मर्यादा का उल्लंघन वो नहीं हम कर रहे ! – मीनू झा 

“वे एक दूसरे की जरूरतें पूरी करने का जरिया बन गए थे. ये बात हमें बीसियों लोगों ने फोन पर कहा, वो कहते कॉलोनी का हर इंसान उनके ही बारे में बातें कर रहा है तो बताइए सुधाकर अंकल, भला हम कैसे कान में तेल देकर सोए रहते.”

तो उसमें गलत क्या था बेटे..जबसे नेपाली अपने गांव वापस चला गया तबसे सबकुछ होते हुए भी उमाशंकर को कभी खाना मिलता कभी भूखा रह जाता तो बेचारी मालती मिल गई उसे जो खुद दुखियारी थी. उमाशंकर के सारे काम करती बदले में भरपेट खाना और दो हजार रूपए लेती थी तो गलत क्या था इसमें,और बेटे तुम लोगों को एक बार उमाशंकर से भी बात करनी चाहिए थी,दूसरे के कहने पर एक बारगी उसे फोन पर उतना कुछ सुनाना नही चाहिए था।तुम्हारी मां के जाने के बाद पुरे आठ साल से वो अकेला था,अगर उसे कुछ करना ही होता तो शुरू में ही कर लेता।पर उसे अपनी मर्यादाएं सदा से पता थी, मालती जबसे आने लगी थी तो मैंने पाया था कि वो पहले से बेहतर रहने और बातें करने लगा था।खुद कहता मालती के हाथ का खाना खाकर मेरी पुरानी ऊर्जा लौटने लगी है,घर साफ-सुथरा और अच्छा लगने लगा है।वाजिब सी बात थी औरत के हाथों की बात कुछ अलग तो होती ही है।

हां ये बातें तो वो हमसे भी करते थे, इसलिए तो हम निश्चिंत रहने लगे थे अंकल और वो मुझे बार बार बुलाते भी थे पर मैं तो अपने घर में इतनी उलझी थी कि एकबार भी आ नहीं पाई–बेटी ने कहा

उमाशंकर आठ साल पहले ही अपनी पत्नी को खो चुके थे,शादी ना करने का फैसला करते हुए बेटी की शादी और बेटे की पढ़ाई लिखाई सब उन्होंने अपने दम पर की।अब बेटी के साथ उसके ससुराल में रह नहीं सकते थे और बेटे की अभी अभी नौकरी लगी थी ,वो पीजी में रहता था तो उमाशंकर अकेले अपने घर पर रहा करते थे,एक नेपाली था जो घर के काम भी कर देता और तीनों वक्त का खाना भी बना देता था,पर एक साल पहले नेपाल गया तो वहीं रह गया।फिर मालती मिल गई जिसे बेटे बहू ने घर से निकाल दिया था,वो तो उमाशंकर के आउटहाउस में भी रहने को तैयार थी पर उमाशंकर तैयार नहीं थे तो मालती ने अपनी बस्ती में ही एक कमरा ले लिया था,सुबह आती और शाम तक सारे काम निबटाकर चली जाती।




पर समाज किसी के दुख में ताके ना ताके..किसी की खुशी देखकर जरूर कान खड़े कर लेता है।पैंसठ साल के उमाशंकर और लगभग उतनी ही या उनसे साल दो साल बड़ी मालती भी अब सबकी चर्चा के विषय बन चुके थे और अब तो उनके बेटे बेटी को भी लोग फोन कर आगाह करने लगे थे।

उसी बात पर बेटे और बेटी ने बिना ज्यादा जाने समझे पिता को बहुत कुछ सुनाकर जल्दी से जल्दी मालती को चलता करने का फरमान सुना दिया।

पर पता नहीं दुख से या फिर संतान के अकारण बेबुनियाद शक से लज्जित होकर..दूसरे ही दिन उमाशंकर घर बार छोड़कर कहीं निकल गए।

दो तीन दिन तक जब उनका फोन नहीं उठा तो‌ बच्चों ने पड़ोसियों को फोन किया.. तब उन्होंने उनके घर जाकर देखा तो पाया ताला लटका था वहां। दोनों बच्चे अपना अपना काम छोड़कर दौड़े आए ताला तोड़ा पर अंदर भी ना कोई नोट ना चिट्ठी,उनका फोन भी वही पड़ा था..फिर उन्होंने मालती और पिता के सबसे अच्छे मित्र सुधाकर अंकल को बुलवा भेजा कि शायद उनके पास कोई खबर हो उमाशंकर जी की।

अब सुधाकर जी ने तो अपनी अनभिज्ञता दिखा दी थी,ले देकर मालती बची थी।

सब बातें कर ही रहे थे कि मालती आई…ऱोती बिसुरती बोली—

छोटे भैया,दीदी… मैं खुद चार दिन से परेशान हूं।रोज सुबह शाम ताला देखकर थोड़ी देर बैठ जाती हूं फिर लौट जाती हूं..कभी लगता बेटे बेटी के पास तो नहीं चले गए पर फिर सोचती जाना होता तो बताते जरूर..

