माता-पिता बच्चों पर बोझ क्यों हो जाते…. – रश्मि प्रकाश

“ अरे अरे ये क्या कर रहे हैं जी आप…. सामान क्यों बाँध रहे हैं…?” सुनंदा जी ने रामशरण जी से पूछा 

“ हम अपने घर जा रहे हैं… अब यहाँ एक पल भी नहीं रूकना..समझी तुम ।” डपटते हुए रामशरण जी ने कहा 

“ अरे धीरे बोलिए ना…बेटा बहू सुन लेंगे ।“ सुनंदा जी विनती करते हुए बोली 

” सुनंदा तुम पागल मत बनो…. अपना सामान बाँधों और अभी के अभी मेरे साथ यहाँ से चलो।” रामशरण जी ने कहा 

“ अजी इतनी रात में हम कहाँ जाएँगे… और ये हमारे ही तो बच्चे है कुछ बोल भी दिया तो क्या हुआ?” सुनंदा जी धीरे से बोली 

” बच्चों का मोह ही तो देख कर अब तक आँखों पर पट्टी बाँध रखा था…पर अब और नहीं ।” इस बार रामशरण जी कुछ भी सुनने केमूड में नहीं थे।

” अच्छा कुछ दिन और रूक जाइए ना… बीस दिन हो जाने दीजिए फिर बहू अपना काम खुद करने लगेगी तो हम चल चलेंगे ।” सुनंदाजी रामशरण जी से बोली

“ पता नहीं माँ की ममता इतनी अंधी क्यों होती हैं जो बच्चों की हज़ारों ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करती चलती है… पर सच कह रहाहूँ… आज बहू रति ने जो कहा ना मुझे जरा ना सुहाया।” रामशरण जी सुनंदा जी की बात मान बिस्तर पर लेट गए 

“ अजी छोड़िए ना नाराज़गी… सही ही तो कह रही थी बहू …पहले वो दोनों ही घर में रहते थे….बहुत अच्छे से गुजारा चलता होगा उनका… अब हम दोनों आ गए हैं….फिर बड़े अस्पताल में इतना खर्च हो गया उनका पहले से ही रति की प्रेगनेंसी में मुश्किलें आ रही थी…. ख़र्चा ज़्यादा हुआ आमदनी उतनी की उतनी…आप ऐसा कीजिए कुछ पैसे अब आप घर खर्च के लिए निशांत को दे दिया कीजिए ।” सुनंदा जी ने कहा 




“ सुनंदा एक बात बताओ…. हमारा एक बेटा कितनी मन्नत से हुआ शादी के दस साल बाद… फिर हमने उसकी हर ख़्वाहिश पूरी की… ब्याह भी पसंद की लड़की से किया…. मेरी अनिच्छा के बावजूद तुमने उसका सदैव साथ दिया…रति यहाँ अपने मम्मी पापा को बुलाएँरखती हैं…  वो भी यहाँ आकर महीनों रहते है.. अब जब बच्चा होने वाला था तो चले क्यों गए….बेटी और उसके बच्चे के लिए तो उनकोयहीं रहना चाहिए था…पर इसने हमें बुलाया टिकट भेज कर …. ताकि तुम इनकी सेवा करो… और जो खर्च बढ़ रहा है वो तो इसकेमम्मी पापा के समय भी इतना ही होता होगा…. तब तो रोना नहीं रोती होगी पर हमारे रहने से इनके खर्च बढ़ने लगे…. उपर से तुम्हारालाडला … चुपचाप सुनता रहा तुम भी कमरे में सब सुन रही थी और मुझे बाहर तक सुनाई दे रहा था… बस तुम्हारी वजह से चुप रह गयासुनंदा नहीं तो मैं ना जाने क्या क्या सुना जाता।” रामशरण जी सुनंदा जी से खीझते हुए बोले

“ माँ की ममता है जी क्या करूँ… ऐसा नहीं की मुझे तकलीफ़ ना होती पर बेटा हमारा ही ना… उसका मोह कैसे छोड़ सकती हूँ…. जानती हूँ बचपन से ही निशांत को आपकी हर डाँट से बचाती रही इसलिए वो भी आपसे कम बात करता है अब कुछ दिन की बात हैफिर आप जो बोलोगे वही होगा ।” सुनंदा जी पति के सीने पर सिर टिकाते हुए बोली शायद आँखें भी भर आई थी जिन्हें वो पल्लू सेपोंछ ली

