क्या खोया क्या पाया – शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

आज मैं अपने अतीत की गलियों में घूम रही थी। बचपन से लेकर आज साठ वर्ष की आयु तक का सफर चलचित्र की भांति मेरे मानस पटल से गुजर रहा था।आज मैं सोचने को मजबूर थी कि मैंने जीवन में क्या खोया क्या पाया अपने अंहकार के वशीभूत होकर।

मैं एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार की सबसे छोटी सबसे लाडली बेटी थी। मम्मी-पापा के साथ -साथ मुझे अपने बड़े भाई बहन का भी पूरा प्यार मिलता था किन्तु मुझे संतुष्टि नहीं होती।हर समय मुझे लगता मेरे को सब कुछ  कम मिलता है मेरे बड़े भाई बहन को ज्यादा। मेरी नज़र हमेशा मिलने वाली वस्तुओं को तोलती  रहती।

छोटी होने के कारण कई बार बहन भाई भी अपने हिस्से की वस्तुएं मुझे दे देते फिर भी मेरा मन संतुष्ट नहीं होता। मनमानी करने की आदत भी थी मुझे जो चाहिए वह तुरंत चाहिए घर की परिस्थिति कैसी भी हो। मेरी आदतों से सब परेशान थे समझाते भी, कभी डांटते भी पर मुझ पर कोई असर नहीं होता।

जब बड़ी हुई मम्मी कहतीं कि कुछ काम पर ध्यान दो, कुछ करना सीखो पर मैं कहां सुनने वाली थी ये गई कि वह गई। खेलने में मस्त।

समय बीतने के साथ दीदी की शादी हो गई अब मैं कुछ जिम्मेदारी सम्हालने लगी पर काम के प्रति उतनी गंभीर नहीं हो पाती जितना कि दीदी करतीं थीं।

पढ़ाई पूरी कर हम सब बहन-भाई नौकरी में आ गए हंसी खुशी जीवन बीत रहा था भविष्य की योजाएं बनाते कि तभी 

वज्रपात हुआ और मम्मी एक छोटी सी बीमारी में ही चल बसीं।अब पूरे घर कि जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई। दीदी बीच-बीच में आकर सम्हालतीं  किन्तु उनकी भी नौकरी बच्चे थे सो पूरा समय नहीं दे पातीं फिर भी मां का स्थान ले उन्होंने पूरी जिम्मेदारी निभाई और हम दोनों भाई बहन की शादी करा हमारे घर बसा दिये

अब वे हमारी ओर से निश्चींत हो गईं कि हम अब अपनी अपनी गृहस्थी में खुश हैं। शादी के समय भी मैंने अपनी खूब मनमानी चलाई। चूंकि मेरे पति का बिजनेस था किन्तु उसमें बहुत ज्यादा आमदनी नहीं थी। तीनों भाई बहनों का जीवन स्तर लगभग सामान्य था खूब प्रेम से संबंध चल रहे थे। जैसे -जैसे मेरे पति का  व्यवसाय बढ़ता गया मेरे अंदर अंहकार की भावना आने लगी। बच्चे भी अब बड़े होने लगे थे वे अपने मामा, मौसी के बच्चों की शिकायत करने लगे

उन्हें रोकने, समझाने के बजाए मैंने उन्हें और शह दी । जिस बड़ी बहन ने मुझे हमेशा मायके की अनुभूति करवाई उन्हीं पर मैं शक करने लगी।जब भी मैं छोटे बच्चों को लेकर उनके पास जाती वे मेरी एक बेटी की तरह ही देखभाल करतीं। मैं अपने बच्चों को उनके भरोसे छोड़ आराम करती।वे अपने बच्चों के साथ मेरे बच्चों के काम भी करतीं

और यह सोचकर लड़कियां मायके आकर बेफ्रिक नहीं होगीं तो कहां होंगी, मुझसे कुछ न कहतीं। कभी मेरे यहां आतीं तो जिम्मेदारी से मेरा पूरा घर व्यवस्थित कर जातीं।

