मधुबन : Motivational Kahaniya

हंसू के हाथ पर कोहनी तक प्लास्टर चढ़ा हुआ था। एक आँख चोट से खून उतर आने के कारण अंगारे की तरह लाल हो गई थी और आँख के चारों ओर नीला घेरा बन गया था। उसके मैले कपड़े कई जगह से फटे हुए थे और शरीर के कई स्थानों पर रक्त बिन्दु दिखाई दे रहे थे। हंसू अपने आँगन में पड़ी टूटी सी खाट पर पड़ा सूनी आँखों से आसमान की ओर देख रहा था।

अपने तीन भाइयों से छोटा और तीन भाइयों से बड़ा हंसाराम दरअसल गाँव के सामान्य रूप से सम्पन्न खेतिहर किसान रतीराम का मंझला बेटा था। हंसराम को छोड़कर रतीराम के बाकी छहों बेटे तो वैसे ही थे जैसे गाँव से सामन्य किसान के बेटे होते हैं। दूध दही खाये गठीले बदन, मेहनतकश, चेहरे पर गाँव के सवर्ण भूमिधर होने और घर की पाँच सात लाठी होने का दंभ और एक विशेष प्रकार की आत्मविश्वासी निर्भीकता। वैसे तो पुस्तैनी जीविका कृषी को समर्पित किसान रतीराम के बेटे अकारण ही किसी को सींग मरते नहीं फिरते थे किन्तु नहर के पानी के नंबर को लेकर या मिल पर लगी गन्ना तुलवाने की लाइन के विवाद में कोई झगड़ा हो जाए तो छहों भाई लाठी डांडा, जेली, यहाँ तक कि अवैध कट्टे लेकर द्वंध के लिए तैयार रहते थे। वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस भाग में कहावत मशहूर है कि जिसके घर में चार लाठी वो चौधरी। जिसके घर में पाँच लाठी वो पाँच। जिसके घर में दस लाठी वो अंच गिणे न पंच।

हंसू अपने छहों भाइयों से और गाँव के सामान्य नौजवानों से अलग था। उसे लाड़ करने वाले परिजन उसे भोला कहते। कुछ लोग उसे भौंदू कहते। कुछ मंदबुद्धि कहते तो कुछ कहते कि लड़का अंतर्मुखी है। अपने से आधी उम्र के बच्चों में खेलता। हकला कर बोलता और कोई धमका देता तो बीस बरस की उम्र में भी माँ के अंचल में जाकर छिप जाता। बस ऐसा ही था हंसू।

रतीराम के सातों बेटे खूब मेलजोल से रहते। एक साथ खाने बैठते तो खाना बनाते बनाते माँ के हाथ टूट जाते मगर उनके क्षुदा न बुझती। खाने के बाद गुड मांगते तो पूरी ढैया चट कर जाते।

सारे भाई जानते थे कि हंसू अपनी अल्पकुशलता के चलते न अकेला खेत में पानी चलाने जा सकता है और न मिल पर गन्ने तुलवाकर आ सकता है। इसीलिए उसे ऐसा कार्य दिया जाता जिस में निपुणता की विशेष आवश्यकता नहीं होती। यही तो संत्यक्त परिवार की विशेषता होती है।

जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं होता। धीरे धीरे तीनों बड़े भाइयों के विवाह सम्पन्न हो गए। नई बहुओं को हंसू की मुफ्त की रोटियाँ तोड़ना चुभने लगा और भाइयों को उसका निकम्मापन अखरने लगा। बंधे बँधाये घर की चूलें चटखने लगी थीं।

हंसू के तीन छोटे भाइयों को भी अपने विवाह में हंसू रोड़ा दिखाई देने लगा था। उसके कारण उनकी शादी की लाइन खाली नहीं हो रही थी और कुछ भोले और कुछ बावले से हंसू को कोई बाप अपनी बेटी देने को तैयार नहीं था।

अंत में हर तरफ से निराश होकर विवशता में निर्णय लिया गया कि हंसू को छोड़कर तीनों भाइयों को ब्याह लिया जाय। देखते ही देखते रतीराम के सात भाइयों के सात घर हो गए। छहों भाई अपने परिवार के साथ अलग रहने लगे और हंसू अकेला अपने माँ बाप के साथ।

