मेरी बेटियां ही मेरा अहंकार है – गीतू महाजन

 

दांत के दर्द से परेशान सुषमा जी आज भी डेंटिस्ट के पास आई हुई थीं। डॉक्टर ने उन्हें तीन से  चार सिटिंगस लेने के लिए बोला था। आज उनका तीसरा दिन था। आराम तो पहले से काफी था उन्हें पर अभी एक दिन और आना था। ड्राइवर ही उन्हें ले आता था। आज भी बाहर खड़ा वह उनका इंतज़़ार कर रहा था।डॉक्टर रीमा उस क्षेत्र की जानी-मानी डेंटिस्ट थी।अपने घर में ही उन्होंने अपना यह क्लीनिक खोल रखा था।

“अरे, आंटी जी अब आप कैसे हो”? डॉक्टर रीमा को इतनी आत्मीयता से बात करते सुन सुनीता जी का ध्यान उस ओर चला गया। पर्दा आगे होने की वजह से वह आने वाली महिला को देख तो नहीं पाई पर इतना तो जान लिया उन्होंने की वो डॉक्टर साहिबा की कोई खास परिचिता है।

तभी एक और आवाज़ आई “मैडम, ज़रा इधर भी ध्यान दे दो।” “अरे रिया, कितने महीनों बाद देखा है तुझे और आज अस्पताल से छुट्टी कैसे ले ली तूने..मैडम को समय मिल गया। सिर्फ मुझसे मिलने तो आई नहीं होगी ज़रूर कोई और ही बात है”, यह डॉक्टर रीमा का स्वर था।

“अरे कुछ नहीं मां को दांत में बहुत दर्द रह रहा हैआजकल..बस इसिलिए और तुझसे अच्छा कौन हो सकता है” फिर से वही आवाज़ थी।

“रीमा बेटा, यह तो कब से मेरे पीछे पड़ी थी। मैं ही आलस कर रही थी आने का। तुझे तो पता है मुझे ज़रा सी भी तकलीफ होती है तो यह मेरे पीछे पड़ जाती है।” फिर एक महिला की आवाज़ आई जो सुनीता जी को कुछ जानी पहचानी सी लगी। सुनीता जी की ट्रीटमेंट हो चुकी थी। उनका आज का सेशन खत्म हो गया था। जैसे ही वह बाहर आई तो मधु को देख हैरान रह गई।

हां मधु ही थी..बरसों पहले वह उनकी पड़ोसन हुआ करती थी। तीन साल तक वह उनके बिल्कुल पड़ोस वाले घर में रहती थी और फिर पति की ट्रांसफर की वजह से वह लोग दूसरे शहर चले गए थे। आज उसे यहां देखकर सुनीता जी को बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ में आई वह लड़की उनकी बेटी थी शायद। बेटी ही होगी पर पता नहीं बड़ी या छोटी सुनीता जी ने मन ही मन सोचा।

“अरे सुनीता भाभी, आप यहां? सब ठीक तो है? एक पल के लिए मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि आप हो।” मधु सुनीता जी को देखते हुए बोली। “मुझे भी तेरी आवाज़ कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी मधु और बता कैसी है यहां इस शहर में दोबारा? कब आए तुम लोग?” सुनीता जी ने भी प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

“अभी दो साल पहले ही यहां शिफ्ट हुए हैं। बच्चे भी इसी शहर में थे तो बस यहीं बस गए हैं आनंद की रिटायरमेंट के बाद।” मधु ने उत्तर दिया। फिर उसने अपने साथ आई लड़की को कहा,” रिया बेटा, यह तुम्हारी सुनीता आंटी है…तुम्हें याद है ना मैं इनके बारे में मैं बात भी किया करती थी।”




लड़की ने सुनीता जी के सामने हाथ जोड़ दिए। “अरे वाह! यह तो बहुत बड़ी हो गई। यह बड़ी वाली है या छोटी वाली?” सुनीता जी ने पूछा। वह जानती थी कि मधु की दो ही बेटियां थी।

