मेरे अपने… –  प्रीता जैन

वही रोज़ का बुदबुदाना जारी था मिताली का, सुबह से ही घर के बिखरे काम देख झुंझलाने लगती धीरे-धीरे काम फिर क्रमबद्ध होते ही जाते किन्तु कुछ अधिक सफाई प्रिय होने की वजह से सब अस्त-व्यस्त देख परेशान ज़रूर हो जाती| हालाँकि रोज़ की ही बात है जानती-समझती है फिर भी लगातार काम निपटाने में लगी रहती, जिससे थक जाती और इसी वजह से स्वभाव में उदासी और चिड़चिड़ापन महसूस होने से फिर अपने में ही खोई गुमसुम सी रहती| मिताली की आदत से भलीभांति वाकिफ होने के कारण अभिनव समझाते, “घर के काम के साथ-साथ दोनों बच्चों दिव्या तथा विराज को भी देखना होता है इसलिए जरूरी नहीं कि सभी काम रोज़ निपटाने हैं कुछ गैरज़रूरी काम छोड़ा भी करो, एक अकेला घर की पूरी ज़िम्मेदारी खाना-पीना कपड़े-सफाई सब कैसे कर सकता है? लेकिन तुम करती हो तुम्हारी हिम्मत है सब अकेले अपने बलबूते संभाल रखा है| हममें से किसी की मदद नहीं लेती कोने-कोने से तुम्हारी सुघड़ता निपुणता का अहसास होता है काबिलेतारीफ है! किन्तु यह सब तभी अच्छा है, जब तुम स्वस्थ और खुश रहो अन्यथा हमारे लिए ऐसे सुन्दर व्यवस्थित घर का कोई मायने नहीं है|” जब तक अभिनव समझा रहे होते, तब तक मिताली को लगता सही तो कह रहे हैं अब जरूरत भर के ही काम करूंगी बाकी छोड़ दिया करूंगी लेकिन फिर रुके हुए काम देख वही दिनचर्या शुरू हो जाती साथ ही बड़बड़ाना भी|
कॉलेज के दिनों से ही मिताली को लिखने का शौक़ रहा है उसके लेख-कहानियां विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते जिन्हें देख व पढ़ आत्मिक खुशी संतुष्टि महसूस करती कुछ अलग अच्छा करने की वजह से सुकून मिलता, परन्तु आज की स्थिति में स्वयं को घरेलू कार्यों में इतना उलझा लिया था उसमें इतना लीन होती जा रही थी कि बरबस चाहते हुए भी अपने शौक पूरा नहीं कर पाती अलग से थोड़ा वक्त खुद के लिए ना निकाल पाती| यह भी एक कारण मिताली के तनावग्रस्त व उत्साहहीन रहने का होता जा रहा था उसे बार-बार लगता कुछ भी तो अलग से नहीं कर पा रही हूँ सिवाय इन रोजाना के कामों के, आज फिर मिताली की आवाज़ें आ रही थीं सबको बैठे-बिठाए सभी कुछ चाहिए मुफ्त की बाई जो मिली हुई है सुबह से शाम सबको आराम ही आराम चाहिए| ऐसा बिल्कुल नहीं कि अभिनव या बच्चे काम को ना पूछते हों लेकिन मिताली कुछ कराये तब ना उसे लगता रहता जैसा मैं करती हूँ वैसे सही ढंग और सफाई से ये लोग नहीं कर सकेंगे फिर मुझे ही करना होगा, रोजमर्रा के सभी काम के लिए तो घरेलू कर्मचारी थे ही पर मिताली उनके साथ भी लगी रहती उनके आगे-पीछे ही घूमती रहती ताकि कार्य उसी के हिसाब से होते रहें साफ-सफाई बनी रहे| इसी सोच की वजह से काम की अधिकता से खुद भी परेशान रहती और दूसरे भी खुश नहीं रह पाते, ऐसा कदापि ना था कि मिताली अपनों के प्यार से अनभिज्ञ या अनजान हो सब जानती है बच्चे व अभिनव उसे कितना चाहते हैं उस पर जान छिड़कते हैं किंतु घर की साज-संवार और काम के चक्कर में उलझी ही रहती तनाव को अपने चारों ओर घेर लेती|



गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं बच्चे जिद कर रहे थे कहीं घूमने जाने की, क्योंकि एक अरसा हो गया था घर से बाहर गए हुए| आखिरकार सभी की सहमति से डलहौज़ी जाने का प्रोग्राम बना निश्चित दिन नियत समय जब घर से निकले तो बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था एक तो नई जगह देखने की जिज्ञासा दूसरा माँ-पापा का साथ बच्चों को बहुत भा रहा था, ख़ास तौर से मिताली का बिना काम के संग रहना उनकी बातें ध्यान से सुनना-सुनाना|
आज मिताली का सुबह से मूड अच्छा था तो विराज-दिव्या उसी के चारों ओर घूम रहे थे ट्रेन में दोनों एक साथ चिल्लाये मम्मी यहां खिड़की के पास सीट पर बैठो आपको अच्छा लगेगा, खाते हुए भी कभी दिव्या उसकी पसंद का बिस्कुट निकालती तो विराज मिताली को पसंदानुसार नमकीन का पैकेट देता, उन्हें बस यही लग रहा था आज मम्मी बहुत खुश-खुश रहे सारा टाइम हमारे साथ ही बिताये अभिनव तो इतना प्यार लगाव देख मन ही मन ख़ुशी से तृप्त हो रहे थे और मिताली वो तो स्तब्ध सी रह गई…! अपने प्रति बच्चों का प्रेम-स्नेह देख यकीन ही नहीं हो रहा था इन आँखों में इतना प्रेम और आवाज में माँ शब्द की इतनी मधुरता…| “आज ये सब मेरा कितना ख्याल रख रहे हैं, इनके इस भावनात्मक व स्नेहात्मक लगाव को जानने-समझने के लिए स्वयं से वंचित हो रही थी शायद सब मेरी ही गलती थी| घर पर भी बच्चे मेरे पास आते अपने मन की बात कहने-सुनने पर कब मैंने इनको समय दिया झिड़क ही देती, घर के कामों में बेहद उलझी जो रहती इनके मन की बात कहने-सुनने का इन्हें समझने का समय ही नहीं रखती सिर्फ खाना-पीना देने भर को ही अपना फ़र्ज़ ज़िम्मेदारी मानती रही, उसी को पूरा करने में दिन-रात लगी रहती|” जितनी तेज ट्रेन की गति थी उतनी ही तेज़ी से मिताली के मन-मस्तिष्क में विचार आ-जा रहे थे जिंदगी का रोज का जो सफर वह तय करती है वही बारम्बार आँखों में दिख रहा था| खैर! खाते-पीते सोचते विचारते अपने गंतव्य पहुंच गए वहां जाकर चार-पांच दिन कैसे निकल गए मालुम ही नहीं चला सही बात है, मन अच्छा तो सब अच्छा चारों ने एक-एक पल एन्जॉय किया इन खुशनुमा यादों को अपने में सहेज-समेट लिया|



