मान-सम्मान-अपमान –  अरुण कुमार अविनाश

“जीजा जी, एक रिक्वेस्ट थी।”– सूरज बाबू ने मोबाइल फोन पर कहा।

“जी बोलिये।”– आशीष जी ने छोटे साले की आवाज़ पहचान कर बोला।

सूरज बाबू मोबाइल पर भी कुछ देर तक सोंचते रहें कि बात शुरू करें तो कहाँ से करें । दरअसल बात बहुत ही संवेदनशील थी। घर की इज़्ज़त का सवाल था। पर, आशीष जी भी कोई गैर तो नहीं थे। इन्हें आज नहीं तो कल – सब कुछ पता चल ही जाना था। बाद में आशीष जी ही कहते कि पहले हमें बताया क्यों नहीं। यही शिकायत बहन भी करती।

“साले साहब कुछ बोलिये भी।” – इंतज़ार के बाद की उकताहट वाली आवाज़।

” जीजा जी, दरअसल घर में बहुत प्रोबलम चल रहा है। वहाँ माँ और भाभी में बिल्कुल नहीं बन रहीं है। सत्येंद्र भईया भी भाभी की तरफ से बोलता है और अक्सर माँ को डपट देता है। कल देर रात माँ का फोन आया था कि वह वहाँ बहुत कष्ट से है। कोई ख्याल नहीं रखता। भाई तो वैसे भी घर पर नहीं रहता है और भाभी और उनके बच्चें माँ का बिल्कुल ही ख्याल नहीं रखते है।”

घर-घर की कहानी थी। साले से पहले , यही सब कुछ आशीष जी अपनी पत्नी के श्रीमुख से सुन चुके थे। इसलियें उन्हें उकताहट होने लगी थी। इच्छा हुई कि फोन काट दें । पर , ये समस्या का समाधान नहीं था। साले साहब दोबारा फोन कर देंते।

” मुझें आनन्दी ने सब कुछ बता दिया है “– आनन्दी आशीष जी की पत्नी का नाम था – “आप तो ये बताईयें कि मैं इस मामलें में क्या कर सकता हूँ!”

सूरज बाबू के स्वर में हिचकिचाहट के भाव आये फिर उन्होंने खुद पर नियंत्रण पा कर धीरें से कहा –”जीजाजी, आप तो जानते ही है कि मैं घर से दो हज़ार किलोमीटर दूर रहता हूँ और  एयर फोर्स में हर दूसरे-तीसरे साल बाद मेरा ट्रांसफर भी हो जाता है। मेरा अपना पर्सनल सेटअप तो है नहीं, जो छोटा-मोटा गवर्नमेंट क्वाटर मिलता है – उसी में गुज़ारा करना पड़ता है। ऐसे में मैं तो कुछ कर पाता नहीं हूँ और माँ से भी पटना नहीं छूटता है। मुझें समझ नहीं आता कि मैं क्या करूँ ?  इच्छा होती है कि मैं माँ को अपने पास रखूँ पर रख नहीं पाता – घर छोटा है जो मुझें और बच्चों को ही कम पड़ता है – माँ को बड़े घर में रहने की आदत है । जो कि , यहाँ सम्भव नहीं है और फिर माँ को भी यहाँ परदेश में मन नहीं लगता। बाहरी लोगों से जान-पहचान न होने के कारण – जल्दी ही वापस पटना जानें कि जिद करने लगती है।

“आप मुझसे क्या चाहतें है ?” – आशीष जी ने लरजते दिल से पूछा – उन्हें डर था कि साले साहब सासू माँ की जिम्मेदारी उन्हें ही न सोंप दें।

साले साहब एक बार फिर हिचकिचाये फिर धीरे से बोले – ” जीजा जी, बोकारो से पटना ओवरनाइट की भी जर्नी नहीं है । आप चाहें तो दीदी के साथ पटना जाये और भाभी को समझायें कि माँ को तकलीफ न दें। वैसे भी माँ बहुत दिनों की मेहमान तो है नहीं । क्यों , बूढ़ी बिधवा माँ की बददुआएँ लेती है।”

