मैं ही परायी हूँ – गुरविंदर टूटेजा

अप्रकाशित

   दो ही महीने के अंतराल में नीतू ने अपने मम्मी-पापा को खो दिया….बेचारी मासूम को ये ही नहीं समझ आया कि उसकी पूरी दुनिया लुट गयी हैं… थोड़ा रोयी पर पर संयुक्त परिवार था उसे तो सब अपने ही लगते थें..!!

   मम्मी-पापा के जाने के बाद अपने कमरे से निकलकर बड़ी मम्मी के कमरे में आ गयी थी…बड़े पापा का तो निधन हो गया था तो..वही कमरा बड़ा भी था तो उनके चार बच्चों के साथ ही रहती थी…वहाँ उसका मन भी लगने लगा था….वो उनके साथ घुल-मिल गयी थी वक्त बीतता गया अब बड़ी मम्मी के दो बच्चाें की शादी हो गयी…चाचीजी ने अलग होने की बात की…बंटवारा हो गया…!!

अब नीतू को चाचाजी-चाचाजी के हिस्से में रख दिया सबने बैठकर यही फैसला किया…क्या बोल सकती थी वो उसे मानना पड़ा…अब नये सिरें से उनके बच्चों के साथ सामंजस्य बैठाना मुश्किल था….क्योंकि अब

उसका मन ताईजी के बच्चों से मिल गया था पर वो तो पास के ही दूसरे शहर चलें गये थे…!!

  जब भी त्यौंहार पर सब मिलतें तो वो खुशी से खिल जाती थी…पता नहीं क्यूँ पर चाचीजी व उनके बच्चों से उसका मन मिल ही नही पा रहा था…बुआ आती तो पहले चाचाजी के यही आती थी…उसको मजे आ जाते थे..फिर जब वो ताईजी के यहाँ जाते तो मन होने के बावजूद चाचीजी उसको साथ में नही जाने देती थी वो बार-बार बुआ से भी मिन्नतें करती कि मुझे भी ले जाओ तो बुआ भी कह देंती कि मैं क्या कर सकती हूँ..

कभी-कभी तो उसको लगता कि कोई भी कही भी जा सकता है पर मैं ही क्यूँ नहीं जा सकती हूँ… सब में क्या….मैं ही परायी हूँ….या मैं कभी अपने मन की नहीं कर सकती हूँ…जाने क्यूँ..??


  एक बार स्कूल के जूतें टूट गयें तो उसने चाचीजी को बोला कि उसे नये जूतें लेनें है…तो उसकी चचेरी बहन ने कहा अभी अच्छें तो हैं…क्या जरुरत है नये लेने की…बस उस बात पर दोनों की कहासुनी हो गयी…फिर तो चाचीजी ने जूतें दिलायें भी नहीं और बहुत डाँटा कि यहाँ रहना है तो चुप करके रहो…और फालतू बातों पर टेन्शन मत दिया करो…हमें सुकुन से रहने दो…सोच रही थी कि इतना पैसा है मैं पूरी हकदार एक जूतें ही तो माँगें थे बाकि कपड़े तो जब छुट्टियों में जाती तो मामीजी दिला देतें थे…इतनी बातें सुननी पड़ी…!!

   एक बार तो जब नीतू छुट्टियों में अपने नानाजी के यहाँ गयी तो जब वापस आना था तो नानाजी ट्रेन से जा रहे थे तो रास्तें में एक स्टेशन आता था जो गाँव से एक घंटा दूरी पर था नानाजी को आगे जाना था तो मामीजी ने चाचीजी सेे बात की और बोला तो चाचीजी ने कहा आप भेज दो चाचाजी या उनका बेटा आ जायेगा…निकल आयी वो नानाजी के साथ जब स्टेशन आया तो कोई आया नहीं था…नानाजी भी परेशान कि अब क्या करें यहाँ उतरें अकेले कैसे छोड़ें…तब मोबाइल तो होते नहीं थे…नीतू ने जिद्द करके नानाजी को भेज दिया…कहा कि देर हो गयी होगी कोई आता ही होगा…ट्रेन चल दी…

अब उसने अटैची और बैग उठाया और सबसे पहले एस.टी.डी से कॅाल लगाया…घर पर किसी नें नहीं उठाया फिर ऑफिस में लगाया तो चाचाजी ने उठाया और बोले कि कब आ रहे हो बेटा..उनकों बेचारों को कुछ पता ही नही था तो उसने सारी बात बतायी तो उन्होने कहा कि चाचीजी तो बच्चों के साथ मायके गयी है और उन्होंने मुझे बताया भी नहीं वो बोले रूको वही मैं आता हूंँ लेने तो नीतू ने उन्हें मना कर दिया और पहली बार अकेली बस से आयी….उस दिन वो घर आकर बहुत रोई थी…किसी से हक से शिकायत भी नहीं कर सकती थी…

क्यूँकि उसको समझने वाला कोई नहीं था पर उसे एक बात समझ आ गयी थी कि…मम्मी-पापा से सब रिश्तें होते बाकि तो सब अपने भी पराये होते है…सोचने सोचते वो खामोशी से अंदर ही घुट जाती थी…और अकसर एक गाना जो उसको बहुत पंसद था…


 बातें गुज़रें लम्हों की सारी बातें तड़पाती है…

दिल की सुर्ख दीवारों पर बस यादें ही रह जाती हैं…

बाकि सब सपने होते हैं…

अपने तो अपने होतें है…!!

गुरविंदर टूटेजा

उज्जैन (म.प्र.)

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