“यह सच में बहुत बड़ी हो गई है। शहर की जानी-मानी चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर  रिया सिंह।” डॉक्टर रीमा ने जवाब दिया जो काफी देर से उन दोनों का वार्तालाप सुन रही थी। ‘अच्छा, इसी डॉक्टर रिया के पास तो उनकी बहू भी अपने बच्चों को दिखाने जाती है। बहुत नाम सुना है इसका’ सुनीता जी ने सोचा पर उन्होंने कहा कुछ नहीं शायद उन्हें इस बात का यकीन ही नहीं हो रहा था कि मधु की बेटी इतनी बड़ी डॉक्टर बन चुकी है या फिर वह यकीन करना ही नहीं चाहती थी। “और दूसरी?” अपने चिर परिचित अंदाज़ में उन्होंने पूछा। 

“वह वकील बन यही प्रैक्टिस करती है” मधु जी ने कहा। ‘वकील? ऊंह वकीलनी बन लोगों के घर तुड़वाती होगी।’ सुनीता जी के मन में आया।

“आंटी, आपने  प्रिया सिंह के बारे में अखबार में ज़रूर पढ़ा होगा। अरे, वही जिन्होंने दो महीने पहले एक लड़की पर एसिड फेंकने वालों को कड़ी सज़ा दिलाई थी और इससे पहले नाबालिग लड़की के अपहरण और बलात्कार करने का जो मामला बड़ा तूल पकड़ा था उसके मुजरिम को भी उन्होंने ही जेल की हवा खिलाई थी। उसकी खबर तो आए दिन छपती रहती है। मानना पड़ेगा वैसे हमारी छुटकी निकली बड़ी तेज़” डॉक्टर रीमा फिर से उन्हें बताने लगी। सुनीता जी के लिए सब बड़ा अप्रत्याशित था। अपने चेहरे के भावों को छुपाते हुए उन्होंने मधु से यहां आने का कारण पूछा।

“अब इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है सुनीता भाभी। दोनों बच्चियां मेरा बड़ा ध्यान रखती हैं। ज़रा सी तकलीफ में मुझे डॉक्टर के पास ले जाती हैं। प्रिया ने तो अपने घर के पास ही हमें भी घर ले दिया है। मैं तो इन बेटियों की वजह से ही जिंदा हूं.. मेरी बेटियां ही मेरा अंहकार हैं”” जवाब में  मधु जी बोली। इतने में सुनीता जी के ड्राइवर ने उन्हें आवाज़ दी और वह उनसे विदा ले कार में बैठ गईं।

सुनीता जी कार में तो बैठ गई थी पर उनका ध्यान मधु की तरफ ही था। उन्हें आज से बीस बरस पहले की घटना याद आ गई जब वह उनके पड़ोस वाले घर में रहने आई थी। मोहल्ले में आने के कुछ ही महीनों में अपनी मीठी वाणी और मधुर व्यवहार से मधु ने सबको अपना बना लिया था। अगर कोई उसे पसंद नहीं करता था तो वो थी सुनीता जी। सुनीता जी को वैसे तो मधु में कोई कमी ना लगती पर जाने क्यों उसका दो बेटियों की मां होना शायद उन्हें पसंद ना था। खुद दो बेटों की मां होने का बड़ा दंभ था उन्हें। इस बात को लेकर अपना सर तानकर चलती थी वो।

वैसे मधु की बेटियां थी बहुत प्यारी। बारह साल की रिया और आठ साल की प्रिया। पढ़ाई लिखाई में भी दोनों सदा आगे थी। स्कूल की कोई प्रतियोगिता होती तो वो दोनों बहनें सदा बढ़-चढ़कर भाग लेती। सुनीता जी के बेटे भी उन्हीं के हम उम्र थे और एक ही स्कूल में पढ़ते थे। जब भी कभी मौका मिलता सुनीता जी मधु को सुना देती “थोड़ा घर का कामकाज भी सिखा दिया कर मधु, आगे जाकर काम आएगा तेरी बेटियों को। लड़कियों ने कौन सी कलेक्ट्री करनी होती है घर ही तो संभालना है।” मधु उनकी बातें सुन मुस्कुरा भर देती। ज़माना कहां से कहां पहुंच गया था परंतु सुनीता जी की सोच आज भी वही दकियानूसी ही थी। बच्चों के साथ खेलने पर भी कभी अगर वह आपस में लड़ पड़ते तो सुनीता जी हमेशा रिया और प्रिया को ही डांट लगाती। इसी तरह दिन बीत रहे थे। 