आशीष जी का मन वितृष्णा से भर उठा। पर मन के भाव लब पर नहीं आये – वे थोड़ी देर तक सोचते रहें फिर कुछ निर्णय लेकर बोले – ” ठीक है दो दिन बाद शुक्रवार है , मैं शुक्रवार रात की ट्रेन में बैठ कर पटना चला जाता हूँ – शनिवार और रविवार मेरा ऑफ है रविवार की रात की गाड़ी से वापस बोकारो लौट जाऊँगा और सोमवार को बैंक जॉइन भी कर लूँगा।”

साले साहब ने मिलों लंबी सांस ली फिर थोड़ी देर तक इधर-उधर की बात की और फोन काट दी।


आशीष जी ने घड़ी देखी – 09:15 बज रहें थे। बैंक समय पर पहुँचने के लिये जरूरी था कि वे फ़ौरन तैयार होतें। उन्होंने मोबाइल को चार्जर से कनेक्ट किया और तौलिया ले कर बाथरूम में घुस गये।

आशीष जी बैंक ऑफ इंडिया के स्थानीय शाखा में शाखा प्रबंधक थे। मूल रूप से वे भी पटना के ही निवासी थे – पटना में उनके पिताजी का मकान था और पास के ही एक गाँव में उनकी कुछ जमीन जायदाद और एक पुराना मकान था। बोकारों में वे पिछले दस साल से रह रहें थे। हालाँकि उनकी खुद की नोकरी बार-बार स्थानान्तरण वाली थी पर जोड़ जुगाड़ लगा कर वे बोकारों से ज़्यादा दूर नहीं जाते थे। बैंक में नोकरी करने के कारण सस्ती ऋण सुबिधा उपलब्ध थी इसलिये उन्होंने कई साल पहले ही चास में अपना दो मंजिला निजी मकान बनवा लिया था। 

ऊपर की मंजिल पर एक किरायेदार रहता था और निचली मंजिल पर उनका खुद का परिवार रहता था। पत्नी , स्वयं और दो बच्चें। बेटी बड़ी थी जो ग्यारहवी कक्षा में थी और बेटा आठवी कक्षा में।

घर में एक और सदस्य थी – नटखट पमेलियन डोंगी (कुतिया) स्वीटी।

रात के ग्यारह बजे का वक़्त था।

आशीष जी बिस्तर पर लेटे हुए मोबाइल पर मनोरंजन ढूंढ रहें थे। 

आनन्दी किचन समेटने के बाद बच्चों को उनके कमरे में भेज कर – शयनकक्ष में आयी।

आशीष जी ने पत्नी को देख कर मोबाइल एक तरफ रख दिया फिर सहज भाव से बोलें – ” सुबह सूरज का फोन आया था। मुझें बैंक जाने में देरी हो रही थी – इसलियें, तुम्हें कुछ बतायें बिना ही चला गया था।”

” क्या कह रहा था।”

” वही , माँ और अपर्णा भाभी के किस्से। माँ का भाभी के साथ निर्वाह नहीं हो पा रहा है।” 

” सूरज चाहता क्या है ?”

” देखो, मुँह से तो कुछ नहीं कह रहा पर मुझें लगता है कि वह चाहता है कि हम माँ को यहाँ अपने साथ बोकारों में रख लें।”

” पागल हो! ऐसा कहीं होता है क्या ?”

” क्या फर्क पड़ता हैं ?”

” बहुत फर्क पड़ता है। जब तक पटना में तुम्हारी माँ और पापा जिंदा है तब तक तो ठीक है। उनकी भी उम्र हो चली है – जिस दिन माँ और पापा में से कोई भी एक ऑफ हुआ – बचे हुए शख्स की जिम्मेवारी हमें ही झेलनी है।”

आशीष जी ने कठोर भाव से पत्नी की ओर देखा।

आनन्दी ने निर्विकार भाव से पति की ओर देखा फिर बोली –” कुछ बातें सुनने में कटु होती है पर सच्चाई भी वही होती है। इसलिये प्रैक्टिकल बनो – खुद को भावनाओं में बहने मत दो। मुझें मालूम है कि जब मेरे ऊपर जिम्मेवारी आएगी तो मेरा भी कोई साथ नहीं देगा। अपनी अर्थी अपने काँधें। मैं भी किसी से कोई उम्मीद नहीं करूँगी – कोई शिकायत भी नहीं करूँगी।”

” तुम्हारी मर्ज़ी – वैसे सूरज के कहने पर मुझें पटना तो जाना ही होगा – क्यों न तुम भी साथ चलों – मायके और ससुराल आना-जाना भी हो जायेगा और सूरज को तसल्ली भी हो जायेंगी कि बहन-बहनोई दोनों माँ के पास गये थे।”

” मैं कुछ बातें किलयर करना चाहती हूँ – एक तो जवान हो रही बेटी को छोड़ कर मैं कहीं जाना नहीं चाहती –दूसरा दोनों बच्चों की पढ़ाई-लिखाई केरियर का भी सवाल है । तीसरा, स्वीटी को भी नहीं छोड़ा जा सकता ।”

” अगर हम लोग कार से चलें और स्वीटी को भी साथ रख लें तो!”