रामशरण जी तो सो गए पर सुनंदा जी आँखों में नींद नहीं थी.एक बच्चे के लिए जाने कितने मन्नत माँगे थे कि भगवान एक औलाद तोमेरी झोली में दे दो और तब जाकर निशांत का जन्म हुआ… बेटे की हर इच्छा का मान वो रामशरण जी से करती रही… बहुत बार वोडपट देते ये कह कर बेटे को बिगाड़ रही हो पर वो ममता में पति की बात अनसुनी करती गई… कितनी बार पति पत्नी में बोलचाल बंदहो जाता था… पढ़ने में मेधावी छात्र रहा तो उसे जैसे ही बिहार से निकल कर बैंगलोर में अच्छे पद पर अच्छी नौकरी मिली वो यहाँ आगया… कॉलेज की अपनी दोस्त रति से ब्याह की बात की जिसे सुनंदा जी ने बेटे की ख़ुशी मान स्वीकार कर लिया पर रामशरण जी कीइच्छा नहीं थी कि दूसरे जगह की लड़की से ब्याह करें पर पत्नी के आगे हार मान बैठे…. रति का व्यवहार सास ससुर के प्रति कभी वैसानहीं रहा जिसे देख कर लगता हो वो उन्हें मान सम्मान देती हो…निशांत और रति दोनों मजे से बैंगलोर में रहते ,रति के माता-पिता इधरही पास में रहते थे तो हमेशा आना-जाना लगा रहता था पर रामशरण जी को अपना इलाक़ा ही भाता था वो यहाँ कभी आए ही नहीं परजब बहू का आठवाँ महीना लगा तो निशांत ने उन्हें यहाँ बुला लिया…. बेटा जब तब कहता रहता कुछ पैसे है तो दे दो…सुनंदा जी मनानहीं करती पर रामशरण जी के मन में ये ख़याल आ रहा था इतना कमाने वाला बेटा बहू हमसे पैसे क्यों माँगते रहते जबकि सब तोउनका ही होना है….




और आज जब सुनंदा जी बच्चे की छठ्ठी करने की बात कर रही थी तो रति ने निशांत के सामने ही सुनंदा जी से कह दिया,“ मम्मी जीअब इसपर भी इतने पैसे खर्चने होंगे… पहले ही हमारे पैसे मेडिकल में बहुत लग चुके है…फिर आप लोग हमारे साथ ही रह रहे हैं तो क्योंना जो बिहार वाले घर के किराए के पैसे आते हैं वो हमें ही दे दिया करें ।”

सुनंदा जी कुछ बोली नहीं पर समझ तो वो भी गई थी बहू की नज़रों में वो हमारी आमदनी खटक रही है बस वो इतना ही बोल पाई,“ जोभी उस दिन खर्च होगा वो हम उठा लेंगे उसकी चिंता तुम मत करो ।”ये बातें ही बाहर बैठे रामशरण जी ने भी सुन ली और उन्हें बुरा लगरहा था 

खैर समय गुजरने लगा …. छठ्ठी भी निपट गया…. सुनंदा जी बच्चे का मोह छोड़ नहीं पा रही थी वो कुछ दिन और रूकने का सोच रही थी… इधर रामशरण जी की दवाइयाँ जो लेकर आए थे ख़त्म हो गई थी सुबह नाश्ते के समय सुनंदा जी ने बेटे से कहा,“ बेटा तेरे पापा कीदवाइयाँ ख़त्म हो गई है शाम को आते वक़्त लेते आना।”

“ये तो महँगी दवाइयाँ हैं….हमारे खर्च भी है फिर इस घर की और कार की किस्तें भी भरनी होती…उपर से पापा जी के लिए अलग सब्ज़ीबनती वो सब सब्ज़ियों को हाथ नहीं लगाते आप लोग अपने घर पर भी रहते तो खाने और दवाइयों के खर्च खुद उठाते ही थे ना तो यहाँवो पैसे हमें दे दीजिए… हमें भी सहूलियत हो जाएगी ।” रति ने कहा 

