“मां!” – आरती श्रीवास्तव

अपनी शादी के सिर्फ़ छह महीने के बाद मुझे अपनी बुआ के बेटे नैतिक भैया की शादी में जाने का मौका मिल रहा था। मेरी शादी के बाद मायके की यह पहली शादी थी जिसमें शामिल होने के लिए मैं खासी उत्साहित थी। 

कुछ ही समय पश्चात् हम ट्रेन के द्वारा रांची से पटना बुआ जी के यहां जाने के लिए निकल पड़े। मैं शादी में पहुंचने के लिए काफ़ी बेताब थी। हरी झंडी मिलने के बाद हमारी ट्रेन खुल चुकी थी।

सामान व्यवस्थित करने के बाद हम अपनी आरक्षित सीट पर लेट गए। ट्रेन से आती मंद-मंद ब्यार से मेरी आंख कब लग गई कुछ पता ही ना चला। सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन पटना जंक्शन पर खड़ी थी।

ट्रेन से उतरते ही बड़े भैया से हमारी मुलाकात हो गई। वे स्टेशन से हमे घर के जाने के लिए आए थे। हम उनके साथ गंतव्य की ओर रवाना हो गए। घर पहुंच कर अपने पूरे मायके परिवार को इक्कठा देख मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा।

अपने मां-पापा से काफ़ी दिनों बाद मिलकर मेरी आंखें छलक आई थी। मां के गले लगकर मैं खुशी से फफक कर रो पड़ी थी। बुआ जी के साथ-साथ पूरे परिवार ने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया।

अगले ही दिन नैतिक भैया की तिलक की रस्म थी। पूरे घर को दुल्हन की तरह सजाया गया था। मेहमानों से पूरा घर खचा-खच भरा हुआ था। मेरी तबीयत उस दिन कुछ ठीक नहीं थी, तो मैं चुपचाप एक कोने में बैठी हुई थी। भैया के तिलक की रस्म के बाद बुआ जी ने मुझे जबरदस्ती परिवार के साथ फ़ोटो शूट के लिए बैठा दिया।

सब कुछ होने के बाद मैं वहां से ज्यों ही मुड़ी एक छोटी बच्ची ने आकर मेरी अंगुली पकड़ ली। मैंने हैरत से उसकी ओर देखा, तो वह हौले से मुस्कुरा पड़ी। मैंने सोचा शायद किसी रिश्तेदार की बच्ची होगी जिसे मैं ठीक सेमें नहीं पहचान पा रही। फिर वो मेरे साथ आकर बैठ गई।

इतने में एक बुज़ुर्ग महिला आकर उस बच्ची का हांथ पकड़कर अपने साथ ले जाने लगी। शायद उक्त महिला उस बच्ची की दादी थी। अचानक बच्ची मुझसे लिपट कर चिल्लाने लगी, ” मुझे कही नहीं जाना।”

“चलो घर चलो, काफ़ी देर हो गई है बेटा।” वह महिला लगातार उस बच्ची को समझा रही थी।

“नहीं! मैं नहीं जाऊंगी!” कहती हुई उस बच्ची ने मुझे ज़ोर से पकड़ लिया।



इतने में एक आदमी वहां आया जिसे देख वह बच्ची ज़ोर से चिल्लाने लगी, “पापा मुझे नहीं जाना। आपलोग चले जाइए। मुझे यही रहना है।”

पूरे मामले से अनभिज्ञ मैं, मौन सबकुछ समझने की कोशिश कर रही थी। बच्ची की बातों से पता चला कि वे उसके पापा थे, उक्त महिला उसकी दादी और वह बच्ची ना जाने क्यों अपने परिवार वालों के साथ जाने के लिए राज़ी नहीं थी।

बच्ची के पापा ने पुनः कहा, “चलो बेटा, घर चलो। बहुत देर हो गई है।”

 “नहीं मैं अपनी माँ को छोड़कर कही नहीं जाऊँगी।”

बच्ची की बात सुनकर मैं हैरान थी। उसके पापा भी अपनी बिटिया की बातें सुनकर मुझे लगातार सॉरी बोले जा रहे थे। बच्ची मुझे छोड़ कर जाने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। बच्ची की बातें सुनकर धीरे-धीरे वहाँ काफ़ी भीड़ इक्कठा होने लगी। बच्ची की दादी ने मुझसे अनुरोध किया, “कृपया आप इसे लेकर कुछ दूर हमारे साथ चलिए फ़िर वहां से हम इसे बहला कर अपने घर ले जायेंगे।”