” सबसे अहम बात ये है कि मैं माँ के सामने पड़ना ही नहीं चाहती। वो रो कर – रुला कर – ऐसा माहौल क्रिएट कर देगी कि मुझसे कुछ उल्टा सीधा वादा करवा लेगी। मैं इस हालत में नहीं हूँ कि मैं कोई सच्चा झूठा वादा कर सकूँ । मैं इस समय माँ की जिम्मेदारी उठा पाने में सक्षम नहीं हूँ।”


आशीष जी ने हैरानी से पत्नी की ओर देखा।

“माई डियर हसबेंड – आनन्दी लाइट बन्द करती हुई बोली – जायदाद सभी चाहतें है पर जिम्मेदारी कोई नहीं चाहता।”

आशीष जी खामोश रह गये।

आशीष जी शनिवार की सुबह अकेले पटना पहुँचे।

पटना आने के लिए न आनंदी तैयार थी – न बच्चे ।

स्टेशन से बाहर निकल कर उन्होंने ऑटो बुक किया और अपने माता-पिता के घर पहुँचे। बीस साल हो गए थे उनकी शादी को – मगर आज तक उनका सूटकेस ससुराल में नहीं उतरा था। वह जब भी पटना आते थे पहले अपने माता-पिता के घर । फिर, नहा-धोकर परिवार के सभी सदस्यों से मिल कर ही नाश्ता-पानी के पश्चात ससुराल या कहीं और जाते थे। पिता पुराने ख्याल के आदमी थे । सूटकेस अगर ससुराल में उतरता तो पिता कहते कि आशीष मेरे पास थोड़े ही आया था।  वह तो ससुराल आया था बस आया था तो मिलने के लिए इधर भी आ गया था।

घर में सभी से मिलकर बतिया कर – आशीष जी पिता की कार लेकर ससुराल पहुँचे। बोकारो से निकलने से पहले – वह बड़े साले सत्येंद्र जी को – जो गया में रजिस्टार ऑफिस में ऑफिस सुपरीटेंडेंट थे – को फोन पर सूचना दे चुके थे कि वह शनिवार की शाम को पटना में उनसे मिलना चाहते हैं । दरअसल , सत्येंद्र जी की नौकरी ऐसी थी कि वे काम करें ना करें – उन्हें मुख्यालय पर उपलब्ध रहना ही होता था । कभी भी उनसे कार्यालय संबंधी कोई भी जानकारी मांगी जा सकती थी ।  

सिर्फ छुट्टियों के समय या विश्राम के दिन वह अनुमति लेकर मुख्यालय छोड़ सकते थे। वह भी कोई वाहिद मजबूरी बताकर।

उस समय 11:00 बज रहे थे। 

जब आशीष जी ससुराल पहुँचे।  

सासू माँ को पहले से मालूम था कि दामाद जी आने वाले हैं । अतः वह भी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। सलहज और उनके बच्चे स्कूल गए हुए थे । जो दोपहर 2:00 बजे के बाद ही घर लौटते थे – सास-दामाद के मध्य जो भी वार्तालाप होता – उसे सुनने वाला कोई गवाह नहीं था। 

सासू-माँ को खुल कर बोलने की आज़ादी थी।

वृद्धा को श्रोता मिला – अपनापन मिला तो लगा – जैसे भावनाओं का आवेश हृदय से फूट निकला हो।

