मन के भाव –  माता प्रसाद दुबे

विधा- संस्मरण –

पांच वर्ष पहले की बात है। मैं अपने कार्य से हफ़्ते में दो बार लखनऊ से कानपुर तक सफर करता था। सुबह जाकर शाम को वापस लोकल ट्रेन से आता था।

 

एक दिन ट्रेन लेट थी। मैं लखनऊ के मानक नगर स्टेशन पर बेंच पर बैठा ट्रेन का इंतजार कर रहा था। “भैया क्या आप मेरी थोड़ी मदद कर देंगे?”एक महिला अपनी गोद में दो ढाई साल की बच्ची लिए हुए मेरे पास आकर बोली। वह महिला देखने में किसी अच्छे घर की लग रही थी। उसकी गोद में छोटी बच्ची किसी गुड़िया की तरह सुंदर लग रही थी। “मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?”मैं संकुचाते  हुए बोला। वह महिला रोने लगी। उसने रो-रो कर मुझे अपनी दर्द भरी दास्तां बताई, उसे गाजियाबाद जाना था। मैं उस महिला की कहानी सुनकर भावुक हो गया था।  मेरे मन के भाव उस महिला और उसकी छोटी सी बच्ची को देखकर मुझे झकझोरने लगे। वह बच्ची जब तक मैं वहां बैठा रहा मेरे साथ खेलती रही। बच्ची काफी भूखी-प्यासी थीं।

मैंने पास के स्टोर से उसे चाकलेट बिस्किट खरीद कर दिया।



वह बच्ची बहुत खुश थी। उस महिला के पास किराये के पैसे नहीं थे। मेरे पास जेब में तीन हजार रुपए मौजूद थे। मैंने पांच सौ का नोट उस महिला को दिया जिससे वह अपने घर गाजियाबाद जा सके, उसने मुझे धन्यवाद दिया और मेरा पता और फोन नंबर भी लिया और घर पहुंचकर मेरे पैसे वापस देने की बात कही, इतनी देर में वह बच्ची मेरे साथ इस तरह घुल मिल गई थी, जैसे कि मैं उसके घर का ही सदस्य था। तभी मेरी ट्रेन आ गई, और मैं चलने लगा अपने गंतव्य कीओर,जाते वक्त वह बच्ची मुझे हाथ हिलाकर टाटा कर रही थी।

 

लगभग दो महीने बाद मैं उन्नाव रेलवे स्टेशन पर अपने एक मित्र के साथ जैसे ही स्टेशन के अन्दर जाने लगा मैं चौंक गया। वही महिला जो मुझे दो महीने पहले लखनऊ में मिली थी,वह अपनी छोटी बच्ची के साथ वहां मौजूद थी। मुझे देखकर वह वहां से भागने लगी।मेरा मित्र वही का लोकल रहने वाला था। मैंने उसे सारी बात बताई,हम लोग उसके पीछे गये तब तक वह रिक्शे में बैठकर आगे निकल चुकी थी। मेरे मित्र ने उसका ठिकाना चन्द मिनटों में ही ढूंढ लिया।

 

हम लोगों को वही रहने वाले एक व्यक्ति ने उस औरत के विषय में बताया,वह वहीं की रहने वाली थी। पक्का घर बना हुआ था।तीन बच्चे थे उनके पति पत्नी दोनों नशेड़ी थे। महिला छोटी बच्ची को लेकर, और उसका पति दो बच्चों को लेकर लोगों को ठगने का ही कार्य करते थे। मैं उसके घर अपने मित्र के साथ पहुंच गया। मुझे देखते ही उस औरत ने रोना धोने का ड्रामा चालू कर दिया। मुझे बहुत हैरानी हुई उसके छोटे-छोटे मासूम बच्चों को देखकर, ये कैसे मां बाप थे, जो अपने मासूम बच्चों को अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते थे। जिनके अन्दर की सारी मानवीय संवेदनाएं बिल्कुल शुष्क हो चुकी थी। मैंने घृणा की दृष्टि से उनकी तरफ़ देखा जो अपने छोटे बच्चों को भी नहीं छोड़ते जिनके ह्रदय में अपने मासूम बच्चों के प्रति भी संवेदना का कोई भाव ही नहीं है।

 

माता प्रसाद दुबे

मौलिक

लखनऊ,

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