मैं सुभाष बनना चाहता हूं – अमित किशोर
- Betiyan Team
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- on Jan 23, 2023
मुझे आज भी याद है। बचपन में जब मैं छोटा था, छब्बीस जनवरी के रंगारंग कार्यक्रम में मुझे स्कूल में हर बार सुभाष चंद्र बोस बना दिया जाता था। पांचवी से लेकर दसवीं कक्षा तक मेरा यही हाल रहा। कभी कभी बहुत गुस्सा आता। हर बार एक ही गेट अप, एक ही चेहरा और बोलने के लिए एक ही डायलॉग ” तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा ” । घर पर आकर मां पापा से शिकायत भी करता कि वो स्कूल चलकर मेरी क्लास टीचर से कहकर कुछ और कैरेक्टर दिला दें। टीपू सुल्तान बन जाऊं, पंडित नेहरू भी बन सकता था, गांधी जी बनना भी कुछ कठिन नहीं था पर सुभाष चंद्र बोस नहीं बनना चाहता था। पापा ने तो कभी मेरी बातों पर ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया। दरअसल, दफ्तर के कामों से उन्हें फुरसत मिलती ही नहीं थी और जो मिलती, उसे वो सामाजिक कार्यों में लगा देते। परिवार को मां ने संभाल और सजा रखा था। मां मेरे इस अजीबोगरीब चाहत के लिए बस इतना कहती, ” अमित, जब तुम बड़े हो जाओगे, तब आज के बारे में सोचकर अफसोस भी करोगे और गर्व भी होगा।” मैंने कभी भी इस बात को नहीं समझा।
स्कूल में मेरा आखरी साल था। दसवीं की परीक्षा भी देनी थी और उसी साल हर साल की तरह ही मुझे सुभाष चन्द्र बोस भी बनना था। बात तो ऐसी हो गई थी कि, स्कूल में सब यही कहते कि मेरा नाम “सुभाष चंद्र बोस” है। गणतंत्र दिवस कार्यक्रम को देखने मां आई हुई थी। मैंने बेमन से हिस्सा लिया। कार्यक्रम समाप्त हुआ। तालियां बजीं और मैं मां के साथ घर आ गया। मां ने घर आने पर कहा, ” चलो, तुम्हें मुक्ति तो मिली इस रोल से। तुमको मैंने देखा आज, किस तरह से बेमन से स्टेज पर दिख रहे थे !!! थोड़ा मुस्कुराकर करते, तो और भी बेहतर दिखते।” मैंने कहा, ” क्या मां, तुम भी … !!! नहीं करना मुझे ये सब।”
रात को मां ने एक किताब निकाली और कहा, ” पढ़ो इसे। शायद फिर मौका न मिले।” मैंने झिड़क दिया पर मां नहीं मानी और मुझे बिठाकर सुभाष चंद्र बोस के बारे में बताने लगी। मैंने जरूरी ही नहीं समझा किताब के तरफ देखने और जानने की। मां पढ़ती गई और मैं सुनता गया………
मां ने बताया कि जिस एक व्यक्ति ने अंग्रेजी हुकूमत को अपने अकेले के बल पर हिलाकर रख दिया, वो कभी मामूली या साधारण नहीं हो सकता था। आईसीएस की परीक्षा में जिसने टॉप किया हो, उसे देशप्रेम या देशभक्ति से सरोकार न हो तो कोई आश्चर्य नहीं। पर सुभाष बाबू ऐसे न थे। तमाम सुख सुविधाओं के बाबजूद सुभाष बाबू ने वो रास्ता चुना जो उन्हें महान बनाने की राह थी। बड़े घर के होने के बाद भी सोच बिल्कुल एक खालिस भारतीय की जिसे जमीन , भूख और आजादी से जीवन भर मतलब रहा। 1897 में 23 जनवरी को जन्म लिया और 18 अगस्त 1945 तक रहे इस पृथ्वी पर लेकिन एक बात सिद्ध किया कि जिंदगी लंबी नहीं, जिंदगी सार्थक होनी चाहिए। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सर्व अग्रणी नेताओं में जब उनका नाम आता, लगता जैसे आजादी पाने के इस तरीके को भी हम भारतीयों ने स्वीकार किया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया । “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा” का नारा भी उनका ही था जो इस समय भी प्रासंगिक था और आने वाले न जाने कितने युगों तक यूं ही बोला जाता रहेगा। नेता जी के नाम से सुभाष बाबू ने स्वीकार्यता भी पाई और प्रसिद्धि को भी संचित रखा। कांग्रेस में रहे, अध्यक्षता भी की और जब गांधीजी से मतभेद हुए तो स्वत: अलग भी हो गए वो भी बिना विवाद बिना आरोप प्रत्यारोप के।
मां लगातार बताए जा रही थी, और मेरे मन में, मेरे मन की हर भ्रांति भी समाप्त हो रही थी। मैंने माना कि ठीक कह रही थी मां कि एक दिन मुझे अफसोस भी होगा उनके बारे में जानकर और गर्व भी होगा। सच कहा था मां ने, और, ये बात मैं बेहतर महसूस कर रहा था। एक एक बात बड़े विस्तार से बताए जा रही थी। लग रहा था आज मां ही मेरी क्लास टीचर बनी हुई थी। एक एक जानकारी सुभाष बाबू के बारे में बताकर मेरे मन पर पड़ा धूल साफ कर चुकी थी।मां ने आगे बताया कि इतिहासकारों का मानना था, जब नेता जी ने देश की आजादी के लिए जापान और जर्मनी से सहायता लेने का प्रयास किया था, तो ब्रिटिश सरकार ने अपने गुप्तचरों को 1941 में उनकी हत्या का आदेश दिया था। नेताजी की मृत्यु को लेकर हमेशा से ही विवाद रहा। कई जांच कमिटी बनी पर अनसुलझा रहस्य ही रहा।
बहुत साल बीत गए। मैं खुद दो बच्चों का पिता बन गया और घर गृहस्थी में समा गया। अभी पिछले कुछ सालों की ही बात है। आज़ाद हिन्द सरकार के 75 वर्ष पूर्ण होने पर इतिहास में पहली बार वर्ष 2018 में भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने लाल क़िला पर तिरंगा फहराया। 23 जनवरी 2021 को नेताजी की 125वीं जयंती थी जिसे भारत सरकार के निर्णय के तहत पराक्रम दिवस के रूप में मनाया गया ।8 सितम्बर 2022 को नई दिल्ली में राजपथ, जिसका नामकरण कर्तव्यपथ किया गया है , पर नेताजी की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया गया ।
ये सब खबरें मैने भी पढ़ी और मेरी बेटी आद्या ने भी। आद्या ने जिज्ञासा दिखाई सुभाष बाबू के बारे में जानने की। केवल वक्त बदला था। इस बार मां की जगह मैं था और मेरे जगह आद्या थी। विषय वही था~ सुभाष चंद्र बोस। आद्या को एक एक जानकारी उसी तन्मयता से मैंने दी, जैसा मेरी मां ने मुझे कभी दिया था। बहुत खुशी हुई। सच कहूं, बहुत गर्व हुआ। कह नहीं सकता। अचानक से बगल में बैठा मेरा बेटा आयांश बोल पड़ा, ” डैडी, मैं भी बनूंगा सुभाष चन्द्र बोस ” मैने पाया कि इतिहास अपने आप को दुहराता जरूर है।
जब भी आज सुभाष बाबू के बारे में पढ़ता हूं, सुनता हूं या चर्चा देखता हूं तो मां याद आती है। याद आती है मां की बताई हर वो बात जिसने मन के मैल को धोया, भ्रम को समाप्त किया और देखने का नया नजरिया दिया। आज वही, मैं भी, अगली पीढ़ी को देने की कोशिश कर रहा हूं ….
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अमित किशोर
धनबाद (झारखंड)