पलकों ने बगावत कर दी थी। वह बहुत देर तक रोती रही – कलपती रही। जब मन का गुबार कम हुआ तो वॉश-बेशिन में जाकर मुँह-हाथ धोई फिर – बेटे-बहूँ की , पोते की , मेड की , पड़ोसन की , दूसरे रिश्तेदारों का शिकायती खाता खोल कर बैठ गयी। उन्हें हर किसी से शिकायत थी । पर, सबसे ज्यादा शिकायत बड़ी बहू अपर्णा से थी। इतनी शिकायत कि अगर यमराज को वृद्धा पर दया आ जाती तो अपर्णा अगले ही क्षण जीवित नहीं रह पाती। आशीष जी ने वृद्धा को खुलकर बोलने दिया। जब शिकायतों का कोष रिक्त हो गया। मन के सारे गुबार निकल गये तब तक आशीष जी समझ चूकें थे कि सासू माँ नाराजगीवश प्रलाप कर रही है। 

वह 65 वर्ष की थी पर उम्र के लिहाज से स्वस्थ थी। डायबिटीज और बीपी की दवाइयां जरूर खाती थी पर, उन दवाइयों का नकारात्मक प्रभाव – कम से कम उनके शरीर पर परिलक्षित होते नहीं दीख रहे थे। अच्छी भली हट्टी-कट्टी दिखती थी। 

” मम्मी , आपका खाना, कपड़ा, दवाइयों की देखरेख कौन करता है ?” –वे सहज भाव से पूछे।

” वही करती है , पर ऐसे – जैसे एहसान जताकर कर रही हो। दोपहर और रात का खाना मेड बना जाती है। सुबह और शाम का नाश्ता अपर्णा मैनेज करती है ।” 

“हूं।”

” कपड़े बर्तन घर का झाड़ू-पोछा बिस्तर ठीक करने जैसा काम मेड कर जाती है । “

“अगर मेड ना आये तो ? “

“तो भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है – डिशवाशर, वाशिंग मशीन और वैक्यूम क्लीनर जैसा उपकरण है । बच्चे भी थोड़ी-सी मेहनत करते हैं – तो सब हो जाता है।” 

“अगर अस्पताल ले जाना हो तो ? “

” वैसे तो छोटा-मोटा तकलीफ हो तो मैं खुद ऑटो करके अस्पताल चली जाती हूँ। पर, तकलीफ ज्यादा हो या मैं खुद नहीं जा पाती हूँ तो अपर्णा लेकर जाती है।” – सासू माँ इस तरह बोली जैसे कबूल करते हुए कलेजा फट रहा हो।

” नये कपड़े लेने हो तो ?” 

“बार-त्योहार पर जब सबके कपड़े खरीदे जाते है तो मेरे भी आते है। सूरज भी जब पटना आता है – तो, वो भी मेरे लिये खरीददारी करता है। हर माह मुझें अपर्णा ₹2000/ खर्च करने के लिये भी देती है।”

” दो हज़ार में आपका गुज़ारा चल जाता है?”

” मुझसे तो ₹ 200/ भी खर्च नहीं होते। ज़रूरत पड़े तो मैं और भी पैसा निकाल सकती हूँ – आलमारी की चाभी तो मेरे ही पास रहती है। अपर्णा ने कह रखा है कि मैं जितनी जरूरत हो पैसे निकाल सकती हूँ।”

आशीष जी ताज्जुब से सास की तरफ देखें फिर आश्चर्यमिश्रित स्वर में बोलें – ” फिर आपको तकलीफ क्या है ? बेचारी भाभी सबकुछ तो कर रही है आपके लिये।”

“मैं क्या जानवर हूँ जो खाने-पीने , पहनने-ओढ़ने के लिये दे दिया – तो हो गया। मुझसे कोई बात नहीं करता। एक ही छत के नीचें हम अजनबी की तरह रह रहें हैं।मेरे पोतों के पास भी मेरे पास बैठने के लिये समय नहीं है। मुझें कहीं भी आने-जाने की आज़ादी नहीं है। सब काम पूछ कर करना पड़ता है। मुझें तो पसन्द की TV सीरियल भी देखने की अनुमति नहीं है। मैं किसी के घर जा नहीं सकती। किसी को अपनी मर्ज़ी से घर बुला भी नहीं सकती।”


आशीष जी ने एक हुँकारी भरी फिर उठे और पूरे घर का निरीक्षण करने लगे।

 पाँच बैडरूम – एक हॉल – एक किचन सेट का घर था। सभी बेडरूम में अटैच लेट-बाथ था। पूरा घर सुरुचिपूर्ण तरीके से सजा हुआ था । सजावट की हर चीज अपनी आभा बिखेर रहा था और अपने बहुमूल्य होने का प्रमाण दे रहा था।