 मैंने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया।

तभी बुआ जी ने मेरे पास आकर धीरे से कहा, “बेचारी बच्ची की माँ अब इस दुनिया में नहीं रही। नादान है अभी, घर वाले भी इसके साथ सख़्ती नहीं करते है। तुम कुछ दूर साथ चली जाओ, ये लोग वहां से परी (बच्ची) को ले जायेंगे।”

बुआ जी के बताने के बाद मुझे सारी बात समझ आई। बच्ची की माँ के बारे में सुनकर मेरा दिल भर आया था।

तबियत ठीक नहीं होने के बावजूद मैं उस बच्ची को लेकर उसके परिवार के साथ धीरे-धीरे बढ़ने लगी। बुआ जी के घर से थोड़ी दूर आने पर वहां भीड़-भाड़ नहीं थी। वे लोग बच्ची को बहला- फुसलाकर मुझसे अलग करने लगे। वो पुनः “मां!” कहकर मुझसे लिपटने लगी। उन लोगों ने बच्ची को किसी तरह मुझसे अलग किया। वह पलट कर मुझे बार-बार देखती रही और “मां-मां!” कह कर पुकारती रही।

यह दृश्य देख कर मेरा मन कराह उठा था। मेरी आंखों से भी अश्रु की धारा बह निकली थी। वो लड़की मुझमें अपनी माँ का अक्स देख रही थी।

उस बच्ची की माँ के साथ क्या हुआ होगा? ये प्यारी-सी बच्ची अपनी माँ के बग़ैर कैसे जी पायेगी? अनगिनत सवाल मेरे मन में कौंध रहे थे। मेरी आंखें भी लगातार बरसती जा रही थी।

मैं बुझे कदमों से घर की ओर लौट रही थी। उस बच्ची की “माँ” की पुकार लगातार मेरे कानों में गूंज रही थी। उस लड़की की माँ के बारे में जानने को मेरा मन अधीर हुआ जा रहा था।

घर की भीड़-भाड़ शांत होने के बाद मैं अपने सवालों के जवाब लेने अपनी बुआ जी के पास पहुंची। बुआ जी ने जब उस लड़की की माँ के बारे में कहानी बताई। सुनकर मेरा दिल भर आया।



दरअसल उस बच्ची की माँ को कैंसर रोग था, जिसका आख़िरी चरण में पता चला था। परिवार वालों ने उनके इलाज में कोई कोताही नहीं बरती। उन्हें इलाज के लिए वेल्लोर लेकर कर जाया गया था।

उस दौरान बच्ची अपनी नानी के साथ थी। काफ़ी दिनों तक उनका इलाज चलता रहा परंतु परी की माँ को बचाया नहीं जा सका।

उम्र छोटी होने के कारण बच्ची को माँ के मरने का मतलब तक नहीं समझ आया था। उसे अभी तक अपनी माँ का इंतज़ार था, जिसका अक्स वो मेरे अंदर देख रही थी।

मेरा मन भी कही न कही उस नन्ही परी के मोहपाश में बंधता जा रहा था। मेरा मन भी परी से मिलने के लिए अधीर था। नैतिक भैया की हल्दी की रस्म के दिन बच्ची की दादी तो दिखीं पर उनके साथ परी को नहीं देख मैं भी मन ही मन बैचेन थी।

मैं दुखी मन से एक तरफ़ जा कर बैठ गई।

“मां!”

अचानक परी की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया। पास ही खड़े परी के पापा मुस्कुरा रहे थे। वे मुझसे कहने लगे, “आपसे मिलने की बहुत ज़िद कर रही थी, तो लेता चला आया इसे भी। आपको कोई एतराज़ तो नहीं?”