वापस घर लौटने की पहली रात घूम-फिर कर आए तो अभिनव और बच्चे कपड़े बदल आराम करने लगे लेकिन मिताली की आँखों में नींद ना थी सो कपड़े बदल कमरे की बालकनी में आ गयी| “ऊपर आसमान की ओर देखा तो ऐसा महसूस हुआ चाँद व तारों का प्यार-सानिध्य साथ-साथ है— एक-दूसरे का अहम् हिस्सा जो हैं, बस! ऐसा ही इस धरती पर अभिनव तथा बच्चों यानी मेरे अपनों का साथ हैं एक दूसरे के अहम् हिस्से हैं|” कुछेक अविस्मरणीय पल इनके संग बिता महसूस कर पाई हूँ कि मुझसे सभी कितना स्नेह करते हैं मुझमें ही अपनी दुनिया देखते हैं, निश्चित तौर पर कहीं ना कहीं मैं ही गलत थी अपने रोजमर्रा के घर के काम में इतनी उलझी रही कि इनके प्रेम लगाव को अनदेखा करती रही| रोज ही तो खाने की मेज पर मेरा इंतज़ार करते रहते साथ में ही खाना चाहते किन्तु मैं काम की वजह से मना करती रहती आखिर तीनों खा-पी उठ जाते, इसी तरह कहीं घर से बाहर घूमने-फिरने जाना होता तब भी मेरा यही जवाब होता आप तीनों हो आओ फिर किसी दिन जब जल्दी फ्री हो जाऊंगी तब ज़रूर चलूंगी और फिर काम में लग जाती, कभी जाती भी तो सब काम निपटा कर जाती जिससे मनचाहा घूम-फिर ही ना पाते किन्तु फिर भी बच्चे यही चाहते कि माँ साथ जाए चाहे थोड़ा ही सही लेकिन घूमना संग ही है|
खैर! अभी तक जो हुआ सो हुआ अब आगे नहीं| “घर की ज़िम्मेदारियों के अलावा अपनों के प्रति भी मेरे फ़र्ज़ हैं पल-पल का साथ अत्यंत जरूरी है, दोनों ही कर्तव्य निभा सकूं इसके लिए स्वयं में कुछ बदलाव लाने होंगे कुछ आदतें बदलनी होंगी| जो भी दिनभर घरेलू कार्य करती हूँ जरूरी नहीं कि शत-प्रतिशत बढ़िया ही हों यदि कुछ कमी दिख भी रही होगी तो नकारने की कोशिश करुँगी, यदि किसी दिन घरेलू परेशानी हुई भी तो परेशान नहीं होना है ना ही सारा दिन काम की सोच-सोच व्यवहार में चिड़चिड़ापन तनाव रखना है उस दिन जो भी समय मिलेगा उसे अभिनव बच्चों के साथ बिताना है अब मैं भलीभांति समझ गयी हूँ कि जिंदगी में काम के साथ अपनों का साथ भी अति आवश्यक है|” हाँ! एक अहम् बात सोचती हूँ फिर उस पर अमल भी करूंगी कि जब भी घरेलू कार्यों में अभिनव या बच्चों की जरूरत महसूस करूंगी बेहिचक करने को कहूँगी मेरे अपने जो हैं, एक-दूसरे की मदद से जहां काम आसान होंगे वहीं जल्दी होने से एक साथ खुशनुमा पल बिताने का पर्याप्त समय भी मिलेगा| तो फिर अभी से मेरा स्वयं से वादा रहा, वापस घर पहुंच मेरी यही कोशिश रहेगी कि सारा दिन काम में ही ना उलझते हुए जहां खुद के लिए समय निकालना है वहीं परिवार संग समय बिताना है इस पर कायम भी रहना है| रात बहुत हो गई, कल जाने की तैयारी भी करनी है यही सोचते हुए दोनों बच्चों को भरपूर प्यार करते हुए और अभिनव की और प्यार भरी नज़र देखते हुए एक अरसे बाद चैन व सुकून के साथ लम्बी सांस ली और फिर इस प्यारी ज़िन्दगी का ताना-बाना बुनते हुए बिस्तर की ओर आशाओं भरे क़दमों के साथ चल दी…..|

#परिवार
प्रीता जैन
भोपाल

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