खुद सासू माँ का कमरा सलीके से सजा हुआ था। एक बड़ा सा TV सेट एक दीवार पर टंगा हुआ था। कमरे के बगल में एक छोटा सा पूजा घर भी था जहाँ दीपक और अगरबत्ती जल रहे थे।

वे समझ चुकें थे कि इस घर में समस्या ये थी कि कोई समस्या नहीं थी। सिर्फ दिमाग में खलल था। जिसका इलाज शॉक ट्रीटमेंट था।

“मम्मी , मैं शाम को आता हूँ ।” – कह कर आशीष जी वहाँ से रुखसत हुए।

शाम के 7:00 बज रहे थे – जब आशीष जी वापस ससुराल पहुँचे। 

सत्येंद्र जी से उनकी फोन पर बातचीत हुई थी।  वह रात के 10:00 बजे तक घर आने वाले थे। यानी आज रात आशीष जी को ससुराल में ही गुजारना था । अपर्णा भाभी किचन में मेड के साथ काम करवा रही थी और सासू माँ अपने कमरे में किसी पड़ोसन महिला के साथ बातचीत कर रही थी ।

दोनों बच्चे अपने-अपने कमरे में स्कूल से मिला काम निपटाने में लगे हुए थे । मौका अच्छा था । अभिवादन के उपरांत अपर्णा भाभी आशीष जी को अपने बेडरूम में बिठायी – बोली –” मैं चाय लेकर आती हूँ।”

आशीष जी एक विशालकाय टीवी ऑन कर एक कुर्सी पर बैठ गये। 

दस मिनट के बाद, अपर्णा भाभी एक ट्रे में चाय बिस्कुट एवं नमकीन लेकर आयी और एक मर्यादित दूरी पर कुर्सी खींच कर बैठ गयी।

कोई और दिन होता तो आशीष जी सलहज से मजाकिया लहजे में कोई चुटीली बात कहते भी। पर, आज हास्य का दिन नहीं था। वे मन ही मन किसी उलझन में थे और अपर्णा भाभी का चेहरा भी बहुत ही गंभीर था।

“लीजिए चाय पीजिये।”–  चाय का प्याला आशीष जी की और सरकाती हुई वह बोली। 

” भाभीजी, दरअसल मैं आपसे कुछ कहना चाहता था।”

“माँ जी के बारे में ?”

आशीष जी ने हैरानी से अपर्णा जी की ओर देखा।

अपर्णा जी के होठों पर एक फीकी मुस्कान रेंग कर रह गयी ।

” आशीष जी आपमें और मुझमें एक ही तो कॉमन है – वह है हमारी सासू माँ – वह आपकी भी उतनी ही सास है – जितनी कि मेरी ।

सत्येंद्र जी भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उनके बाद आनंदी एवं सबसे छोटे सूरज बाबू थे। 

“आप तो बहुत कुछ अंदाजा लगाए बैठी हैं।”

“इसमें अंदाजा लगाने की क्या बात है! आप सूचना देकर आ रहे हैं – मेरे पतिदेव से आपका आग्रह है कि आज रात वे आपसे जरूर मिले। ऊपर से बार-बार देवर जी का फोन करना। घर मे तल्खी का माहौल। क्या इतने हिंट्स के बाद भी – कुछ और कहना जरूरी रह जाता है ? आशीष जी, माँ जी के बारे में कुछ भी बोलने से पहले – मैं एक बात स्पष्ट कहना चाहती हूँ कि मेरे खुद के माता-पिता अब नहीं रहें ।  मुझे हमेशा माँ जी में मेरी माँ की छवि दिखती है। बेशक वे मुझसे नाराज रहती हैं । मेरी शिकायत करती हैं। पर मेरी समझ में वह बीमार है। मानसिक बीमार। हमारी मजबूरी यह है कि इस मानसिक बीमारी का हम इलाज भी नहीं करवा सकते है। अगर किसी मनोचिकित्सक के पास माँ जी को ले गये – तो सभी यही कहेंगे कि – अच्छी भली सास को पागल बना रही है।”

