लगभग 15 वर्ष पूर्व मैं अपने मायके एक विवाह सामारोह मे शामिल होने गई थी। तब मेरी बच्ची काफी छोटी थी। लेकिन माँ के विशेष अनुरोध को मैं टाल न सकी और यहाँ से अनुमति प्राप्त कर बच्ची समेत अपने भाई के साथ अपने मायके मे मेरा प्रादुर्भाव हुआ l
वैसे बेटियां जब मायके आती हैं अवसर कोई भी ऐसा लगता मानो ये उत्सव हमारे अगमन के उपलक्ष्य मे ही आयोजित किया गया हो!
इतना आव-भगत देख ऐसा लगता है कि अचानक आम से खास हो गए हैं जैसे कोई इम्तहान प्रथम श्रेणी से पास हो गए हैं! पाँव भी परात मे रख कर धोए गए! गजब!
खैर इन सब से निपटकर मैं अपनी बचपन की सखियों संग बैठक मे मेहंदी-हल्दी की बातों मे मशगूल हो गई। लेकिन बार-बार मेरी नजर किसी की नजरों से टकरा जाती और मैं उन आँखो को पहचानने की कोशिश किए बिना ही अपनी नज़रें हटा लेती। असल में वो सूरत मेरे लिए वास्तव मे अजनबी थी।
वो हमउम्र ही थी लेकिन बिलकुल निस्तेज! ना संदूर ,ना बिंदी ,ना कोई गहना! सूखे से होठ ,कपड़े भी बड़े बेतरतीब से! मानो उसे इस माहौल की या दुनिया की कोई खबर ही नहीं l
हम औरतों को प्रथम दृष्टि में खूबसूरत बनाने वाली कोई भी निशानी से मानो वो अपरिचित सी थी।
लेकिन फिर भी मुझे कौतूहल तो हुई आखिर कौन है ये? शुभ-विवाह वाले घर मे ऐसी भाव-भंगिमा बनायें क्यो घुम रही है? आखिर मैने माँ के कान मे धीरे से पूछ ही लिया। तब माँ ने मुझे बताया –
“दिनेश के मेहरारू ह ई।” (दिनेश की पत्नी है )
इस कहानी को भी पढ़ें:
“कौन दिनेश?” मैने अपनी याददाश्त को दुरुस्त करना चाहा। माँ बोली-
“तोहरा से पढ़त ना रहे? उहे दिनेश…जाये द ताहरा याद ना होखी।”(जो तुम से पढ़ता था वही दिनेश, रहने दो तुम्हे याद नहीं होगा)l
“नहीं! नहीं मुझे याद है।” सच मुझे याद हो आया था l
“लेकिन ये ऐसे क्यों है? इतनी उदास सी!” मेरा प्रश्न तो ये था l
“दिनेश मूं न गइल, एक साल भइल।”(दिनेश की मृत्यु हो गई,एक वर्ष पूर्व)…माँ के ये शब्द सुन एक पल के लिए भीतर-बाहर सब रुक सा गया..,उत्सव का शोर मेरे लिए थम सा गया और मैं कुछ पल के लिए बर्फ की तरह जम सी गई…l
“कैसे….?”
अब ये अगला सवाल था मेरा अपनी माँ से।
तब माँ ने बताया कि पिछले वर्ष बरसात के दिनो मे खेत मे कोई काम नहीं होने की वजह से वो मवेशियों के लिए चारा काटने वाले फैक्ट्री में काम पर लगा था वहीं अचानक सांस की नली मे भूसा का कण जाने से उसकी तत्काल मृत्यु हो गई थी। उसकी पत्नी वर्षो से ‘सिवान’ में मे उसके गाँव मे ही रहती थी अपनी सास के साथ। लेकिन अब उसका खर्च कौन उठाता! इसी वजह से उसकी जेठ-जेठानियां उसे यहाँ ले आए, जहां वो पति के जीते जी कभी नहीं आई l
“बहुत दुख भीतर समेट रखा है औरत ने!”
मैं बिना उससे बात किए ही समझ गई। क्योंकी जब पहली बार नौजवान ‘निरक्षर’ दिनेश ने बड़ी हिम्मत कर कागज पर लिखे काले अक्षरों को अपने बड़े भाइयों की नज़र से छुपाकर पढ़ने की कोशिश की थी उस कोशिश की ‘प्रेरणा’ कोई था तो वो यही औरत थी l
इस कहानी को भी पढ़ें:
पत्नी के लिखे पत्रों को पढ़ने की लालसा मे उसने संकोच छोड़ मुझसे मदद मांगी थी और मैं गुरूजनों से शिक्षा पाने की उम्र मे पहली बार किसी की ‘गुरु’ बन गई थी l
लेकिन वक़्त परिस्थितियों का कसैला सा स्वाद फिजा में मे घोल गया था। बिना ‘गुरु दक्षिणा’ दिए ही शिष्य जहां से विदा हो गया था l लेकिन मैं भी कहाँ छोड़ने वाली थी अपनी गुरु दक्षिणा!
भले ही शिष्य अब नहीं था लेकिन उसकी “प्रेरणा” तो मेरे सामने थी l मुझे उस तक पहुँचने मे कोई दूरी तय भी नहीं करनी थी क्योंकी शायद ‘प्रेरणा’ ने ‘गुरु’ का नाम ‘शिष्य’ से सुन रखा था।
उपर वाले मेरे कमरे के एकांत मे “गुरु” की बाहों में “प्रेरणा” फूट कर बिखर सी गई। गुरु ने कोशिश कर उसे फिर से बांधा-समेटा और फिर अपने पर्स में मौजूद बिन्दी के पत्ते में से एक कथई रंग की बिन्दी निकालकर उसके माथे पर अब तक झेल चुके दुखो के ‘पूर्णविराम’ के रुप मे लगा दिया,
“यही मेरी गुरु दक्षिणा है इसे हमेशा सजाये रखना”
इस वादे के साथ मैं अपने मायके से विदा हुई थी।
पुष्पा कुमारी ‘पुष्प’
पुणे (महाराष्ट्र)