मिलन  – पुष्पा जोशी

‘क्या बात है सरिता? पूरे तीन दिन हो गए हमारे विवाह को,मगर तुम पता नहीं,कहाँ खोई हो,तुम्हारा उदास चेहरा अच्छा नहीं लगता,यहाँ अगर किसी बात से तुम्हें परेशानी है,तो मुझे बताओ,जब तक नहीं बताओगी मुझे पता कैसे चलेगा ।भ‌ई मैं सागर हूँ, कोई भगवान तो नहीं जो घट-घट की जानते हैं।’ सागर ने अपनी गहरी नीली आँखों से सरिता की आँखों में झांकते हुए कहा। सरिता ने मुस्कान अधरों पर बिखेरी, जो लग रहा था कि उसने बरबस होटों पर खींची है, और कहा-‘ऐसी कोई बात नहीं है,बस थोड़ी थकान लग रही है, मैं सोना चाह रही हूँ।

‘ सागर की समझ में आ रहा था,कि जरूर कुछ उलझन है जो सरिता बताना नहीं चाह रही,वरना सागर से ज्यादा उत्साह तो सरिता को था इस शादी का।आज तीन दिन हो गए और सागर…..।सागर सुलझे हुए व्यक्तित्व का धीर गंभीर युवक था।उसने आज फिर अपने अरमानों को मन में दबा लिया और कहा-‘ ठीक है तुम सो जाओ,अगर कुछ जरूरत हो तो कहना,यह घर अभी तुम्हें नया-नया लग रहा होगा।’
सरिता अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। लाड़-प्यार में पली बढ़ी।पिता उच्च प्रशासनिक पद पर पदस्थ थे।वह जो चाहती उसकी फरमाइश पूरी हो जाती, वह अपनी हर वस्तु पर अपना एकाधिकार समझती। माता-पिता ने भी लाड़ प्यार में उसे कभी कुछ समझाया ही नहीं। सरिता बेहद खूबसूरत थी, घुंघराले भूरे रेशमी बाल,दूध सा गोरा रंग,तीखे नैन नक्श और मीठी मोहक मुस्कान और शबनमी आँखें।जो भी देखता, देखता ही रह जाता।
सरिता को घूमने- फिरने का बहुत शोक था। हर साल गर्मियों में अलग-अलग पर्यटन स्थल पर जाती,उसे पर्वतो की ऊँचाई और उसकी हरियाली, पत्थरों को चीरते बहते तेज झरनों  का शोर।जंगलों में बहती तेज हवाओं से बजते पत्तों की खड़-खड़, सभी आकर्षित करते।मगर कल-कल करती बहती नदियों को देख वह खुशी से झूम उठती और माँ से प्रश्न‌ करती –  ‘माँ ये नदियाँ कहाँ तक जाती है?’ माँ कहती -‘बेटा ये नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती है।’
सरिता जैसे-जैसे बड़ी होती गई उसका प्रकृति से प्रेम बढ़ता गया,वह क‌ई बार सोचती उसकी चाल नदी की तरह है,लहराती, बलखाती और नदी के सापेक्ष स्वयं को देखती। यौवन की दहलीज पर कदम रखने पर उसके हृदय में आनन्द की हिलौरें उठने लगी,उसे लगता कि वह किस समुद्र में जाकर मिलेगी?कौन होगा उसके सपनों का राजकुमार? और वह दिन आ ही गया। वह बी.एससी. फायनल में पढ़ रही थी, और उसके कॉलेज में एम.एससी.फायनल में सागर ने प्रवेश लिया।वह शहर में नया आया था। गौरा रंग, गहरी नीली  आँखें,काले घने बाल,चेहरे पर आकर्षक दाढ़ी,लंबा कद और गठीला बदन। आकर्षक व्यक्तित्व का धनी। जो देखे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए। कॉलेज के वार्षिकोत्सव में दोनों ने भाग लिया था,




