मां का श्राद्ध   – डॉ  अंजना गर्ग

“सर मुझे कल की छुट्टी चाहिए।” सुनील ने अपने बॉस अभिषेक से कहा।

“सुनील तुम्हें पता है दो दिन बाद रिपोर्ट सबमिट करनी है। छुट्टी का तो सोचो ही मत।” बॉस ने सुनील से कहा।

” सर मजबूरी ना होती तो मैं कभी नहीं कहता।” सुनील ने कहा।

” ऐसी क्या मजबूरी है सुनील? बॉस ने पूछा

“सर कल मेरी मां का श्राद्ध है।” सुनील बोला।

” ठीक है , सुबह दो घंटे लेट आ जाना । पंडित को खाना खिलाकर।” बॉस ने कहा।

“नहीं सर मैं पंडित को खाना नहीं खिलाता।”

बॉस ने सुनील को बीच में ही टोका,” तो  क्या करते हो?

“मैं महिला वृद्ध आश्रम जाता हूं। उन महिलाओं को अपने हाथ से खाना परोसता हूं । फिर तीन-चार घंटे उनके साथ ही बिताता हूं । सुनील ने आराम से बताया। ।

“पर सुनील श्राद्ध में तो पंडित वगैरह को ——“आधा वाक्य बॉस मुंह में ही रख गया।

“आप ठीक कह रहे हैं सर। पर मुझे लगता है मां के श्राद्ध पर वृद्ध महिला आश्रम से अच्छी जगह तो हो ही नहीं सकती ।”सुनील ने कहा ।

“वह कैसे ?सुनील ।”बॉस एकदम बोला।

“उन्हें मेरे में अपना बेटा दिखता है और मैं उनकी बातों में अपनी मां पा जाता हूं। जब मैं उनके साथ बैठता हूं तो वैसी ही हिदायतें और फिक्र उनकी बातों में होती है जो मां की बातों में होती थी ।उनकी छोटी-छोटी समस्याएं होती हैं सर। सुन लेता हूं। हल करने की पूरी कोशिश करता हूं। उनके चेहरे पर जब खुशी आती है तो लगता है ऊपर मां मुस्कुरा रही है और कह रही है ।शाबाश मेरे लाल, इन माँओं की यूं ही सेवा करते रहना।” सुनील की आवाज में एक सकून था ।

” तुम धन्य हो सुनील, बहुत अच्छी सोच है तुम्हारी। तुम जाओ । काम हम रात को देर तक बैठकर निपटा लेंगे ।”बॉस के शब्दों में शाबाशी जैसे भाव थे।

              डॉ  अंजना गर्ग

                 म द वि रोहतक

 

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