” हूँ। “

” देवर और देवरानी दूर बैठे – टेलीफोन पर हालचाल पूछते हैं।  मीठी-मीठी बातें करते हैं। अपनी खुद की मजबूरियां सुनाते हैं – जताते हैं – जो माँजी को भी बहुत अच्छा लगता है । माँजी के इगो को शांत करता है। भावनाओं को उकसाता है । रो – गा कर मन को हल्का करता है । पर, मेरी मजबूरी भी समझियें – मैं अकेली महिला – घर देखूँ –बच्चें संभालू – गेस्ट रिसीव करुँ – दुनियांदारी निभाऊं –  ऊपर से स्कूल जाऊँ –  स्कूल का भी काम घर लेकर आऊँ – सच कहा जाए तो मुझे एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है। कभी-कभी बच्चें या पति या खुद मेरा मन अच्छा खाने को करता है तो हमें किसी रेस्टोरेंट का मुंह देखना पड़ता है। अगर मेड नहीं मिली होती तो मेरे बच्चे ब्रेड-जैम खाने के लिए मजबूर हो जाते। गंदे मुचुड़े हुए कपड़े-जूते पहन कर स्कूल जाते।”–बोलते बोलते अपर्णा जी का चेहरा आँसूओं से भर गया था ।भावनाओं के आवेग ने आँखों को बहने के लिए मजबूर कर दिया था। वह अपने दुपट्टे से अपनी आँखें और चेहरा पोछने लगी। 

आशीष जी चुपचाप बैठे रहें। उन्होंने अपर्णा जी को टोकना उचित नहीं समझा।  

जब वह संयत हुई तो फिर आगे बोली –”आशीष जी, अब मैं भी 50 प्लस की हो गई हूँ। मेरा खुद का शरीर थक रहा है । डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, थायराइड जैसी बीमारियों से ग्रसित हूँ। ऊपर से नौकरी की मजबूरी । मुझे हर रोज सुबह 4:00 बजे बिस्तर छोड़ना ही पड़ता है। अगर नहीं जागों तो न मैं स्कूल जा पाऊं ना बच्चे जा पायें। सबका ब्रेकफास्ट तैयार करना । बच्चों को तैयार करना। खुद तैयार होकर – भागते-भागते स्कूल पहुँचती हूँ। दिन में रेस्ट का कोई रोल नहीं है । मौका भी नहीं है । ऐसी हालत में अगर मैं रात 10:00 बजे तक सोने ना जाऊँ तो अगले दिन स्कूल की छुट्टी होनी तय है। माँ जी रात 12:00 बजे तक फुल वॉल्यूम में टीवी चलाना चाहती हैं। देर रात तक जगराता वगैरह में जाना चाहती है। जब तक नींद ना आ जाये तब तक TV सीरियल देखना चाहती हैं । भजन सुनना चाहती हैं। चाहती है कि जब वह रात के बारह-एक बजे सोने जायें तो कोई उनका हाथ-पांव दबा दे। मालिश कर दे। रात को उठ-उठ कर चेक करें कि माँजी को कोई जरूरत तो नहीं है । फुल टाइम लीव-इन मेड रखना चाहती हूँ तो उन्हें इससे भी ऐतराज है। अपने कमरे में किसी को रहने भी नहीं देना चाहती है। कई बार मेड से लड़ चुकी हैं और मुझें खुशामद कर-कर के मेड को वापस बुलाना पड़ता है। माफी मांगनी पड़ती है। ज्यादा पैसे का लालच देना पड़ता है।”

“आप नौकरी छोड़ क्यों नहीं देतीं।” 

अपर्णा जी ने विस्मित भाव से आशीष जी की ओर देखा – बोली –” कहना आसान है – यह बड़ा मकान! महंगी गाड़ी! लैविश लिविंग स्टैंडर्ड! इसी नौकरी की बदौलत है। घर में सबको सब कुछ चाहिए – हासिल के बदले में – मैं क्या खोती हूँ कोई नहीं समझता। आज की डेट में मैं नौकरी छोड़ दूँ ये तो खुद माँ जी भी नहीं चाहेंगी।”

” इतना सब कुछ झेलने के बाद भी आपको मान सम्मान अपमान जैसा कोई भाव नहीं सताता।”

