कुम्हार – सीमा पण्ड्या 

आज एक विवाह समारोह में डाक्टर वसुधा से मुलाक़ात हुई, बहुत ही आत्मीयता से मिलीं  मेरे पूरे परिवार से। 

 बच्चे क्या कर रहे हैं? भविष्य में क्या करना चाहते हैं सब पूछा। बच्चों और पत्नी उनके व्यक्तित्व और आत्मीयता से बहुत प्रभावित हुए ।बच्चे बोले-“लगा ही नहीं इनसे मिलने पर कि पहली बार मिल रहे हैं, इनकी बातों से लग रहा था जैसे बरसो से जानती हैं अपन लोगों को।पापा, क्या लगती हैं डॉ वसुधा आपकी”?

और मैं सोच में पड़ गया कि क्या कहु ?

फिर एक ही शब्द निकला मुँह से “कुम्हार……”

आश्चर्य से दोनों मेरा मुख तांकने लगे…..

मैं स्मृतियों में चला गया

मम्मी कीं असाध्य बीमारी अंतिम स्टेज में पता चली और आठ दिन के भीतर ही मम्मी हम सबको छोड़ कर  हमेशा के लिये चली गयीं।  पापा और हमारा घर दोनों ही एकदम बिखर से गये। पापा कभी खुद  को सम्हालने की कोशिश करते और कभी हम दोनों भाई को!

उस समय पास में रहने वाले अंकल-आंटी और उनकी दोनों बेटियाँ स्निग्धा दीदी और डॉ. वसुधा का बहुत सहारा रहा। 

उस वक़्त मैं कक्षा ३ में पढ़ता था, स्निग्धा दीदी कक्षा ५ में और डा. वसुधा कक्षा ९ में और भैया कक्षा ७ में। 

बचपन से ही पढ़ने में तेज-तर्राट वसुधा ने एक बार कहा था कि बड़ी होकर मैं डॉक्टर बनूँगी। 

बस तभी से  मम्मी उन्हें डा. वसुधा कहने लगी थी , मम्मी के देखा-देख मैं, भैया,पापा और धीरे-धीरे पूरा मुहल्ला ही “डाक्टर वसुधा” कहने लगा।

 मैं घर में सबसे छोटा था और माँ की कमी बहुत खलती थी मुझे।पापा टिफ़िन में ब्रेड बटर लगा कर देते पर मेरा मन मम्मी की बनायी पराँठे और आलू की सब्ज़ी ले जाने का होता। पापा खाना बनाने वाली आंटी से रोटी-सब्जी बनवा कर ऑफिस चले जाते पर मुझे माँ के हाथ के गरम-गरम दाल-चावल घी डाल कर खाने का मन होता। 

पहले जब मैं स्कूल से आता था  तो दाल के छौंक की महक बाहर तक आती थी, ऑटो से उतरता तो हींग के छौंक से महकते घर में घुसते ही भूख खुल जाती थी और मैं कहता -“ मम्मी दाल- चावल दे दो जल्दी से!” बमुश्किल यूनिफ़ॉर्म बदलने जितना इंतज़ार होता और मैं टूट पड़ता दाल-चावल पर।कितने प्यार से खिलाती थी मम्मी!

अब तो मन ही नहीं होता था खाना खाने का। भैया जैसे तैसे मना कर खिलाते मुझे खाना। कई बार डा. वसुधा आ जातीं तो बड़े प्यार से खिलाती मुझे खाना, उस दिन मैं भर पेट खाना खाता। एक दिन खाना खाते-खाते मैंने डा. वसुधा से बोला-“ मम्मी कितने अच्छे दाल-चावल बनाती थी न डा. वसुधा”। उसके अगले दिन से डा. वसुधा रोज़ अपने घर से मेरे लिये एक कटोरी दाल-चावल ज़रूर लाती। मम्मी वाला स्वाद तो नहीं आता था पर उनका दाल-चावल लाना मुझे बहुत अच्छा लगता।

मम्मी थीं तो दोपहर में कढ़ाई-बुनाई करते करते मुझे पढ़ाई भी करवा देती थीं और मैं अच्छे नंबरों से पास हो जाता था।




मम्मी के जाने के बाद जब मेरा पहला छमाही परीक्षा का परिणाम आया तो मैं कक्षा ३ में सभी विषयों में फेल हो गया। पापा को तब होश आया कि मुझे पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी तो है उनकी ! 

उस दिन पापा रो ही दिये अंकल आंटी के सामने बोले-“ मैं तो सिर्फ़ कमा के लाता था, घर तो पूरा वो ही चलाती थी, हर ज़िम्मेदारी बग़ैर कहे उठाती थी, मुझे तो पता ही नहीं था इतनी ज़िम्मेदारियों के बारे में”।

पापा की चिंता देख डा. वसुधा ने स्वत: ही मुझे पढ़ाने की ज़िम्मेदारी ले ली।

मैं, भैया और डा. वसुधा क़रीब-क़रीब एकसाथ ही स्कूल से आते थे।

अब खाना खाने के बाद मैं अपना बस्ता लेकर डा. वसुधा के घर चले जाता, वो खुद भी अपनी पढ़ाई करती रहतीं  और मुझे भी करवाते रहतीं। पढ़ाई के बाद कभी-कभी मैं वहीं सो जाता उनकी गोद में सर रख कर।

कई बार हम साँप-सीढ़ी या लुडो भी खेलते और मेरे ज़िद करने पर कभी-कभी वो मेरे साथ “घर-घर” भी खेलती। इस खेल में मैं हमेशा उनको मम्मी बनाता और मै मम्मी का राजा बेटा बनता। खेल-खेल में मैं उनकी कमर से लिपट जाता और उनकी गंध में अपनी मम्मी की गंध खोजने का प्रयास करता। मम्मी की गंध तो नहीं मिलती पर उनकी गंध भी बहुत आत्मीय लगती।