एक दिन शाम के वक्त मधु उनसे उनके बड़े बेटे सौरभ की शिकायत करने आई जिसने आज रिया के स्कूल बैग में पानी डाल दिया था और जिससे उसकी किताबें तो गीली हुई थी साथ ही साथ केमिस्ट्री का प्रोजेक्ट भी खराब हो गया था।

“तेरी बेटी ने कौन सा डॉक्टरनी बनना है मधु… तूने कुछ ज़्यादा ही सर चढ़ा रखा है इन्हें जो इतनी सी बात की शिकायत करने आई हो।” सुनीता जी गुस्से में बोली। सब जानते थे कि सुनीता जी अपने बेटों के खिलाफ कुछ नहीं सुन सकती थी वो।

“भाभी, पर गलती तो सौरभ की ही है ना” मधु ने जवाब दिया।

“अब तू मेरे बेटे की गलती बताएगी मुझे। अरे, संभल जा अपनी बेटियों को थोड़ा झुकना सिखा। बुढ़ापे में ज़िंदा रहने के लिए बेटों की ही ज़रूरत होती है” सुनीता जी कहां की बात को कहां ले गई थी। अपनी रोती हुई बेटी को चुप कराते मधु उस दिन तो वहां से चली गई पर उसके बाद ना तो कभी उसने ना कभी उसकी बेटियों ने उनके घर की तरफ रुख किया। मोहल्ले वालों ने भी सुनीता जी को ही गलत ठहराया पर वो तो अपने बेटों के अंहकार में ही चूर थी।

सुनीता जी के विचारों को विराम तब लगा जब ड्राइवर ने गाड़ी बाज़ार में पार्क कर दी। “छोटी मेम साहब ने घर का कुछ सामान लाने को बोला है” वह बोला। सुनीता जी को वह सब यादकर अपना मन विचलित सा लगा। बाज़ार में अच्छी खासी रौनक थी। कुछ ही मिनट में ड्राइवर सामान लेकर आ गया। कार फिर से चल पड़ी और साथ ही सुनीता जी के विचार भी। उन्हें याद आया कि उस घटना के कुछ महीनों बाद ही मधु के पति की ट्रांसफर हो गया था और वह उनसे बिना मिले ही वहां से चली गई थी। आज जिस तरह मधु उनसे मिली थी उसने फिर से अपने साफ दिल होने का सबूत दे दिया था।

सुनीता जी को मधु के कहे शब्द ‘मेरी बेटियां हीं मेरा अंहकार है बार-बार याद आ रहे थे। क्यों कहे थे उसने यह शब्द उन्हें? क्या उसने बरसों पहले की सुनीता जी की कही बात का जवाब दिया था या उसकी बेटियां कामयाबी के शिखर पर थी तो उसने उन पर तंज कसा था पर मधु ऐसी महिला नहीं थी जो किसी पर तंज कसती। सुनीता जी खुद से सवाल जवाब किए जा रही थी।




मधु उन्हें हर तरफ से सुखी, खुशहाल और ज़िंदा लगी। ज़िंदा फिर से वही शब्द उनके मन में आ गया। क्या कहना चाहती थी मधु? क्या साबित करना चाहती थी? क्या वो यह जताना चाहती थी कि वो तो इस उम्र में बेटियों के साथ ज़िंदा है तो क्या वो (सुनीता जी) ज़िंदा नहीं है? सुनीता जी की परेशानी बढ़ती जा रही थी। कुछ ही देर में घर आ गया। कार से उतरकर वो सीधा अपने कमरे में चली गई। उनके पति बाहर बरामदे में पोता-पोती के साथ खेल रहे थे। बहुएं अपने काम में लगी थी और बेटे फैक्ट्री गए हुए थे। कपड़े बदलकर उन्होंने नौकर के हाथ कहलवा भेजा कि वह कुछ देर सोना चाहती हैं और खाना नहीं खाएंगी। कुछ देर बाद वह लेट गई। लेटते ही फिर से वही उलझन उन्हें सताने लगी। उन्हें लगा आज बरसों बाद किसी ने उनकी सोच को आईना दिखा दिया है। उनका प्रश्न उनके दिलों दिमाग पर हावी होता जा रहा था। उन्हें लगा इस प्रश्न का उत्तर जानना उनके लिए बहुत आवश्यक है नहीं तो विचारों के इस भंवर में वह खुद ही डूब जाएंगी।