अपर्णा जी के होठों पर मुस्कान रेंग कर रह गई ।

“आशीष जी , आजकल मैंने सुनना कम और सुनाना बिल्कुल ही बंद कर दिया है। अब रही बात मान सम्मान और अपमान की – तो मैंने समझ लिया है कि बुजुर्गों का काम सुनाना और मेरा काम सुनना है । घर में पति की – मेड की –  बच्चों की – बुजुर्गों की सुनो और स्कूल में स्टाफ की – स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन की – प्रिंसिपल की – पेरेंट्स की और तो और स्टूडेंट की भी सुनो – घर से बाहर स्कूल बस वाले की – पड़ोसियों की – किस-किस की बतायें –  मुझे तो सिर्फ सुनना ही सुनना है । अगर हर बात पर मैं मान सम्मान और अपमान की सोचने लगूँ तो चौबीस घंटे के अंदर मेरा दिमाग ब्लास्ट कर जायेंगा। मैं किसी भी हालत में महीना भर भी जिंदा नहीं रह पाऊँगी।”

” इस तरह तो आप बीमार हो जायेंगी।” 

“डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और थायराइड की गोलियां कोई लेमनचूस तो है नहीं – इसी तनावपूर्ण जीवन की देन है। जो मुझे रोज खाना पड़ता है ।”

“भाभी जी !”–आशीष जी सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोलें –” सच कहूँ तो मुझें आप पर दया आ रही है।”

अपर्णा जी की आँखें एक बार फिर से बरस पड़ी । 

आशीष कुर्सी छोड़ कर उठ खड़े हुए ।  बोले – ” देखता हूँ, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ। पर, मेरा यकीन मानिए – यहाँ से वापस बोकारो जाने से पहले – मैं घर में शांति का माहौल कायम करके जाऊँगा। क्योंकि मुझे समस्या की जड़ दिखाई दे रहा है। उसका हल भी समझ में आ रहा है।”

“क्या है समस्या ?”

“खाली दिमाग, शैतान का डेरा – आप लोगों ने मम्मी जी को जरूरत से ज्यादा आराम करवा दिया है। इनका शरीर थकता ही नहीं। इन्हें करने के लिए कोई काम देना होगा। कोई जिम्मेवारी देनी होगी। किसी न किसी काम में व्यस्त रखना होगा। सास-बहूँ की झगड़े वाली सीरियल देख-देख कर इन्हें भी नई-नई खुराफात सूझने लगी है।”

आशीष जी को अपनी तरफ से बोलते देखा तो उनके मन मे तसल्ली सी हुई – होठों पर मुस्कुराहट स्वतः आ गयी।

“आशीष जी , एक बात मैं और कहना चाहती हूँ।” 

“जी कहिये।”


” एक व्यक्ति वह होता है जिसे हाथ से काम करना होता है । और एक व्यक्ति वह होता है – जिसे काम तो कोई करना नहीं है । सिर्फ, यह दिखाना और जताना होता है कि मुझें तुम्हारी कितनी फिक्र है! माँजी चाहें तो मुझे रोज थप्पड़ मारती रहें तो भी मैं हँस कर –रोकर भी – उनकी सेवा करती रहूँगी। समझूँगी कि उनकी बीमारी और बढ़ गई है और मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि माँजी के लिए मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ।बर्दास्त की हद तक सहने के लिये तैयार हूँ। पर तकलीफ तब होती है जब कोई दूर बैठकर मोबाइल के जरिये माँ जी के कान में मंतर फूंकता है। अच्छे भले शांतिपूर्ण माहौल में अशांति फैलाता है। देवर जी भले ही माँ जी के लिये कुछ भी न करें पर माँ जी को अनावश्यक भड़काये तो नहीं।”

“भाभी जी आप निश्चिंत रहिए। ईश्वर ने चाहा तो बहुत जल्द ही सब कुछ ठीक हो जायेगा।”

दोनों के बीच शांति छा गयी। 

“भाभी मुझे छत पर जाना है।” आशीष जी उठते हुए बोले।

” क्यों ?”

 आशीष जी ने ऐसा इशारा किया जैसे सिगरेट पीना चाहते हो।

“दरवाजा बंद कर यहीं कश लगा लीजिए – अगर ड्रिंक करना चाहते हैं तो वह भी मिल जायेगा।”

 “ड्रिंक! यहाँ बिहार में ?”