अन्ताक्षरी का मुकाबला था। लड़कियों की और लड़कों की टीम अलग – अलग थी,सुन्दर नये पुराने गीतों की झड़ी लगी थी, दोनों की नजरें क‌ई बार एक दूसरे से टकराई…एक सम्मोहन सा था दोनों की नजरों में,शायद एक ही तरह की भाव लहरियां उठ रही थी, दोनों के मन में, फिर तो आए दिन मिलने के बहाने ढूंढें जाने लगे, मुलाकातें बड़ी और ऐसी बड़ी की उनकी चरम मंजिल शादी पर रूकी।
सागर घर का बड़ा बेटा था,उसके दो छोटे भाई और एक बहिन थी।माँ किसी विद्यालय में नौकरी करती थी, सागर पर परिवार की जिम्मेदारी थी,उसने साफ कह दिया था कि ‘वह जब तक ठीक तरह से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता ,शादी नहीं करेगा।’ सरिता पर तो उसका नशा चढ़ा हुआ था,उसने कहा कि ‘वह इन्तजार करेगी।’ सागर की  बैंक में अच्छी नौकरी लग गई । दोनों परिवार की सहमति से विवाह सम्पन्न हो गया। सरिता इस घर में आ तो ग‌ई, मगर दिल में एक अजीब सी कुलबुलाहट थी, कुछ सोचते-सोचते उसे नींद आ गई।
उसने देखा, एक पहाड़ी नदी उछलती कूदती अपनी मस्ती में मस्त चली जा रही है, सागर की लहरें उछल उछल कर अपनी बाहें फैलाए उसे बुला रही है।सागर के किनारे ….यह क्या? सागर से मिलने के लिए बेताब नदी अचानक रूक गई, उसने ऐसा क्या देख लिया?
ये इतने सारे नदी नाले सागर में मिल रहे हैं और सागर उन सबको अपने में समाहित कर प्रसन्नता से उछल रहा है,तो क्या वह व्यर्थ ही पहाड़ से उतर कर बहती हुई यहाँ तक आई? वह समझ रही थी,सागर सिर्फ उसका है,उसका एकाधिकार है उस पर।सागर की लहरें उछल-उछल कर  उसका आव्हान कर रही थी, और वह पता नहीं किन चट्टानों ,पत्थरों में उलझ ग‌ई थी,आगे बढ़ ही नहीं पा रही थी,

 सरिता को लगा जैसे उसका गला अवरूद्ध हो गया है। आवाज नहीं निकल रही,राह सूझ नहीं रहा है।घबराहट के कारण वह पसीने-पसीने हो गई। तभी, उसे लगा कि कोई कह रहा है- ‘तू अपने साथ जो कंकड़ पत्थर लाई है,उसे छोड़कर, आगे बढ़ सागर तुझे अपने में समाहित करने को आतुर है,सागर विशाल है और उसे तेरे साथ और सबको भी अपने अन्तस में पनाह देनी होती है,ये सब नदी नाले उसके परिवार का हिस्सा है,वह उनसे विलग कैसे रह सकता है।’ नदी का मैला धुल गया था,और वह सागर की ओर बह रही है,उसका जल निर्मल हो गया है। सरिता ने चौंककर आँखें खोली,उसकी आँखें  वास्तव में खुल गई थी,उसे समझ में आ गया था, कि सागर के भाई, बहिन,माँ , सभी का सागर पर अधिकार है, वह व्यर्थ ही अपना मन खराब कर रही थी, सागर की बाहें  तो उसे पुकार रही है,वो ही अपने कदम रोक कर खड़ी है। सागर की आँखें खुली,वह बोला क्या बात है सरिता? तुम इतनी घबराई हुई  क्यों हो?
कुछ नहीं बस मुझे अपने अन्दर समाहित करलों, मैं तुमसे दूर नहीं रह सकती। और फिर…..एक प्रगाढ़ आलिंगन के साथ मिलन की बेला आ ही गई।प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

1 thought on “मिलन  – पुष्पा जोशी”

  1. Pushpa joshi kya Malatl joshi ki beti hain. Mujhe unake lekhan me malati joshi ki lekhani dikhati hai. मैं Malati joshi ki कहानियाँ की कायल हूँ मध्यम वर्गीय परिवार का यथार्थ चित्रण है उनकी कहानियों में। Jo मुझे पुष्पा जी की लेखनी मे झलकता है। Dhanywad पुष्पा जी इतनी अच्छी कहानियों के लिए

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