माँ साथ थी – देवेंद्र कुमार

सरना सेठ ध्यानचंद का विश्वासी नौकर था। हर समय उनके आस-पास रहता क्योंकि उसे मालूम था कि न जाने कब आवाज पड़ जाए। उसे एक पल का भी आराम नहीं था, पर सरना को कोई शिकायत नहीं थी। एक दिन की बात, आकाश में बादल घिरे थे। सरना हवेली की छत पर बैठा था। ध्यानचंद भी घर पर नहीं थे। इसलिए वह आराम से कुछ देर बैठा रह सकता थ। जब इस तरह बादल घिरते, आकाश धुंधला, काला हो उठता तो उसे माँ की याद आती। एक ऐसे ही दिन उसकी बीमार माँ चल बसी और उसे गाँव का घर छोड़कर चाचा के साथ शहर आना पड़ा था।चाचा ने उसे ध्यानचंद की हवेली में नौकर रखवा दिया थ। सरना कुछ बड़ा हो गया था, पर मन के किसी कोने में नन्हे बचपन की याद अभी मौजूद थी।

सरना अपने में खोया बैठा था, तभी ध्यानचंद की पुकार कानों में पड़ी। सरना झट नीचे उतर आया। सामने खड़े ध्यानचंद ने कहा-अरे, कहाँ चला गया था। जा, यह चिट्ठी बाबू गुलाबचंद के पास ले जा। उसे चिट्ठी थमाकर उन्हेंने सरना को और भी कई काम बता दिए। साथ में कह दिया, “ज्यादा देर घूमते मत रहना और भी कई काम हैं। ‘’

सरना अनमने भाव से सड़क पर निकल आया। थोड़ी दूर जाते ही आकाश में गरज सुनाई दी, फिर बारिश होने लगी। सरना भीग गया, लेकिन उसने बारिश से बचने का प्रयास नहीं किय। वह मौसम की पहली बरसात में भीगना चाहता थ। बस इतना ध्यान रखा कि पत्र न भीगने पाए। जहाँ उसे जाना था वह जगह दूर थी, लेकिन वहाँ तक जाना न पड़ा। बाबू गुलाबचंद रास्ते में ही मिल गये। उन्हें पत्र सौंपकर सरना निश्चिंत हो गया। बाकी काम पूरे किए तो दोपहर ही बीती थी।




सरना एक पेड़ के नीचे जा बैठा। बिल्कुल वैसा ही दृश्य था—धीरे-धीरे बहती नदी, झूमते पेड़ और आकाश में दौड़ते बादल। तभी उसने देखा, थोड़ी दूर पर एक आदमी बैठा चित्र बना रहा था। वह अपने में इतना व्यस्त था कि सरना का पास आकर खड़े होना भी न जान पाया। एकाएक सरना के होंठों से निकल गया, “बहुत सुंदर।”

एकाएक चित्रकार ने चौंक कर सरना की ओर देखा। फिर मुसकराया। बोला, “पास आकर देखो।”

सरना को अच्छा लगा।चित्रकार ने एक बड़ा कागज उसे थमा दिया। बोला, “डरो मत, आराम से बैठकर बनाओ। अपने चारों ओर देखो और कागज पर उतारो।”

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सरना ने हिचकिचाते हुए पेंसिल थाम ली। ऊहापोह में डूबा वह कागज पर हाथ चलाता रहा। एक बार ऐसा लगा, जैसे माँ पीछे आकर खड़ी हो गयी है। कह रही है—अच्छा बन रहा है। घबरा मत जैसे मैं बनाती थी, वैसे ही बना…ऐसे रंग लगा। हाँ, ठीक इसी तरह…

न जाने कितनी देर हो गई। सरना अपने में डूब चित्र बनाता रहा। मन में एक पल के लिए भी नहीं आया कि देर हो रही है।ध्यान भंग हुआ तो अँधेरा घिरने लगा था। उसका बनाया चित्र सामने पड़ा था। चित्रकार ने देखा तो उसकी पीठ थपथपा दी। बोला, “तुम और भी अच्छा बना सकते हो। इसी तरह बनाते रहो।”




सरना चुप सुनता रहा, कैसे कहता, उसकी नौकरी पुकार सुनकर हुक्म बजाने की है। वह भला चित्र कैसे बनाएगा। फिर अपने बारे में सब कुछ बता दिया। वह चलने को हुआ तो चित्रकार ने पास बुलाया। कुछ कागज और रंग थमा दिए। सरना ने बार-बार मना किया। कहा, “मैं कहाँ रखूंगा यह सब सामान। मालिक ने देख लिया तो बहुत डांट पड़ेगी। मैं यह सामान नहीं ले जाऊँगा।”

चित्रकार ने जिद नहीं की। बोला, “देखो, मैं अक्सर यहाँ बैठकर चित्र बनाता हूँ। तुम्हें जब भी समय मिले मेरे पास आ सकते हो। मैं सिखाऊँगा। बोलो आओगे?”

सरना को आशा नहीं था कि फिर कभी उसे समय मिल सकेगा, पर उसने “हाँ” में गरदन हिला दी। सरना जब वहाँ से चला तो चित्रकार ने उसका बनाया चित्र हाथ में थमा दिया। “यह तुम्हारा है।,इसे तुम अपने पास रखो।”

“लेकिन मेरे पास तो ऐसी कोई जगह नहीं। इसे कहाँ रखूंगा”—कहते-कहते आँखें गीली हो गईं ।




“भला अपनी चीज भी कोई यों फेंकता है।” चित्रकार ने उसके हाथ से छूटकर गिरा चित्र उठाकर फिर से सरना को थमा दिया।इसके बाद चित्रकार चला गया। सरना उसे जाते हुए देखता रहा। फिर सरना ने भरपूर नजरों से अपने बनाए चित्र को देखा—अरे, यह क्या बना दिया उसने…यह तो कुछ और ही बन गया था। एक झोपड़ी, हवा में झुके पेड़ और दूर दिखती नदी की धारा और झोपड़ी के बाहर बैठी माँ। सरना फूट-फूटकर रो पड़ा। उसके आँसू जमीन पर फैले रंगों के धब्बों पर गिरते रहे। चित्र को हाथ में संभाले-संभाले सरना सड़क पर बढ़ चला। तभी गरज सुनाई दी-बारिश होने लगी।

सरना भीग गया, कुछ पल उसने अपने बनाए चित्र को बूंदों से बचाने का प्रयास किया, लेकिन बारिश तेज होती जा रही थी। एकाएक उसके हाथ ऊपर उठे—चित्र वाला कागज सिर पर छतरी की तरह तन गया। अब बूंदें चित्र के ताजे रंगों पर पड़ रही थीं, लेकिन रंग पानी में बह नहीं रहे थे। वह चित्र को छतरी की तरह ताने चला जा रहा था। रह-रह कर लगता, माँ के हाथों की छाया जैसे साथ-साथ चल रही है। ध्यानचंद की हवेली सामने थी, पर सरना रुका नहीं, सड़क के मोड़ पर भी नहीं। उसे ध्यानचंद की पुकार का डर नहीं थ, माँ जो साथ थी. (समाप्त )

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