हंसू अपने बापू की सलाह से धरती के अपने भाग में कड़ी मेहनत करता। गाय का दूध दुह लाता। घर की सफाई कर लेता। चौके में माटी में गोबर मिलकर लिपाई करता। कपड़े धोता और हांडी में औरतों की तरह दूध बिलोकर मक्खन निकाल लेता था। खटिया से लगी बीमार माँ तो बस उठाकर तीनों के लिए रोटियाँ सेक लेती थी और कभी कभी वह भी नहीं कर पाती तो हंसू तीनों के लिए गेहूं चने की उल्टी सीधी रोटियाँ भी सेंक लेता था। भले ही इस काम में उसकी मूछें झुलस जातीं। कभी गुड मट्ठे से तो कभी दूध से खाकर तीनों चैन से सो रहते।

कुदरत में सब कुछ परिवर्तनीय है। वो वक्त नहीं रहा जब तीनों भाई एक आँगन में एक साथ रहते थे तो ये समय भी कहाँ रुकने वाला था। धनसू अब पैंतीस साल का हो गया था। माँ सवर्ग सिधार गई थी और बापू ने अक्षम होकर खाट पकड़ ली थी। हंसू को छोटी छोटी बातों में पिता के सहयोग की जरूरत होती थी। माँ चली गई। कल अगर बापू की आँखें भी मूँद गईं तो पैंतीस साल के बालक मन हंसू का या होगा भला। भाई उसकी जमीन पर गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे थे। भांति भांति के प्रलोभन देकर उसे अपने अपने साथ मिलाने का प्रयास करते। भाभियाँ कभी व्यंग वाणों से तो कभी दोहरे अर्थ वाले रस भरे उलाहनों से हंसू को आकर्षित करने का प्रयास करतीं। छद्म उद्देश्य सब का एक ही थी कि भोला हंसू किसी तरह अपने भाग की धरती हमारे नाम लिख दे। किन्तु हंसू और कुछ जनता हो या जनता हो, अपने चावलों की महक पहचानने बापू का दिया हुआ एक वचन तो उसने गांठ में बांध ही लिया था कि बेटा जिस दिन तूने कागज पर अंगूठा लगा दिया उस दिन घर का रहेगा न घाट का। कोई आश्चर्य नहीं कि तेरी लाश किसी दिन किसी नदी नाले में तैरती मिले। उन्हे आभास था कि यहाँ की अदलतों में अधिकतर मामले जमीनो के बँटवारे और कब्जे के ही होते थे और इन मामलों में मार पीट, सरफुटव्वल और हत्याएं हो जाना आम बात थी।

सर्दियों का मौसम था। हंसू ने गन्ने के रस में चावल उबालकर रस की खीर बनाई थी। पिता पुत्र ने एक ही रज़ाई में बैठकर गरमागरम खीर खाई और देर तक बतियाते रहे। बापू हंसू के भविष्य को लेकर बेहद चिंतित थे। दूर दूर की रिश्तेदारियों में प्रयास कर चुके थे कि कोई अपनी लंगड़ी लूली लड़की ही उसके मासूम से ब्याह दे किन्तु सारे प्रयास बेकार गए। कहीं थोड़ी सी बात आगे बढ़ती भी तो हंसू के भाई भाभियों को खबर लग जाते और वे एड़ी चोटी का ज़ोर लगाकर मामले को निपटवाकर ही दम लेते। वैसे भी धीरे धीरे हंसू की विवाह की उम्र भी निकली जा रही थी।

उस रात बापू ने हनसू को अपने हाथ से छोटे बच्चे की तरह खीर खिलाई। फिर दोनों कंधे थामकर ढेरों आशीष दिये। “जिंदगी से लड़ना सीख मेरे बालक। कब तक बाप की उंगली पकड़कर चलता रहेगा।”

और उसी रात बापू की उंगली हमेशा के लिए छूट गई। सुबह बापू की ठंडी देह से लिपटकर हंसू खूब रोया। देर तक बिलखता रहा “बापू बोलता क्यूँ नहीं। अरे बापू कुछ तो बोल।”

