मनहूस नसीब – Moral Story In Hindi

“माँ ये इतना जिद कर रहे हैं तो मान जाओ ना ! तुम्हें हमारे साथ चलने में क्या दिक्कत है?”
“नहीं बेटा, मैं अब अपना यह मनहूस नसीब लेकर कहीं नहीं जाऊँगी। भगवान भरोसे अपनी बची-खुची जिन्दगी यहीं गाँव में गुजार लूँगी।”
पिछे से दामाद जी आकर बोले माँ जी आपने आज हमें पराया कर दिया है। माना कि भाई साहब व्यस्त होने के कारण विदेश से नहीं आ पाए तो क्या हुआ पिताजी के सारे क्रिया- कर्म हुए कि नहीं बोलिये। मैंने कोई अन्तर नहीं किया किसी भी तरह की जिम्मेदारी निभाने में।
“बेटा इसके लिए मैं बहुत ही आभारी हूं जो बेटे के रहते हुए भी आप दामाद होकर बेटे का फर्ज निभा रहे हैं। “
“हाँ तो माँ जी मुझे बेटा कहा है तो एक बेटे का आग्रह है कि आप हमलोग के साथ शहर चलिए।”
शीला जी की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली दिल में एक हूक सी उठी कि बेटा रहते हुए भी पिता को मुखाग्नि नहीं देने आया। वीजा पासपोर्ट का बहाना बना बाद में आऊंगा कहकर टाल गया।और यह एक दामाद हैं जो उसकी कमी महसूस नहीं होने दिये। फिर भी सामाजिक रीति ही ऐसी है कि माँ-बाप नहीं चाहते कि बेटी दामाद के पास जाकर रहे।
श्राद्ध कर्म के बाद सारे नाते रिश्तेदार चले गए। किसी को कोई चिंता नहीं थी कि शीला जी अकेले कैसे रहेंगी। बेटी के मनुहार के सामने उनकी एक न चली। बुझे मन से साथ जाने को तैयार हो गईं।
वह सोचने लगीं कि वाकई बेकार लोग बेटा और बेटी में फर्क़ करते हैं। शीला जी की जिन्दगी आराम से कट रही थी। एक महीने बाद बेटा आया तो गुस्से और क्षोभ के कारण उन्होंने बात तक नहीं की। उसने लाख मिन्नतें की लेकिन वह उसके साथ जाने के लिए तैयार नहीं हुई। हार कर बेटा वापस चला गया।
कुछ दिन बाद शीला जी की तबीयत खराब हो गई। उन्हें हॉस्पीटल में भर्ती कराया गया। लगभग पंद्रह दिनों बाद वह स्वस्थ होकर घर आईं। बेटी दामाद की सेवा से वह भाव विभोर थीं। एक दिन सुबह बैठी धूप सेंक रहीं थीं तभी कुछ पेपर लेकर बेटी आई और कहा कि माँ यह हॉस्पीटल के बिल हैं इसपर दस्तखत कर दो। शीला जी ने कहा-” बिल पर दस्तखत क्यूँ करना है। ” माँ आपके दामाद जी ने कहा है तो कर दो क्या आपको भरोसा नहीं है। “
“अरे बेटा कैसी बात कर रही हो लाओ कर दूँ और उन्होंने उन पेपरों पर साइन कर दिया।”
महीने दिन बाद गांव से रिश्ते के चाचा शीला जी से मिलने आए। आव -भगत के बाद उन्होंने कहा कि-” भौजी अब तो आप कभी गांव आतीं नहीं सो मैं कुशल क्षेम पूछने चला आया।”
शीला जी ने कहा-” क्यों नहीं आऊंगी मैं अपने गाँव ?”
चाचा ने कहा-” जब इतना लगाव था तब आपको पुरखों का नामों निशान नहीं बेचना चाहिए था? “
शीला जी भौचक्का होकर कभी बेटी को देख रही थीं और कभी दामाद को।
बेटी ने तपाक से पति का पक्ष लेते हुए कहा -” ऐसे क्यों देख रही हो माँ.. पैसे पेड़ पर थोड़े न फलते हैं हॉस्पीटल के इतने सारे खर्चे थे सो इन्होंने बेच दिये गांव के घर और ज़मीन को । तुमने ही तो साइन किया था उन जमीन के पेपरों पर!
शीला जी निःशब्द थीं बस उनकी आंखों से पश्चाताप के आंसू गिर रहे थे और दिल यही कह रहा था कि -“शायद गिरगिट भी अपना रंग इतना जल्दी नहीं बदलता होगा जितना जल्दी इस बेटी दामाद ने बदला है।”
स्वरचित एंव मौलिक
डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर बिहार

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