किन्तु मैं मूर्ख उनके प्यार को नहीं पहचान पाई। मेरी भाभी से कम बनती थी है दीदी सोचती वहां तो मायके की अनुभूति होती नहीं है कम से कम मेरे पास तो यह सुख अनुभव कर लूं। मेरे बच्चों  को उनकी मनपसंद चीजें बना बना कर खिलातीं उनकी हर फरमाइश पूरी करने को तैयार। हांलांकि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अधिक सुदृढ़ नहीं थी किन्तु बिना किसी शिकन के वे सब व्यवहार निभातीं। सामर्थ्यानुसार लेना देना भी करतीं।

मेरी मति मारी गई मैं बच्चों के कहने पर उनसे भी नाराज़ हो गई।आना जाना बंद कर दिया।वे बहुत दुखी हुईं कि क्या ऐसा हो गया।जब मैंने उनसे शिकायत की तो वे हैरान हुईं उन्होंने जो बताया उस पर मैंने विश्वास नहीं किया। जबकि वे मेरे बच्चों की आदतें सुधारने के हिसाब से ही सब कहतीं थीं, और मैंने बच्चों की बातों पर विश्वास किया।

भैया भाभी से भी मैंने संबंध खास नहीं रखे। क्योंकि जैसे -जैसे मेरे पति का बिजनेस बढ़ता जा रहा था पैसा भी बढ़ता जा रहा था। एक गुरुर, अहम् भाव मुझमें एवं मेरे परिवार में आता जा रहा था। में पैसों के पीछे इतनी पागल हो गई कि बच्चों को कम उम्र से ही कमाने के गुर सिखा दिये।

भैया, दीदी को कभी भी सुना देती आप लोग अपने बच्चों की शादी कैसे करोगे आपके पास तो पैसा ही नहीं है या फलां काम आप नही कर पाएंगे उसमें पैसों कि बहुत जरुरत होती है।यह सुन कर वे बोलते बच्चों की किस्मत है जो होगा देखा जायेगा।अब सोचती हूं कि उन्हें कितना बुरा लगता होगा। मेरे बच्चों को खुले हाथों पैसे खर्च करने की लत लग गई। ब्रांडेड कपड़े पहनना,मन माफिक वस्तुएं खरीदना बहन भाई को दिखाना कि हम कितने अमीर हैं।यह सब चलता रहा और मनमुटाव बढता रहा ।

सबके बच्चे पढ़ गए, नौकरी में आ गए, शादियां हो गईं क्योंकि उन लोगों के सपनों की उड़ान सीमित थी किन्तु मेरे बच्चों के सपने अपरिमित थे उनकी उड़ान की कोई सीमा नहीं थी इस गफलत में रिश्ते नकारते गये। अधिक उम्र होने लगी रिश्ते मिलने कम हो गये।बेटी की शादी की वह भी असफल रही तलाक की नौबत आ गई। बेटे ने भी समय पर शादी नहीं की।अब उम्र अधिक हो गई। दोनों बच्चे डिप्रेशन का शिकार हो गए। लम्बी बीमारी के बाद मेरे पति भी स्वर्गवासी हो गये बच्चों की शादी की हसरत मन में लिए हुए।

आज मैं पैसों के ढेर पर बैठी हूं अपने अंहकारवश सब रिश्ते खोखले कर लिए।

मैं तो अहम् में आकर रिश्तों का महत्व ही भूल  गई थी आज पीछे मुड़कर देखतीं हूं तो सोचती हूं कि जीवन में मैंने क्या खोया क्या पाया अमूल्य रिश्तों की बलि चढ़ा कर।

शिव कुमारी शुक्ला 

3-2-25

स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

वाक्य****मैं अपने अहम में रिश्तों का महत्व भूल  गई ।

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