मन को भिगो दिया – कंचन श्रीवास्तव

हर कोई शाम अपनी रंगीन करने ही तो आता है, ‘ हलक के नीचे शराब का आखिरी घूंट उतारते हुए रीमा बोली ‘ बता तुझे अभी दूं या और चढ़ा दूं थोड़ा।और मुड़ते हुए तिरछी नज़र से देखा।

तो देखते ही हैरान हो गई। आने वाला  शख्स दरवाजे के बाहर चप्पल उतार कर आया था।कुछ खास नहीं बस साधारण से कपड़े पहने हाथ जोड़ने के मुद्रा में खड़ा था।

आंखों में एक अजीब सी चाह थी, जिसे देख ये चौकी।और कुटिल मुस्कान के साथ बोली ,ये क्या हाथ जोड़े खड़े हो और ये चप्पल……. चप्पल बाहर उतार कर आए हो।आखिर माजरा क्या है।

क्या चाहिए तुमको,चलो चलो बहुत शरीफ बनने की जरूरत नहीं है।

चलो बिस्तर पर चलके तुम्हारी हवस मिटाए की उसके पहले एक पैक तुम्हारे साथ भी हो जाए , इतना कहकर वो जैसे ही सुरा ग्लास में उड़ेलने को हुई।

रवि ने उसका हाथ पकड़ लिया।

और बोला , नहीं मुझे सुरा नहीं पीना और न ही तुम्हारे साथ रात रंगीन करनी है, से देवी!

तुम पेशे से वैश्या हो पर बहन  तुम्हारे यहां की मिट्टी बहुत पवित्र है।

और मैं एक मूर्तिकार हूं ,मां दुर्गा की मूर्ति बनाई है, सो वही लेने आया हूं।

मेरे पास बहुत कम पैसे है यदि इतने में दे सको तो दे दो।

कहते हुए पैर पर गिर पड़ा।

ये देख उसका सारा नशा हिरन हो गया।आज पहली बार किसी पुरुष ने उसके वैश्या कहकर तन को नहीं नोचा बल्कि बहन कह कर मन को भिगो दिया।

ये सुन उसकी आंखें भर आईं।और मिट्टी देते हुए बोली ,आज समझ आया यहां  हर पुरुष एक सा नहीं होता।

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव आरजू

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