चहुँ ओर शोर,चिल्लाहट,हाय हाय की आवाज उठ रही थी।एक ट्रक के पीछे दो किशोर बच्चे कुचले पड़े थे,मांस के लोथड़े बिखरे हुए थे।उसी ट्रक की साइड में एक 60 वर्षीय वृद्ध भी अचेवस्था पड़े थे।एक अति विभत्स और करुणाजनक दृश्य वहां था।
उक्त घटना 1972-73 की है।मेरे पिता ईंटो के भट्टे के व्यवसाय में थे। गले मे गांठ बन जाने कारण उनकी आवाज बंद हो गयी थी,मेरठ मेडिकल में ऑपेरशन कराने के बाद भी उनकी आवाज वापस नही आ पायी थी।हम उन्हें बम्बई(मुंबई)टाटा मेमोरियल होस्पिटल में ले जाने की तैयारी कर रहे थे।
एक सप्ताह बाद ही हमे मुम्बई जाना था।आवाज बंद होने पर मेरे पिता अपनी बात इशारों से या फिर पेपर पर लिख कर ही बता पाते थे।
अपने अंदर अपने जीवन के अपार अनुभव लिये मेरे पिताजी सदैव ही उन्हें बताने में मुखर रहते थे,पर उस आवाज का इस तरह बंद हो जाना,हमारे लिये तो दुखदायी था ही,पर मेरे पिता किस प्रकार का दुख मन मे समेटे थे,उसकी हम तो कल्पना मात्र ही कर सकते थे।
यूँ ही अपनी कोठी के बरामदे में बैठे मेरे पिता,किसी सोच में डूबे थे,तभी एक आवाज से वे अपनी तंद्रा से बाहर आये तो सामने वाला व्यक्ति कह रहा था,बाबूजी कोयले का ट्रक आया है,मैंने भट्टे का रास्ता नही देखा है,किसी को साथ भेज दीजिये।उस समय आस पास कोई नही था,तो पता नही उनको क्या सूझा वे खुद ही चल दिये,
सोचा रास्ता ही तो बताना है,रास्ता भी बता दूंगा और इस बहाने भट्टे पर भी जाना हो जायेगा।मेरे पिता स्वयं जाकर ट्रक में आगे की सीट पर बैठ गये।मेरे नगर में शुगर मिल है,तब चूंकि शुगर मिल स्टार्ट हो चुका था, इसलिये गन्ना बुग्गियो की भीड़ सड़को पर थी।
एक स्थान पर ट्रक गन्ना बग्गियों के बीच फंस गया,वहां से निकलने के लिये ट्रक को पीछे बैक करना था,ड्राइवर से अलग दूसरा व्यक्ति पीछे से ड्राइवर को हाथ के इशारे से राह दिखाने को नीचे उतर गया तो मेरे पिता भी उतर गये।एक ओर से ड्राइवर का सहयोगी रास्ता क्लियर करने लगा और ड्राइवर ट्रक को बैक करने लगा
दूसरी ओर मेरे पिता खड़े थे।अचानक उन्होंने देखा कि एक साईकल पर सवार दो किशोर बच्चे बिल्कुल ट्रक के पीछे आ गये हैं,ड्राइवर या उनका सहयोगी उन्हें नही देख पा रहे थे,ट्रक पीछे की ओर चल रहा था,मेरे पिता चीखना चाहते थे,पर उनकी आवाज तो थी नही,हाथों के इशारे को ड्राइवर देख नही रहा था,वे बदहवास से ट्रक ड्राइवर की ओर भागने को थे,
कि इतने में ही भयानक चीखों ने सब खेल खत्म कर दिया।दोनो बच्चे ट्रक से कुचले जा चुके थे,इस घटना को अपनी आंखों से देखने पर सदमे में मेरे पिता अचेत हो एक ओर गिर पड़े।
दो बच्चों की जो सगे भाई थे,उनकी ऐसी दर्दनाक मौत से मेरे पिता विचलित थे,उन्हें लग रहा था,काश आज वे बोल सकते तो शायद वे बच्चे बच जाते।उन्होंने मुम्बई जाने से मना कर दिया।गुमसुम रहने लगे थे,कह कुछ नही रहे थे,पर उन बच्चों की मौत का दर्द उन्हें अंदर ही अंदर खाये जा रहा था।काफी मिन्नत करने पर ही अगले माह मेरे पिता मुम्बई जाने को तैयार हुए।
तीन माह बाद मुंबई से ठीक होने के बाद जब पिताजी वापस आये तब भी वे उदास से ही थे,जबकि अब उनकी आवाज वापस आ गयी थी।अगले दिन ही वे मुझे साथ लेकर उन बच्चों के पिता से मिलने उनके घर गये, वहां जाकर मेरे पिता बच्चो के पिता से मिलकर फूट फूट कर रो पड़े।अजीब दृश्य उपस्थित हो गया था, मृत बच्चो के पिता और अन्य मेरे पिता को ही शांत कराने में लगे थे।
धीरे धीरे वे सामान्य होने लगे थे,नियति की करनी को उन्होंने स्वीकार कर लिया था।शायद उनके आंसुओ ने उनकी पीड़ा को हर लिया था।अपनी पीड़ा को वे कभी कह तो नही पाये,पर जीवन भर भुला भी नही पाये, उनकी मनःस्थिति को मैं समझता था ना।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
सच्ची घटना
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