उसके रुदन की आवाज सुनकर किसी अनहोनी की आशंका से कई लोग घर में आ गए थे।

आरिष्टी के दिन खूब मेला लगा। रतीराम भरा पूरा कुनबा छोड़कर पूरी उम्र में गुजरे थे इसलिए सारे रिश्तेदार और आस पास के गाँव समाज के लोग एकत्रित हुई थे। दिन भर पंगत पर पंगत जीमती रहीं। शाम को बड़े बेटे के सर पर पगड़ी बंधी गई।

हंसू को लेकर भी खूब चर्चा हुई। बहनें, बुआएँ और चाची ताइयों ने उसके भविष्य को लेकर चिंता जताई। रिश्तेदार भी चाहते थे कि हंसू का भविष्य सुरक्षित हो जाये। हंसू के सारे भाई स्नेह और वात्सल्य की मूर्ति बने हुए थे। हर कोइ उसे अपने साथ रहने का आमंत्रण दे रहा था। गाँव समाज और रिश्तेदार भी रतीराम के लड़कों की नीयत पहचानते थे मगर कोई विकल्प न होने के कारण उसे भाइयों के पास रहकर जिंदगी गुजारने की नसीहत दे रहे थे।

रात होते होते सारे रिश्तेदार चले गए। शायद कोई दूर गाँव का रिश्तेदार बड़े के घर रुका हो।

हंसू भी अपने कोठारी की झटोल खाट में पड़ा अपने अपने अंधेरे भविष्य के बारे में सोच रहा था। तभी दरवाजे पर आहात सुनाई दी। हंसू शंका से धीमी आवाज में पूछा “कौन है भाई।”

“अरे कहाँ छुपा बैठा है हंसू। दिया भी नहीं जलाया। ठहर जा। माचिस है मेरे पास।”

ये उसके अस्सी साल के मामा थे और अंधेरे में लाठी से रास्ता टटोलते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्होने जेब से निकालकर माचिस जलायी तो उजाले के टुकड़ों ने कमरे के कौने कौने से ढूंडकर अंधेरे की कलुष को धो डाला।

“अब क्या करेगा रे हंसू। कुन तेरा खाना बनाएगा। कैसे किसी सहारे के बिना अकेला खेती बड़े देखेगा।” उन्होने स्नेह से कहा। कई मिनट सन्नाटा छाया रहा। ऐसा लगा जैसे शब्द सर्दी में जम गए हैं।

फिर हंसू के भीतर कहीं गहरे से डूबती सी आवाज निकली “मर जाऊंगा मामा। और क्या। बापू भी तो मर गए।”

“ऐसे नहीं बोलते बावले। मरें तेरे दुशमन।” उन्होने स्नेह से हंसू की पीठ पर हाथ फेरा तो हंसू की आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली। कई पल भावनाओं के कुहासे में डूबते उतरते गुजर गए।

“देख बेटा। मैंने एक बात सोची है। आ आ आ एक लड़की है जमालपुर में। लड़की क्या… लुगाई है। कई साल पहले उसका पति सेना में शहीद हो गया था तो घर वालों ने सब कुछ हड़पकर घर से धक्का दे दिया। थोड़ी से पेन्शन मिलती है। इतने में इस महंगाई में गुजारा ही कहाँ होता है। हाँ एक बात है बेटा। बड़ी मलूक (सुंदर) है। थोड़ा बहुत पढ़ी लिखी है। शायद दसवीं या…। पर… एकदम निराश्रित है। यूं समझो कि भूखों मरने की नौबत है। ऊपर से जमाने की बुरी नजर।”

“अब इस उम्र में मामा।” हंसू ने संकोच में कहा।

“अरे तू उम्र वुमर का छोड़। अभी कौन सा तू बूढ़ा हो गया। और वो ही कौन सा लाली है। पर एक बात है।”

“मेरे पास देने वेने को कुछ ना है मामा।”

“अरे तू बावला हो गया है हंसू। तुझे क्या मोल की लड़की दिलवाऊंगा। और फिर गुड अनाज और दही दूध की तो कमी ही ना है तेरे घर में। बस तू एक बार हाँ कर दे। अरे बेटा तेरा भी घर बस जाएगा और उसके भी बालक पल जाएंगे।”

“बालक?”

