मेरे सपनों का घर – मंगला श्रीवास्तव

माही का बचपन से ही सपना  था कि उसका अपना एक सपनों का घर होगा । जब छोटी थी तब सब लोग उससे कहते कि एक दिन तुझकों ये घर छोड़ कर अपने घर जाना होगा ससुराल !

जब वह अपनी माँ से पूछती थी क्या ये मेरा घर नही है माँ ,और रोने लगती थी।

तब माँ उसको गोदी में लेकर पुचकारती और कहती थी नही मेरी लाड़ो ये तो तेरा ही घर है सब तुझकों झूठ बोलते है चिढ़ाने के लिए।और सुनकर वह चुप हो जाती थी।

पर जैसे जैसे वह बड़ी होती गई उसको समझ आने लगा था कि यह घर उसका अपना नही ।फिर बड़े होते ही उसकी शादी हो गई ,और वह चली आई अपने खुद के नए सपनो का घर उसके पिया के घर !

अब उसको लगा कि चलो आज तो वह अपने घर मे आ ही गई ।

पर धीरे धीरे उसका ये भृम भी टूटने लगा था,यहाँ भी उसका पूर्णाधिकार नही

था।यहाँ पर तो कुछ भी काम अपनी मर्जी से वह नही कर पाती थी।हर काम के लिए उसको सासुजी अनुमति लेनी पड़ती थी।कुछ भी काम होता या वह कही भी जाने का भी बोलती तो पति कहते कि मम्मी से पूछो जैसा वह कहेंगी वैसा करुगाँ

तब माही फिर मन मसोस कर रह जाती। इसी बीच वह दो प्यारे बच्चों की माँ बन गई थी। पर उन बच्चों को भी दादा दादी की ही परवरिश मिली,और संस्कार भी वैसे ही दिए गये ,जैसे जैसे वह बड़े हुऐ वह अपनी माँ को बस नकारा व नासमझ ही समझते थे ऐसी माँ जिसको किसी काम को अच्छी तरह करने की समझ उनकी दादी व उनके पापा के अनुसार नही थी।

यही देख वह भी माँ की भावनाओं को ना समझ उनकी अक्सर अवहेलना ही करने लगे थे।वह मन ही मन खून के आँसू रोती पर अपना दुख किसी को ना बता पाती।



अब वह खुद से पूछती की मायके का घर उसका नही ,ससुराल का घर उसका  नही है तो फिर उसका अपना घर कहाँ है कौन सा है।

कुछ दिनों बाद उसके पति का प्रमोशन हो गया और  ट्रांसफर भोपाल हो गया था।अब वह भोपाल रहने आ गए थे।  कुछ समय बाद अच्छा लगने पर उन्होंने वही पर फ्लेट खरीद लिया था।

  अब माही को लगा कि चलो अब यह घर वह अपने हाथ से सजायेगी संवारेगी !

पर सुमित वह उसकी हर पसन्द को नकार देता ।वह जब भी घर अपने हिसाब से सेट करती तो सुमित पसन्द नही करता व मीन मेख निकाल कर अपनी मर्जी अनुसार घर सेट करवा लेता था।वक्त गुजरता गया पर पति का व्यवहार फिर भी ना बदला था।

सब कुछ होते हुए भी आज भी माही अपने पूर्णाधिकार की अभिलाषा में जी रही थी।

जो उसको आज तक नही मिला था।

सुमित हर काम को अपनी इच्छा अनुसार ही करवाता था।घर की कोई भी चीज लेनी होती उसका निर्णय भी वही लेता, माही की पसन्द उसको पसन्द नही आती थी। और तो और अब बच्चें भी बड़े हो गए तो वो भी अपनी मर्जी चलाने लगे थे।

अगर वो घर मे किसी भी तरह का बदलाव करती तो बच्चें कह देते मम्मी ये क्या कर दिया कबाड़ लग रहा है घर इस तरह तो।पति वो भी बच्चों का ही साथ देते थे।

माही अब मन ही मन घुटने लगी थी वो समझ चुकी थी कि उसका अपना घर कही नही है,ना कभी होगा ।

काश की वह खुद कुछ करती, जल्दी शादी ना होती तो !आज वह भी कही अच्छी जगह नौकरी कर रही होती व अपने सपनो का छोटा सा ही सही पर अपना घर बनाती खुद की कमाई से जिसको वह अपने मनमुताबिक सजाती, मन पसन्द के फूलों से  हरीभरी सब्जियाँ से भरपूर बगीचा बनाती व एक झूला लगाती ,जिस पर वो शाम को वो बैठ अपने मनपसंद के गीत गाती गुनगुनाती ।जिस घर पर उसका खुद का पूर्णा अधिकार होता।

*मंगला श्रीवास्तव इंदौर*

*स्वरचित मौलिक कहानी*

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