मायके का खाना

नेहा शादी के कई साल बाद अपने मायके आई थी. और वह मायके आ कर अपने ससुराल के तौर तरीके अपने मायके वालों को सिखाने लगी. ऐसे में खासकर जब नेहा की भाभी चैताली कोई खाना बनाती तो वो रसोई में जा कर चैताली भाभी को कहती,

“अरे भाभी ये क्या सब्जी ऐसे बनाते है? क्या इतना कम तेल और देखो मसाले भी कितने कम है… मेरे ससुराल में तो ऐसी सब्जी नहीं बनाते मेरे ससुराल में ऐसा खाना बनता  है कि अगर आप एक बार खाए ना तो उंगलियां ही चाटते रह जाए!”

“ठीक है ना ननंद जी फिर आप ही सब्जी बना दीजिए… मुझे और भी काम है मैं वह कर लेती हूं!”

अब नेहा का यह आम बात हो गया था. नेहा अपने मायके में एक महीने के लिए रहने आई थी और एक महीने में तो नेहा ने उनके नाक में दम कर ला कर रख दिया था.

क्योंकि नेहा की शादी अमीर खानदान में की गई थी. और नेहा का मायका बड़ा ही साधारण परिवार था. लेकिन भाभी चैताली अपने आप को ससुराल में पूरी तरह से ढाल चुकी थी. जब अपनी भाभी चैताली को सब्जी बनाने से हटाकर खुद ने सब्ज़ी बनाकर सबको टेबल पर खाना परोसने लगी तो टेबल पर सब कहने लगे,

“अरे यह क्या सब्ज़ी ऐसे क्यों बनी है? लौकी की सब्जी हमारे घर पर ऐसी थोड़ी ना बनती है!”

“हां देखो तो इतना ज्यादा तेल मसाला और फिर भी फीका फीका आज तो खाने का मूड ही खराब कर दिया…” भाई बोला.

इतने में मां बोली, “अरे नहीं नहीं मूड क्यों खराब करना रुको मैं अभी दूसरी सब्जी ले आती हूं!”

मां को पता था कि उसकी बेटी कई साल बाद अपने अमीर ससुराल से जब मायके लौटी है तो वह अपने अमीर ससुराल के ठाठ मायके वालों को दिखाने लगेगी. आखिर बेटी का स्वभाव तो वो जानती ही थी. इस लिए जब वह रसोई में अपनी भाभी को हटाकर खुद सब्जी बनाने लगी थी तो मां बाहर से सब कुछ देख रही थी. इसीलिए जब वह बना कर चली गई तो मां ने देखा कि सब्जी तो खाने लायक नहीं थी… और घर में कोई खाता भी नहीं, और इससे घर वाले सारे भूखे रहते ऐसे में नेहा की मां नी फिर से अपने ही तरीके से सब्ज़ी बना ली. और फिर वही सब्ज़ी सबको परोसा सबने आराम से स्वाद से खाना खाया. उस समय नेहा वह खड़ी खड़ी देखती रही और मन में सोचती,




“यह भी क्या बात हुई, आखिर बंदर थोड़ी न जानता है अदरक का स्वाद क्या होता है!”

फिर क्या था नेहा के अपने मायके में रहते हुए एक सप्ताह बीत जाता है. एक दिन जब नेहा की मां खीर बनाती है तो नेहा अपनी मां से कहती है,

“अरे मां खीर किसने बनाई है?”

“क्यों भाई… मैंने ही बनाई है तुझे तो मेरे हाथ की खीर कितनी पसंद आती थी!”

“पर मां वो तो पहले की बात है… पर आज इस खीर में तो ना ड्राई फ्रूट्स दिख  रहे है और बाप रे इतना मीठा खीर आप लोग कैसे खा लेते हो? मेरे ससुराल में तो ड्राई फ्रूट से भरा हुआ खीर बनाते है और इतना मीठा तो नहीं होता है… हम तो चीनी की जगह शुगर लाइट का इस्तेमाल करता है, और अगर मैं इस खीर को खाऊंगी तो मर ही जाऊंगी!”

“अरे कलमूई  बचपन से यही खीर खाते आई है मर मुरा गई थी क्या!”

पीछे से भाभी चैताली अपनी ननंद के नखरे देखती है. और फिर वह कमरे में आकर कहती है,

“अच्छा ननद  जी आपके ससुराल में इतनी अच्छी खीर बनाते है फिर तो मुझे मेरे भाई के लिए आप जैसे ही कोई खीर बनाने वाली चाहिए… वो क्या है ना कि शादी की पूजा की रस्म होती है ना उसमें पंडित जी ने कहा है कि कुंडली में एक दोष होने के कारण पूजा के प्रसाद में खास खीर का प्रसाद चढ़ाना है तो फिर तो आप से बढ़िया तो कोई खीर बना ही नहीं सकता!”

“अरे हां हां भाभी क्यों नहीं वैसे भी मेरे ससुराल में खीर बनाकर उसका भोग भगवान को चढ़ाना बड़ा ही आम बात है… हर आए दिन में ही बनाती हूं खीर… क्योंकि मेरे ससुराल में तो जब भगवान को भोग चढ़ता है तो वह हमारी सद्भावना और तपस्या से बना हुआ होता है.