“हाँ रे। तीन बालक हैं उसके। बड़ी बेटी तो तेरह चौदह साल की है। पैसों की कमी में पढ़ाई भी बीच में ही छूट गायी बालकों की। फिर तेरे घर में कौन सी कमी है। अरे दो निवाले ही तो खाएँगे। सोच ले बेटा। मुझे तो इस में कोई हरज दिखाई नहीं देता।”

हंसू गहरी सोच में डूबा सा चुप बैठा रहा।

अगले दिन पूरी गाँव में एक ही चर्चा थी। अरे गज़ब हो गया। बावले हंसू का ब्याह होगा। तीन बच्चों की माँ आएगी। मंदिर में फेरे पड़ेंगे। वगहरा वगहरा।

कई दिन गुजर गए। हंसू उदास घर में ही पड़ा रहता।

गुनगुनी ढूंप निकली थी। हन्सू आँगन की गुनगुनी धूंप में खाट पर उदास पड़ा था। जब से माता पिता दोनों चले गए उसका जीवन और भी निरुद्देश्य और अव्यवस्थित सा हो गया था। सुबह से न चूल्हा जलाया था और न ही अन्न का एक दाना उसके पेट में गया था।

तभी बड़ी भाई ने घर में प्रवेश किया। उसके हाथ में लाठी थी।

उसने घुर्राकर कहा “क्यूँ रे हन्सू। ये क्या सुन रहा हूँ। तू ब्याह करेगा। बता वो शकुनी मामा तुझे क्या क्या पट्टी पढ़ाकर गया हरामखोर।”

तभी दूसरे भाई ने हाथ में लाठी लेकर प्रवेश किया। “अबे बुढ़ापे में मसें फूटी हैं तेरी। पूरे गाँव में चर्चा है कि तू लुगाई ला रहा है। सुना है उसके तो पहले ही तीन तीन पिल्ले हैं।”

तभी दो और भाइयों भीतर आ गए और गुस्से में चिल्लाये “अरे बोलता क्यूँ नहीं है पागल। गाँव समाज की कोई शरम है कि नहीं। इस उमर में आग लगी है। ब्याह तो तब करेगा जब हम तुझे जिंदा छोड़ेंगे।”

हन्सू निरपेक्ष सा होकर उनके चेहरे देखता रहा।

“घुन्ना है ससुरा। बक्कारेगा (बोलेगा) नहीं। मारते मारते अकल ठिकाने लगा दो साले की।” और चारों भाई पूरे गुस्से के साथ निहत्थे हन्सू पर पिल पड़े। हन्सू चीखता रहा। चिल्लाता रहा। सारा मुहल्ला दरवाजे के बाहर खड़ा तमाशा देखता रहा मगर कोई उसकी सहायता को नहीं आया। चारों भाई उसे तब तक पीटते रहे जबतक वो लहूलुहान होकर मूर्छित नहीं हो गया। अंत में धमकी देकर चले गए कि इस मामले में एक कदम भी बढ़ाया तो जान से मार कर नदी में बहा देंगे।

गाँव ले लोगों ने उसकी मरहम पट्टी कराई और हाथ पर प्लास्टर चढ़वाया। कुनबे के लोग ही कई दिन उसके घर खाना पहुँचते रहे।

धीरे धीरे दो महीने बीत गए। एक सुबह गाँव में बड़ी ज़ोर से चर्चा थी कि कल रात हनसू का ब्याह हो गया। कुए पर पानी भरती पनिहारियों में, चौपाल पर हुक्का पीते बुजुर्गों में और नई की दुकान पर बस एक ही चर्चा थी कि हन्सूतीन बालकों की माँ से ब्याह कर लाया है। मन्दिर में फेरे पड़े हैं। अरे  किसी ने बेचारे बावले को जमीन के लालच में ठग तो नहीं लिया। ऐसा अनाचार तो गाँव में कभी न हुआ। कहीं ऐसा न हो कि दो चार महीने में सब कुछ लूट लाटकर हन्सू को मार कर भाग जाये। वे न मारेंगे तो उसके भाई ठिकाने लगा देंगे। बेचारे हन्सू बावले की नैया तो भंवर में है भैया। इधर कौआ है उधर खाई।

