाँटे डपटें एक दो बार पुलिस वाले भी आकर चिल्ला कर गये पर अम्मा ने किसी की बात न सुनी ।

ये बगल के सुलभ शौचालय में ही स्नान कर लेती फिर आकर उसी जगह पर बैठ जाती है कभी मन किया तो कुछ खा लेती है वरना कई कई दिन भूखी पड़ी रहती है। बहुत ज़िद्दी है जरा भी नहीं सुनतीं। मैंने ही धूप बारिश से बचने के लिए छोटी सी त्रिपाल लगवा दी है छोटा सा शेड लगवाना चाहता था

पर निगम के कर्मचारियों ने मना कर दिया । जानतीं है हर रोज जो भी पैसा इक्कठा होता है ये मुझे दे देती है महीनें के दस पन्द्रह हज़ार रुपये जुट जाते हैं ये देखिए अम्मा के नाम की छोटी सी पेटी इसी में रखता हूँ सारे पैसे । मैंने ये जो वाटरकूलर लगवाया इसी अम्मा के पैसों से लगवाया है।


अम्मा के पैसों से ही गरीबों की नारायण सेवा भी करता हूँ । भोजन पैकेट बंटवाता हूँ ताकि गरीबों की दुआओं से अम्मा को मुक्ति तो मिले। मैं रोज सुबह दुकान खोलने से पहले और बन्द करनें के बाद अम्मा के पास जाकर खड़ा हो जाता हूँ ,कभी मन करता है तो मेरी तरफ देखती है वरना पैसों की पोटली मेरी ओर  खिसकाकर चुप रहती है ।

हर दिन घर से निकलते सबसे पहले मन मे यही विचार आता है कि अम्मा मिलेगी या नहीं….पर सच कहूँ तो अब इसकी हालत देख मैं मन ही मन ईश्वर से इनके प्राणों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ….लेक़िन पता नहीं ईश्वर को भी क्यों इसपर दया नहीं आती ….

उमेश भैया की बात को मैं अत्यंत ध्यानपूर्वक सुन रही थी मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ ,क्या कहूँ  बस मुस्कुरा भर दी… अम्मा की ओर देखा तो वो पूर्व की भाँति सिमटी हुई दिखी… मैंने अपना सामान उठाया और चुपचाप घर लौट आई …

उस दिन के बाद मैं भी हर दिन ईश्वर से उस बूढ़ी अम्मा की मुक्ति के लिए रोज सुबह शाम प्रार्थना करनें लगी थी। लगभग आठ- नौ माह बीत गए।  कुछ दिनों पूर्व  मुझे बुखार ने जकड़ लिया घर पर डॉक्टर को बुलाना पड़ा उन्होंने बताया वायरल फ़ीवर हुआ है

खूब आराम करनें की सलाह दी। दवा खाकर घर पर ही पड़ी रहती । कमज़ोरी इतनीं महसूस हो रही थी कि बिस्तर से उठने का जी ही नहीं करता गाहे बगाहे वो भिक्षुणी अम्मा याद आ जाती तो लगता उसी के जैसे हालत हो गई मेरी।

 दस पन्द्रह दिन बाद जब शरीर की कमजोरी थोड़ी दूर हुई तो हिम्मत करके एकदिन मैं किराने की दुकान की ओर गई…पर ये क्या अम्मा दिखी ही नहीं , दिल धक धक करनें लगा। दुकान में उमेश भैया भी नहीं थे कोई लड़का था जिसे मैं नहीं जानती थी । मैंने जल्दी से उँगली से इशारा कर पूछा वहाँ जो अम्मा बैठती थी कहाँ गई ? सुनकर आश्चर्य से उसने मेरी ओर गौर से देखा फिर कहा, मर गई…..मर गई ?…. कब?  सप्ताह भर पहले  ….

उमेश चाचा ने उसका क्रिया कर्म किया…कहाँ है भैया? उनकी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी आज घर पर ही हैं कल आएँगे। उस बूढ़ी अम्मा के प्राणों की मुक्ति दिलाने की मैं इतनें दिनों से प्रार्थना कर रही थी और जब वे मुक्त हो गए तो ना जाने क्यों पर मन बहुत कचोट रहा था …उस सूने स्थान को देखकर बहुत दुख हो रहा था। उस दिन तो मैं चुपचाप वापिस घर लौट आई। 

अगले दिन फिर से गई ।दरअसल मुझे उमेश भैया से मिलनें का मन किया था । भैया ने हमेशा की तरह मुझे देखकर नमस्ते मैडम कहकर मुस्कुरा दिया। फिर धीरे से आकाश की ओर इशारा कर कहा ,अम्मा गई… दूर ss बहुत दूर sss….पर मुझे नेकी सिखा कर गई…अब तक मैं अम्मा के पैसों से नारायण सेवा करता आया अब अपनें पैसों से करूँगा…! 

बहुत उत्तम विचार हैं भैया आपके। बस मेरे मन में भी इच्छा थी इस बार पितृमोक्ष अमावस्या के दिन अम्मा के नाम की भी आहुति दे देती। उनका नाम क्या था? “अम्मा ss ” “अम्मा…?” हाँ अम्मा और क्या, मैं तो इसी नाम से पुकारता था ना …सुनकर मैं हौले से मुस्कुरा दी …..घर लौटते समय दादी की बात याद आई किसी न किसी जन्म का ऋण होता है तो व्यक्ति का नाता ऐसे ही जुड़ जाता है।

 हाँ शायद तभी तो एक भीख माँगने वाली बूढ़ी औरत के बारे में इतना सोंच बैठे हम…उमेश भैया मुखाग्नि देकर किसी जनम के ऋण से मुक्त हुए और अब मैं उसके लिए आहूति देकर ऋण मुक्त हो सकूँगी….

— सपना शिवाले सोलंकी

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