“मां की गुलक” -गीतांजलि गुप्ता

रंजना जी कई दिनों से परेशन है। दीप्ति की बातों पर बार बार सोचने को मजबूर हो जाती है। बड़े अरमानों से उसने अपने इकलौते बेटे की शादी दीप्ति से की थी। दीप्ति अभिनव के साथ ही काम करती थी। रंजना जी ने अभिनव को जी तोड़ मेहनत कर के पाला था। सोमेश तो आठ साल के बेटे को और रंजना को बीच मंझधार में छोड़ परलोक चले गए थे।

रंजना जी एक स्कूल में टीचर थीं। वो प्रिंसीपल के पद से दो साल पहले ही रिटायर हुईं थीं। उनका अपना एक व्यक्तित्व था उठने बैठने ,बोलने, चलने का अलग़ तरीका बन गया था। जब से अभिनव की शादी हुई दीप्ति उन के पीछे पड़ी रहती। उसे शिकायत थी कि अगर रंजना एक प्रिंसिपल रिटायर हुई है तो क्या बड़ी बात हो गई अब घर परिवार संभालने की बारी दीप्ति की है और रंजना जी को दीप्ति के हिसाब से ही घर में रहना चाहिए। उसे लगता था कि रंजना जी ख़ुद को हर मौके पर एक्टिव और स्मार्ट  दिखाने की कोशिश करती रहतीं हैं।

हर दिन दीप्ति रंजना जी को बात बात पर नीचा दिखाने की कोशिश करती थी उसकी माँ की बातों में भी रंजना जी को रिस्पेक्ट नहीं मिलती थी। एक साल से तिल तिल घुल रहीं थीं। किस से कहें मन की बात कौन सुनेगा और

कौन मदद करेगा। ख़ुद को ही हिम्मत जुटानी पड़ेगी।

धीरे धीरे मन को पक्का करने लगीं एक दिन अभिनव से बात करनी ही होगी। मगर उसकी गृहस्थी! नहीं उससे बात करना अच्छा नहीं रहेगा।

रंजना जी ने अपने बाल कटवाने छोड़ दिये। बढ़िया कपड़े पहनने से वो घबराने लगीं। घर के बाहर जाना भी न के बराबर कर दिया। दीप्ति चाहे जो उलटे पुलटे काम करती रंजना जी देख कर अनदेखा कर देतीं। अभिनव दीप्ति से परेशान होता तो रंजना जी को बोलता, “आपने दीप्ति को रोका क्यों नहीं।” रंजना जी मुस्कुरा कर अपने कमरे में चली जाती।




धीरे धीरे रंजना जी को अपने आप के बदले रूप से डर लगने लगा।  सोचने लगीं कि कहीं उन्हें मानसिक रोग न हो जाये , सोमेश जी जब गए थे तब भी वो जैसी आज दिखने लगी हैं, उससे बेहतर दिखती थीं। दीप्ति मन ही मन ख़ुद को विजेता समझ रही थी रंजना उसकी आंखों में साफ़ पढ़ सकती थीं।

मन में और घर में शीत युद्ध चल रहा है क्यों में ख़ुद को व अपनी इच्छाओं को दीप्ति की ख़ुशी के लिए समर्पण कर रही हूँ। यह घर मेरा है, बेटा भी मेरा है, सम्मान मेरी पूंजी है नहीं, दीप्ती के सहारे के लिए वो अपनी पहचान नहीं बदलेंगीं रंजना जी ने निश्चय किया।

शाम को जब दीप्ति व अभिनव काम से लौटे तो दीप्ति रंजना को देख हैरान रह गई वह अपने पुराने स्वरूप में उसके सामने  खड़ी थीं। अभिनव ने मम्मी को गले लगा लिया बोला,” वाहह मम्मी आप तो पहले जैसी स्मार्ट लग रही हो। लव यू मम्मी।”

चुपके से नज़र दीप्ति पर डाली रंजना जी ने देखा दीप्ति हारे हुए खिलाड़ी सी खड़ी थी। रंजना जी बेटे से बोली,” बेटा सारी ज़िंदगी तुझे पालने में लगा दी तेरे पापा तो अचानक चले गए थे। तब से आज तक स्वाभिमान की  पूंजी ही जमा की है और मेरे मन की ख़ुशी उसका ब्याज है जो हमेशा बढ़ता ही रहता है। अब से अपने स्वाभिमान पर चोट नहीं लगने दूंगी न ब्याज कम होने दूँगी।” दीप्ति सर झुकाए रंजना की तरफ़ देखे बिना अपने रूम में चली गई। घर में चल रहे शीत युद्ध का अंत हो चुका था। अभिनव को कभी कुछ पता नहीं चल पायेगा, दीप्ती तो उसे कुछ बताने वाली नहीं है।

सुबह ही अभिनव दो दिन के लिए शहर से बाहर चला गया। इधर दीप्ति अपनी मम्मी के घर चली गई। रंजना जी को बहुत अजीब लग रहा था। सोच सोच कर दिमाग़ खराब हो रहा था। आख़िर बच्चों के बीच क्या चल रहा है। आज उनका जन्मदिन था और बच्चे घर पर नहीं थे पूरा दिन बहुत उदास बैठी रहीं । शाम को अपने लिए कुछ बना रही थीं तभी घर की घण्टी बजी दीप्ति व अभिनव दरवाज़े पर फूलों का बुके लिए खड़े थे हाथ में केक भी था।

रंजना जी ने जल्दी से दरवाजा खोला दोनों बच्चे अंदर आ गए। दीप्ति ने रंजना जी को गले लगा लिया और जन्मदिन की बधाई देने लगी। रंजना जी की आँखें छलक आईं तभी अभिनव बोला, “मम्मी आप का ब्याज भर दिया हमने अब से दीप्ति आपकी गुलक कभी ख़ाली नहीं होने देगी।” रंजना जी सब  समझ गईं उन्हें लगा जैसे बेटे ने माँ का पूरा कर्ज उतार दिया। दीप्ति को भी उसकी सीमा समझ आ चुकी थी।

गीतांजलि गुप्ता।

नई दिल्ली

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