तांक झांक करने वाली पड़ौसनों ने ये खबर हन्सू के भाइयों के घर तक पहुंचा ही दी कि एक औरत और उसके बालक तो हन्सू के घर में मौजूद हैं।

दोपहर होते होते सारे भाइयों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। “उस दिन मार मार कर अधमरा कर दिया था फिर भी इतनी हिम्मत। आज तो ससुरे को मारकर काटकर नदी में ही बहा देंगे और उस लुगाई को उसके पिल्लों के साथ धक्के देकर बाहर फेंक देंगे।”

“अरे भैया। वो ठग तो खुद ही भाग खड़े होंगे। तुम चलो तो सही। सब की निगाहें हमारी जमीन पर लगी हैं।” दूसरे ने कहा।

सारे भाई किसी योद्धा की तरह हुंकार भरते हुए लाठी डांडा और अवैध कट्टा लिए हुए हनसू के घर की ओर बढ़ चले। हन्सू आँगन में चारपाई पर बैठा हुआ खाना खा रहा था। अचानक हथियार बंद भाइयों को देखकर सहम गया। उसके हाथ का कोर छूट कर थाली में जा गिरा और मुंह खुला का खुला रह गया।

“क्यूँ बे हरामखोर, तुझे समझाया था न उस दिन कि ब्याह की बात सोचना भी मत।” बड़े ने कहा।

“भैया …. में …।” हन्सू के हलक से सामने साक्षात मौत देखकर सहमी सी आवाज निकली।

“अरे लातों के भूत बातों से नहीं मानते। मारे साले को। आज इसकी नौटंकी निपटा ही देते हैं।”

“अरे छोटे, खोपड़ी से सटाकर गोली मार सुसरे को। मारकर नदी में बहा देंगे।” उनकी आँखों में खून उतारा था।

“गोली की जरूरत ना है। मैं अभी दो लाठी में निपटा देता हूँ।” कहते हुए एक भाई ने हवा में लाठी उठाई। हन्सू भय के मारे दोनों हाथ सर पर रखकर नीचे झुक गया। कि तभी एक तेरह चौदह साल की लड़की कोठरी से निकलकर बाहर आई और हन्सू के ऊपर लेट गई। मँझले का हाथ हवा में ही रुक गया।

“पापा को मारने से पहले हम सब को मारना होगा ताऊजी।” लड़की ने चीखते हुए कहा।

“अच्छा, रात रात में ये तेरा पापा हो गया। हठ जा लड़की वरना तुझे भी निपटा देंगे।”

“मार डालो। हम सब को मार डालो जेठ जी। मगर जब तक हम में से एक भी जिंदा है, इन पर आंच न आने देंगे।” एक तीस पैंतीस साल की गौरवर्ण महिला लठैतों और हन्सू के बीच में आकर खड़ी हो गई थी। उसकी मांग में ढेर सारा सिंदूर भरा था और उसके अपने उन्नत भाल पर बिंदी लगा राखी थी। उसकी आँखों में विपदाओं से टकराने का एक अदम्य साहस दमक रहा था। वो तनिक भी भयभीत दिखाई नहीं दे रही थी बल्कि उसके चेहरे पर ऐसा निर्भीक भाव था जैसे प्रणाहुति के लिए समर्पित होने से पहले योद्धा के चेहरे पर होता है।

औरतों और बच्चों की आवाज सुनकर दरवाजे पर तमाशबीन और गाँव समाज के कई मुअज्जिज लोग आ जुटे थे। सारे भाई इस बदल गए हालात में किंकर्तव्यवीमूढ़ से होकर एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे।

तभी एक बुजुर्ग ने भीतर प्रवेश किया। उन्होने महिला की ओर मुखातिब होकर सवाल किया “तू कौन है लाली और ऐसे कैसे नाजायज तरीके से तुम लोग हन्सू के घर में घुस आए हो।”

“न हम ने कुछ नाजायज किया है और ना ही अनैतिक। पाँच लोगों के सामने हम ने अग्नि को साक्षी मानकर फेरे लिए हैं। उस नाते से ये अब मेरे पति हैं और इनके साथ जीना मारना मेरा धर्म है ताऊजी।” महिला ने सर का पल्लू ठीक करते हुए आदाब से कहा।