“नहीं-नहीं बिल्कुल भी नहीं। आपलोग जब चाहें इसे मुझसे मिला सकते हैं।” मैंने ख़ुश होते हुए कहा।

कुछ देर मेरे पास रुकने के बाद अगले दिन फ़िर से मिलने का वादा करके परी के पापा उसे लेकर घर चले गए।

मैं जितने दिन भी वहाँ शादी में रही परी नियमित रूप से मेरे पास आती रही। परी के साथ मेरी ख़ूब घनिष्ठता हो गई थी।

आख़िरकार नैतिक भैया की शादी और बहू भोज के बाद मुझे अपने घर लौटना पड़ रहा था। मेरा मायका और बुआ जी का घर एक ही शहर में था। अब परी की वज़ह से मैं बुझे मन से बुआ जी के घर से अपने मायके जा रही थी। परी के बिछोह ने मुझे अंदर से बैचैन कर दिया था।



घर पहुंच कर मेरा मन उस नन्ही परी से मिलने के लिए बैचेन रहता था, पर किसी तरह अपने मन को समझा रही थी कि “पराई बच्ची के लिए इतना लगाव सही नहीं है, और अपने मायके को छोड़ आख़िरकार मुझे जाना तो ससुराल ही है।”

बुआ जी के यहां से वापस आए और नन्ही परी से  मिले मुझे एक हफ़्ता बीत गया था।

“मां!” उस आवाज़ से मैं चौंक गई। मुझे लगा कि ये मेरे मन का वहम है। अचानक परी आकर मुझसे लिपट गई। जब सामने देखा तो बुआ जी के साथ परी की दादी खड़ी थी।

बुआ जी कहने लगी, “तुम्हारे आ जाने के बाद दो दिन तक परी तुमसे मिलने आती रही। जब तुम नहीं मिली तो रोते-रोते ये बीमार पड़ गई। फिर इसकी दादी ने मेरे पास आकर तुमसे मिलवाने की बात की तो इसे लेकर आना पड़ा।”

 इस तरह मैं जब तक अपने मायके में रही अक़्सर परी से मुलाकात होती रही। हमारे बीच एक माँ-बेटी का अबूझ रिश्ता कायम हो गया था।

ससुराल लौटते समय अपने परिवार वालों के साथ-साथ परी के बिछोह ने मुझे व्यग्र कर दिया था। फिर मिलने का वादा करके मैं अपने ससुराल आ गई। परी की चिट्ठी आती रही मैं भी उसे जवाबी ख़त लिखती रही। मैं जब-जब मायके जाती उससे ज़रूर मिलती। मेरे पति भी उस नन्ही परी से मिलकर बहुत ख़ुश होते थे।

मेरे पति ने जब परी से जुड़ाव की कहानी मेरी सासू माँ को बताई तो वे भी उससे मिलने के लिए के लिए बेताब हो उठी। फिर दोनों परिवारों की सहमति से परी मेरे ससुराल भी आने-जाने लगी। समय के रफ़्तार से परी भी बड़ी होती गई। उसे अब इतना ज्ञान ज़रूर हो गया था कि मैं उसकी सगी माँ नहीं हूं। परंतु दिलों का जुड़ाव कभी कम नहीं हो पाया।

मैंने अपनी कोख से तो सिर्फ़ एक बेटी और एक बेटे को हीं जन्म दिया पर तक़दीर ने मुझे दो बेटियों के सुख से आबाद रखा।

मेरी नन्ही परी अब बड़ी होकर डॉक्टर बन गई है। कुछ ही वर्ष पहले उसकी शादी में मुझे, अर्थात परी की माँ को परी की ख़्वाहिश अनुसार, उसका कन्यादान करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ।

मैं ख़ुद को बेहद ख़ुशनसीब मानती हूँ कि ईश्वर ने मुझे दो बेटियां दी हैं। परी के साथ-साथ उसका पति विशेष अर्थात मेरा दामाद और उसके परिवार वाले भी मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं। परी के साथ मेरा खून का तो रिश्ता नहीं है पर ईश्वर ने उससे बढ़कर कुछ अनमोल रिश्ता कायम करा दिया।

जीवन का सफ़र तो काफ़ी लम्बा है दोस्तों। इस सफ़र में कई नए रिश्ते बनते हैं, कुछ खून के, तो कुछ प्रेम के। जिंदगी का कारवां निरंतर बढ़ता ही रहता है। कुछ रिश्तों के प्रेम के धागे में बंधकर हमारे जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जाती है।

आरती श्रीवास्तव

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