फिर क्या था समय गुजरता है और फिर चैताली अपनी ननद  को अपने मायके लेकर जाती है. ताकि ननंद पूजा के लिए खीर बनाएं और वही खीर भगवान को भोग चढ़ता और फिर सबको प्रसाद में दिया जाने वाला था. ऐसे ही नेहा तो खुशी खुशी अपनी भाभी के मायके में आकर खीर का प्रसाद बनाती है. और वही खीर पंडित जी पूजा के लिए भगवान को भोग चढ़ाते है. फिर भोग भी चढ़ जाता है और फिर वहां आए मेहमान को प्रसाद में दिया जाता है.

जब आसपास की कुछ औरतें और रिश्तेदार प्रसाद में चढ़ाया हुआ वह खीर अपने मुंह में डालते है तो,

“अरे यह चावल वाला खीर है या फिर ड्राई फ्रूट्स वाला… चावल तो दिख ही नहीं रहे और इतना कम मीठा बाप रे चावल के दाने से ज्यादा तो इसमें ड्राइफ्रूट्स भरे पड़े है ऐसी भी कोई खीर होती है क्या… हमने तो पहली बार खाई!”

“सच कह रही हो लगता है चैताली के घर वाले बड़े अमीर हो गए है तभी तो बस ड्राइफ्रूट्स से भरी हुई खीर बनाई है लेकिन मीठा नहीं एकदम फीका है!”

“अरे क्या हुआ मौसी जी आपको खीर अच्छी लगी ना!”

“हां हां बस अच्छी ही है, थोड़ा फीका है… वैसे किसने बनाई?”

“अरे मौसी जी यह खीर तो मेरी ननंद नेहा ने खुद अपने हाथों से बनाई है… वो क्या कहते है हां, सद्भावना और तपस्या से बनाई है. क्यों ननद जी है ना वही था ना!”

अब ननंद क्या बोलती, उसकी तो बोलती बंद हो गई थी. क्योंकि उसकी बनाई हुई खीर का प्रसाद खाकर किसी के मुंह से वह उसकी उसकी तारीफ नहीं सुनती!”

“अरे चुप करो प्रसाद है इसका अपमान थोड़ी ना करते है… जैसा है वैसा अपना लो और भगवान का नाम लेकर प्रसाद को ग्रहण करो” पास ही में खड़ी चैताली की दादी बोली.




फिर वह समय तो बीत जाता है. अब भाभी चैताली का भाई भी शादी करके नई बहू घर ले आता है. चैताली अपनी ननंद नेहा को लेकर अपने ससुराल चली आती है. और मायके आकर फिर नेहा का वही राग शुरू हो जाता है. जब दोपहर का खाने का समय होता है तो नेहा रसोई में जाकर देखती है कि सारा खाना बढ़िया बन चुका था, लेकिन फिर भी वह अपनी मां को आवाज लगाती है,

मां रसोई में आती है तो वह अपनी मां से कहती है,

“मां सब्जियां और यह दाल कैसी बनाई है आपने…  ना रंग है और ना ही रूप है पता नहीं आपके हाथ की बनी हुई रसोई कैसे खा लेते है सब!”

“अरे बेटा लेकिन यह सब खाना तो तेरी सास ने बनाया है मैं तो तुझे बताना ही भूल गई थी कि सुबह ही तेरी सास तुझे ससुराल में वापिस ले जाने के लिए आई है इतने में सास भी रसोई में आती है,

फिर क्या था नेहा तो यह सुनकर उस की बोलती बंद हो जाती है. अब बकरी डब्बे में जो आ गई थी. उधर से सास की आवाज आती है,

“अरे क्या हुआ समधन जी सब बाहर खाने के लिए राह देख रहे है… चलिए खाना खा लेते है, नेहा भी आ गई है ना!”

“बस मेरी बेटी को अपने ससुराल का खाना पीना इतना भा गया है की यहां जब से आई है तब से अपने ससुराल के खाने पीने की ही तारीफ किए जा रही है!”

“लेकिन एक  बात कहूं समधन जी बुरा मत मानना आपकी नेहा को ना खाना और रसोई का काम बिल्कुल नहीं आता… अगर कभी बनाती भी है तो सब्जी में तेल मसाले ज्यादा डाल देती ह,  या फिर खीर बनाते समय ड्राईफूड से भर देती है माना कि हम अमीर है पैसे वाले है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि खाने-पीने में हम ज्यादा ज्यादा सामग्री का इस्तेमाल ही करेंगे… जैसा खाना होता है वैसा ही खायेंगे ना!”

सास की यह बात सुनकर नेहा के तो पसीने छूट जाते है और सारे घर वाले नेहा पर खूब हंसते है… इतने दिन जब उसने चैताली भाभी और अपनी मां के नाम में जितना दम करके रखा था अब नाक लाल और सूजा हुआ तो नेहा का हुआ पड़ा था.

 

 

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