“पैसा खर्च करो तो सब कुछ – सभी जगह मिल जाता है । वैसे भी सत्येंद्र जी ने आपके लिए कल शाम को ही दो बोतल भिजवा दिया था।”

“ताज्जुब है। पर ड्रिंक नहीं, सिर्फ स्मोक करनी है और मैं नहीं चाहता कि बच्चों या मम्मी जी को कुछ पता चले।”

अपर्णा जी चुपचाप उठी और छत पर जाने वाली सीढ़ियों की ओर इशारा कर दी।

आशीष जी सीढ़ियां चढ़कर छत पर पहुँचे और दरवाजे का पल्ला लॉक कर जेब से मोबाइल और सिगरेट केस निकालने लगे ।

असल में उन्हें सिगरेट की उतनी तलब नहीं लग रही थी – जितना आनंदी से प्राइवेसी में बात करना जरूरी लग रहा था ।

एक सिगरेट जलाकर वे छत पर चहलकदमी करते हुए – मोबाइल से आनंदी को रिंग कर रहे थे।

” क्या हुआ ?” – हेलो के बाद आनंदी का दूसरा आतुर स्वर ।

“समस्या और उसका समाधान समझ में आ गया है।”

“क्या है समस्या ! और क्या है निदान !”

“समस्या खुद तुम्हारी माँ है और निदान उन्हें बोकारो लाना है।”

“क्या बक रहे हो ?” – आनंदी का तीखा स्वर ।

“यहाँ आराम करते-करते तुम्हारी माँ का दिमाग हिल गया है। वहाँ तुम्हारे पास जब शरीर भी हिलाना पड़ेगा तब दिमाग ठिकाने आ जायेगा।”

 “तुम समझ रहे हो ना कि तुम बोल क्या रहे हो ?”

“हां , और यह बात तुम्हें भी समझ लेना चाहिए कि मम्मी सिर्फ सत्येंद्र जी की ही नहीं – तुम्हारी और सूरज की भी माँ है। जितनी जिम्मेवारी सत्येंद्र एंड फैमिली की है उतनी ही तुम लोगों की भी है। कल को हम भी बूढ़े-लाचार होंगे तो क्या हमें अपने बच्चों से हेल्प की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब हम अपने बच्चों के सामने क्या नजीर रख रहे हैं !  क्या बूढ़े माँ-बाप सिर्फ बेटे की जिम्मेवारी है ? बेटियों की नहीं ? “

“तुम चाहते क्या हो?”– आनन्दी रुआंसे स्वर में बोली।

 “सोमवार की सुबह माँजी भी मेरे साथ बोकारो आयेंगी। उनके लिए कमरा ठीक कर देना ।थोड़े दिन तक हमारे पास रहेंगी तो उनका क्रोधित मन जो अपर्णा भाभी से चिढ़ा हुआ है । नॉर्मल हो जायेगा। फिर उन्हें अपर्णा भाभी की सेवा प्रेम और समर्पण का महत्व समझ में आयेगा। अगर इन्हें पटना से दूर नहीं ले जाया गया तो खुद भी नुकसान उठायेंगी और दूसरों को भी तकलीफ देगी।”

“तुम्हारा क्या है तुम तो एक्स्ट्रा दो-तीन हज़ार का राशन-पानी ला दोगे। तुम्हारा फर्ज पूरा हो जायेगा। मरना तो मुझे है।” आनंदी कलप कर बोली। 

“साल में बारह महीने होते हैं और तुम तीन बच्चे हो । इसलिए चार महीने माँ को तुम्हें साथ रखना चाहिए। क्योंकि, मैं तुम्हारा पति हूँ। इसलिए, मुझें भी तुम्हारा साथ देना चाहिए और हाँ, बात रही राशन पानी की तो मैडम आटा लगाने से ज्यादा मेहनत आटा कमाने में लगता है। यकीन ना हो तो, कभी खाली जेब अजनबी जगह पर – जहाँ तुम्हें कोई नहीं जानता हो – ₹2000/ की तलाश करना – या तो भीख मांगनी पड़ेगी या खुद को बेचना पड़ेगा।”

“शटअप।” – आनन्दी गुस्से से बोली।

आशीष जी ने कॉल डिस्कनेक्ट किया और मोबाइल पर अगली रात की ट्रेन का टिकट सर्च करने में व्यस्त हो गए।

सास को बोकारो ले जाने के लिए किसी की हामी की जरूरत नहीं थी । 

खुद सास की भी नहीं ।

    #अपमान 

अरुण कुमार अविनाश

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