” बहू तुम हमसे यहाँ रहने और खाने के पैसे लेना चाहती हो…. जब तुम हमारे पास आती हो तो वहाँ से बहुत कुछ लेकर आती हो हम तोउसका हिसाब नहीं लेते क्योंकि तुम हमारे बच्चे हो पर आज तो  तुमने हद ही कर दी…. और बेटा तू कुछ क्यों नहीं बोल रहा ?” सुनंदाजी ने उखड़ते हुए निशांत से पूछा

“ माँ इसमें गलत ही क्या है…आपके और हमारे रहन सहन में बहुत अंतर… उपर से खर्च भी बहुत … जब आप लोग हमारे पास ही है तोक्यों नहीं वो किराए के पैसे हमें दे देते… पापा को भी तो पेंशन मिलता ही है…आप लोगों का खर्च ही कितना है।” निशांत ने कहा

रामशरण जी सुनंदा जी की ओर ताके और वहाँ से उठ कर चल दिए ।




“ बेटा तेरे पापा तो उसी दिन सामान बाँध कर चलने कह रहे थे पर मैं ही तुम सब के मोह में पड़कर यहाँ रूकी हुई थी…आज तो तुमनेमाता-पिता के खाने और दवाइयों के हिसाब गिना दिए … जरा ये भी बता दे…जब तेरे सास ससुर आते हैं तो वो भी अपना ही खर्च करतेहोंगे आख़िर वो तो और पैसे वाले है… सच कहना बहू लेती हो पैसे माता-पिता के आने पर?” सुनंदा जी कहकर उठी और कमरे मेंजाकर सामान बाँधने लगी

“ चलिए जी बहुत बेइज़्ज़ती करवा ली अपनी… अब और नहीं जिस बेटे को बाप की दवाइयाँ लानी भारी लगे उस घर में रहना बेमानी ।” सुनंदा जी की आँखों में आँसू बह रहे थे 

रामशरण जी ने उसी दिन की टिकट बुक की और कैब बुला कर निकलने लगे… जाते जाते बेटे को इतना ही बोले,“ वो घर तुम्हारा भी हैपर अब जब कभी आओगे अपने परिवार के खाने पीने के खर्च खुद उठाना और हाँ जैसे तुम्हारी पत्नी तुम्हारे माता-पिता के रहने खानेऔर दवाइयों का खर्च माँग रही है तुम भी उसके माता-पिता के आने पर ज़रूर लेना… हिसाब तो हिसाब होता है ना बराबर का होनाचाहिए ।”कहते हुए रामशरण जी कार में बैठ निकल गए।

निशांत रति की ओर देख रहा था…. उसकी बातों में आ अपने माता-पिता का दिल दुखाया था….ग़ुस्से से भरा रति से बोला,“ मिल गईकलेजे को ठंडक…. अब करो काम और करती रहो हिसाब…. याद रखना अब कभी तुम्हारे माता-पिता भी आए तो उनसे भी पैसे ज़रूरलेना नहीं तो उन्हें यहाँ बुलाया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”

रामशरण जी अपने घर पहुँच कर चैन से रहने लगे…. हाँ तकलीफ़ तो बहुत हुई बेटे के व्यवहार से पर अब समझ 

गए आज के समय में परिवार का मतलब पति पत्नी और उनके बच्चे ही होते जब तक उनका ब्याह नहीं हो जाता …. 

निशांत ने बहुत बार फ़ोन कर अपनी गलती की माफ़ी माँगी पर एक माँ ने माफ कर भी दिया पर एक पत्नी अपने पति के लिए माफ नहींकर पाई।

दोस्तों ये एक कोरी कहानी नहीं है अपितु ये एक सच्ची बात है जिसे मैंने कहानी के रूप में आप सब के सामने प्रस्तुत किया है….. पतानहीं हमारे बच्चे किस दिशा में जा रहे हैं…. जो माता-पिता अपने बच्चों की ख़ातिर एक चप्पल थोड़े कपड़ों में कितने साल गुजारा करलेते वही बच्चे अपने लिए सौ कपड़ों,चप्पलों पर खर्च कर सकते पर माता-पिता पर खर्च करना उन्हें चुभता है ।

मेरी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा .. आपको रचना पसंद आए तो कृपया लाइक करें और कमेंट्स करें ।

धन्यवाद 

मौलिक रचना 

#5वाँ जन्मोत्सव ( चौथी रचना)

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