कुछ भी नहीं बताया आपको कहां जा रहे,कब लौटेंगे?

ना भैया ना…मेरे ही करम फूटे हैं..उमा भैया तो इस रक्षाबंधन राखी बांधने पर हमको वादा दिए रहे थे कि मालती दीदी मैं बेटे के पास भी रहने चला गया तो आपको आपके दो हजार रुपए हर महीने भेजता रहूंगा..ऊ ऐसे चले गए अब तो हमारी रोजी रोटी पर भी आफत हो गई भैया..का कहें—कहकर वो और जोरों से रोने लगी




मालती की इस भाई बहन वाली बात पर सुधाकर से आंख मिलते ही दोनों बच्चे लज्जित हो उठे,अपने ही पिता को ना पहचान पाए अबतक।

फिर तो सिर्फ पश्चाताप के सिवा कुछ बचा भी नहीं था करने को दोनों बच्चों के पास। आसपास के शहरों, अखबारों में विज्ञापन भी दिलवाया पर कहीं से कोई खबर नहीं मिली तो दोनों भाई बहन घर में ताला लगा अपने अपने आशियाने चले गए।

दो महीने बाद एक अनजान नंबर से बेटे के फोन पर फोन आया।

हैलो..नीरज

पापा…पापा कहां है आप,हमें छोड़कर कहां चले गए आप पापा, मैं और दीदी बहुत परेशान हैं आपके लिए।आप कहां है बताइए मैं आपको लेने आता हूं अभी इसी वक्त

बेटा मैं बिल्कुल ठीक हूं और बहुत खुश भी हूं।मुझे लगा कि मेरे बच्चे मेरे लिए परेशान होंगे इसलिए फोन किया तुम्हें।

पापा हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई हमें माफी मांगनी है आपसे..आप कहां है बताइए तो?




माफी की कोई जरूरत नहीं है बेटा…मां बाप बच्चों की बात को दिल से लगाकर रखते भी नहीं है।मेरी चिंता बिल्कुल नहीं करना, तुमलोग मुझे खुश देखना चाहते हो ना मैं इस नई जगह पर बहुत खुश हूं

मां को हम पहले खो चुके हैं पापा..आप हमसे अलग होकर हमें अनाथ नही बना सकते।

तुमलोगों की हर जरूरत में तुम्हारे पास रहूंगा बेटे तुम उसकी चिंता मत करना।

आपकी जरूरत हमें हमेशा है पापा…पर अफसोस हमने आपकी जरूरतों को गलत समझा।

बीती बातों को भूल जाना चाहिए बच्चे..पर हां…जरूरत से याद आया बेचारी मालती बहुत जरूरतमंद है,हो सके तो जब मौका लगे उसकी थोड़ी बहुत मदद कर देना.. बहुत दुआएं देगी

सब करेंगे पापा..और आप ही करेंगे बस एक बार आप वापस आ जाओ प्लीज़

आऊंगा बच्चे,पर मैं अभी बहुत खुश हूं तुम दोनों परेशान ना रहो इसलिए फोन करना जरूरी था,बीच बीच में फोन करता रहूंगा,मेरी फ़िक्र मत करना चलो अब फोन रखता हूं।

दीदी..पापा का फोन आया था..अभी तो सबसे बड़ी खुशी इसी बात की है कि वो ठीक है..मुझे लगता है शायद वो किसी वृद्धाश्रम में चले गए हैं।पर कोई बात नहीं दीदी.. मैं जल्दी ही उन्हें एहसास दिला दूंगा कि उनकी हमें बहुत जरूरत है और उन्हें हर हाल में वापिस लौटा लाऊंगा–नीरज के स्वर में जोश और विश्वास था ।

सच बात है जरूरतों से ही रिश्ते है और रिश्तों से ही जरूरतें भी है…पर एक दूसरे की जरूरतें पूरी करने का जरिया बनने वाले ऐसे कई स्वस्थ रिश्ते क्यों अक्सर समाज और अपनों के बीमार दृष्टिकोण के शिकार हो जाते हैं ये एक यक्ष प्रश्न है !! समझदार बुजुर्ग ,एक विधवा और एक विधुर के साथ को लोग हमेशा ग़लत ही क्यों समझते हैं भला…और दुनिया समझे तो समझें जब उनके बच्चे ऐसा सोचने लगते हैं कि वो ग्लानि से भर उठते हैं….वो अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं ऐसा सोचकर हम अपनी मर्यादा का उल्लंघन करते हैं…।

 

#मर्यादा 

मीनू झा 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!