“अबे पिस्तौल निकाल छोटे। मैं बताता हूँ इन ठगों को इनका धर्म। उड़ा दे सालों को। देखा जाएगा जो होगा सो।”

महिला और तीनों बच्चों ने हन्सू की ओर पीठ करके उसके चारों तरफ घेरा सा बना लिया था। तभी बुजुर्ग ने आगे बढ़ते हुए कहा “खून खराबा मत करो भैया। तुम भी बल बच्चेदार हो। तैश में आकर कुछ उल्टा सीधा हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। थाणे कचहरी ने घर बर्बाद किए है।”

“पर … ऐसे कैसे कोई तीन बच्चों की माँ किसी बावले से ब्याह रचा सकती है। ऐसी शादी को तो किसी भी सूरत में न्याय संगत नहीं ठहराया जा सकता। कोई गाँव समाज है कि नहीं।” एक दूसरे सज्जन ने कहा।

“सुनो, ऐसा करते हैं कि गाँव की पंचायत बुला लेते हैं। पंच फैसला इन्हे अपने आप हन्सू के घर से निकाल कर बाहर करेगा। चलो शांति से अपने अपने घर जाओ आज। कल पंचायत होगी।” और उन्होने हाथ के सहारे से सब को बाहर जाने का संकेत किया। सारे भाई आग्नेय नेत्रों से घूरते हुए और क्रोध से बड़बड़ाते हुए बाहर चले गए।

पंचायत बैठी तो पाँच घंटे तक को फैसला नहीं हो पाया। दरअसल अधिकतर पांचों की यही राय थी कि इस औरत ने हन्सू के मंदबुद्धि होने का नाजायज फायदा उठाया है। इसके मामा को न जाने क्या लालच होगा जो ऐसा बेमेल ब्याह रचवा दिया। किन्तु कुछ थोड़े से लोग दूसरी राय के भी थे। उनका कहना था कि भाइयों ने बेसहारा छोड़ दिया तो मामा ने ठीक ही सोचा होगा कि मेरे बावले से भाँजे को कम से कम दो वक्त गरम रोटी तो मिल जाएगी। इस में हर्ज ही क्या है।

अंत में निर्णय हुआ कि इस शादी का कानूनी पक्ष जानने के लिए पड़ौस के गाँव से तांगा भेजकर रिटायर्ड दरोगा जी को बुलाया जाय।

दरोगा जी ने बताया कि इस शादी को किसी भी सूरत में नाजायज और गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता है। इस में कोई हस्तक्षेप करना अपराध की श्रेणी में आयेगा।

आज जब हन्सू खेत में हल चलाता है और उसे अपनी पत्नी दूर से खाना लेकर आती दिखाई देती है तो हन्सू ज़ोर ज़ोर से रागिनी गाने लगता है। जब वो रात को थक कर घर लौटता है तो बिटिया पानी और अंगोछा लेकर हाथ पाँव धुलवाती है और बेटा अपने बापू के पाँव दबाता है। हन्सू के चेहरे पर ताजा गरम रोटियाँ और भरपूर प्यार मिलने से चमक आ गई है।

जब हन्सू की छोटी बेटी ने जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया और कलेक्टर साहब ने हन्सू और उसकी बीवी को सम्मानित किया तो हन्सू की छाती गर्व से फूल गई और आँखों से जार जार आँसू बहने लगे।

चार साल गुजर गए। हन्सू ने अपनी बड़ी बेटी का ब्याह रचाया था तो पूरे गाँव की दावत की। हन्सू सर पर सफ़ेद पगड़ी बांधकर मेहमानों की आवभगत कर रहा था। यही दिन था जब समाज में उसके सम्मान में चार चाँद लग गए थे।

आज हन्सू के पास सब कुछ है। अपने प्रियतम से बेइंतेहा प्रेम करने वाली उसकी प्रियतमा। अपने आश्रयदाता पिता का हृदय से सम्मान करने वाला उसका जवान होता बेटा और वात्सल्य से गले लग जाने वाली प्यारी बेटियाँ।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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