उन्होंने अपने आस पास नज़र दौड़ाई। सब कुछ तो था उनके पास जो एक इंसान को ज़िंदा रहने के लिए चाहिए था पर क्या मूलभूत सुविधाएं ज़िंदा रहने के लिए पर्याप्त हैं? एक प्रश्न जो शायद उनके मन ने ही उनसे पूछा था। सुनीता जी को महसूस हुआ कि जब से वो घर आईं हैं दोनों बहुओं में से एक ने भी उनको खाना ना खाने का कारण नहीं पूछा था। उनके आते ही पोती के चेहरे की घबराहट उनसे छुपी नहीं थी। डेंटिस्ट के कितने सेशन हो चुके हैं कितने बाकी हैं? क्या उन्हें पहले से आराम है? क्या वह दवाई सही समय पर खा रही हैं? ऐसे छोटे-छोटे प्रश्न उन्हें घर में कोई नहीं पूछता था। उनके लिए ड्राइवर और अन्य नौकर चाकर तो उपलब्ध थे पर अपने बच्चे आसपास नहीं थे। शहर के बड़े से बड़े डॉक्टर को वो दिखा तो सकती थी पर उनका हालचाल जानने वाला उन्हें दवाई खिलाने वाला उनके खाना ना खाने पर मनुहार कर उनको खाना खिलाने वाला कोई नहीं था। इन सब बातों के लिए क्या वह खुद ही ज़िम्मेदार थी? बेटों पर हमेशा गर्व करते हुए उन्होंने बहुओं को कभी अपने करीब नहीं आने दिया और इसी चक्कर में जाने-अनजाने बेटे भी उनसे दूर होते चले गए।

ऐसा नहीं था कि उनके बेटा बहू अच्छे नहीं थे पर उनकी सोच ने ही उनके चारों तरफ खाई बना दी थी जो वक्त के साथ बड़ी होती जा रही थी। अपनी पोती को भी उन्होंने कभी कलेजे से लगाकर प्यार नहीं किया था। अगर उनकी पोती के साथ भी ससुराल में वही व्यवहार हो जैसा वह अपने बहुओं से करती हैं आज यह सोचकर उन्हें डर सा लगा। पति के समझाने पर भी वो कभी टस से मस नहीं हुई। सुनीता जी को लगा वह सिर्फ़ ज़िंदगी काट रही हैं पर शायद ज़िंदा नहीं हैं। ज़िंदा रहने के लिए अपनों का साथ बहुत ज़रूरी होता है और वह चाहे अपने बेटा हो या बेटी। आज मधु जी ने उनकी आंखें खोल दी थी। सुनीता जी के मन से आवाज़ आई कि उनको बदलने की बहुत सख्त ज़रूरत थी।

कुछ दिनों बाद घर में सब सुनीता जी के व्यवहार में आए बदलाव को देखकर हैरान थे। अब वह बहुओं के साथ रसोई में खूब बातें करती। उनकी पोती जब उनके गले में बाहें डालती तो वह निहाल हो जाती। अब शायद वो ज़िंदा हो गई थी उनका घर ज़िंदा हो गया था और ज़िंदा हो गया था उनका अपने बच्चों के साथ रिश्ता जो उनकी दकियानूसी सोच की वजह से दम तोड़ने की कगार पर थाऔर इसका सबसे बड़ा कारण था कि उन्होंने अपने अंहकार को पीछे छोड़ दिया था।

 

स्वरचित

 

#अहंकार

 

गीतू महाजन।

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