धीरे-धीरे मेरी पढ़ाई के परिणाम फिर से अच्छे आने लगे।

दोनों परिवार में गहरी आत्मीयता थी, साँझ को दोनो घरों में जो भी बनता वो किसी भी एक ही घर में ले आते और भोजन दोनों परिवार साथ ही करते।

समय निकलता गया, मैंने मिडिल पास कर हाई स्कूल में आ गया और डा. वसुधा ने प्रतियोगिता परीक्षा पास कर मेडिकल कॉलेज में दाख़िला ले लिया। 

अब तो मोहल्ले के कई बच्चे उनसे मार्गदर्शन लेने आने लगे। वो भी सभी की बराबर सहायता करतीं।

मुझ पर तो डा. वसुधा का इतना प्रभाव था कि मैं हर बात में उनका अनुसरण करता।वो रात को देर तक पढ़ती तो मैं भी देर तक पढ़ता । वो शौक़िया पेंटिंग बनाती तो मैं भी ड्राइंग बनाता और सबसे पहले उन्हीं को दिखाता और उनकी तारीफ़ से मेरा उत्साह सातवें आसमान पर होता।

वो मुझे मेरी सबसे अच्छी दोस्त लगने लगी। मैं हर बात जब तक उनसे साँझा नहीं कर लेता मुझे चैन ही नहीं पड़ता।

एक दिन अंकल ने बताया कि उनका स्थानांतरण दूसरे शहर में हो गया है । हमारे घर में मायूसी छा गयी, मेरा मन भी बहुत उदास हो गया। फिर अंकल ने बताया कि डॉ. वसुधा यहीं कॉलेज के हॉस्टल में रह कर पढ़ाई करेंगी ।

डा. वसुधा बोली -“ तू उदास क्यूँ हो रहा है, इसी शहर के हॉस्टल में ही तो जा रही हूँ, हर छुट्टी के दिन तो यहीं आऊँगी”।

फिर वे क़रीब क़रीब हर छुट्टी के दिन आने लगीं । पापा और डा. वसुधा मिलकर कोई स्पेशल डिश बनाते और हम सभी उसका आनंद लेते। घर में त्योहार का सा माहौल हो जाता।




डॉ वसुधा का चेहरा बहुत ही साधारण था। साँवला रंग, थोड़ी मोटी नाक और उस पर गोल फ़्रेम का मोटा चश्मा जो एक पढ़ाकू छात्रा की इमेज बनाता था। वाणी एकदम शांत और विनम्। 

मैं भी किशोरावस्था में पहुँच चुका था । स्कूल के हम सभी मित्र लड़कियों को देख कर आकर्षित होते थे। हम सभी अपनी-अपनी पसंद की लड़कियों के बारे में बातें करते। कोई साँवली और मोटे चश्में वाली लड़की दिखाई देती तो मुझे बहुत सुंदर लगती लेकिन मेरे सारे दोस्त मेरी पसंद का मज़ाक़ उड़ाने लगते पर मुझे लगता कि कितनी सुंदर तो है बिलकुल डॉ वसुधा की तरह। शायद डॉ वसुधा के खूबसूरत मन ने मेरी कच्ची उम्र के मस्तिष्क में  ख़ूबसूरती की परिभाषा ही बदल दी थी।

एक दिन शाम को फुटबॉल खेलकर मैं घर आया तो देखा ड्राइंगरूम में डॉ वसुधा एक पुरुष के साथ आई हुई हैं और पापा से बात-चीत कर रही हैं। मैं ड्राइंगरूम में बग़ैर रुके तीर की तरह सीधे अंदर गया और भैया से पूछा -“कौन है”?

भैया ने बताया कि डा. वसुधा के सहपाठी हैं और दोनों विवाह करना चाहते हैं।

जब अंकल पास में ही रहते थे तब पापा हमेशा अंकल से कहते थे डा. वसुधा का विवाह डॉक्टर लड़के से ही करना । अंकल कहते अरे , हमारी जाति में डॉक्टर लड़का कहाँ मिलेगा। तब पापा कहते चाहे विजातीय लड़के से कर देना पर करना डॉक्टर से ही।

विजातीय लड़के से विवाह के लिये पापा ही अंकल को मना सकते थे इसलिए वे अपने सहपाठी को पापा से मिलवाने लाईं थी।

जैसे ही भैया ने बताया कि डॉक्टर वसुधा उनके सहपाठी से विवाह करना चाहती है तो मुझे एकदम झटका लगा, ऐसा लगा मानों उनका सहपाठी, डॉ वसुधा को मुझसे छीनने आया है।

मेरे चेहरे का रंग ही उड़ गया। 

मैं डॉ वसुधा को फ़िल्म “मेरा नाम जोकर” की सिम्मी गरेवाल और अपने आप को ऋषि कपूर की तरह ठगा हुआ महसूस करने लगा।

डॉ वसुधा ने आवाज़ लगा कर मुझे बुलाया तो बिलकुल बेमन से मैं ड्राइंगरूम में गया।

उन्होंने मुझे डॉ मनीष से मिलवाया और फिर अपने पास बैठाकर मेरी तारीफ़ में ढेर सारे क़सीदे गढ़ने शुरु किये।मैं नज़रें झुकाए बिना मन से मुस्कुराता रहा।इतनी तारीफ़ सुन डॉ मनीष ने भी मेरी पीठ थपथपाई और कहा -“ अब हम मिलते रहेंगे”।




उसके बाद छुट्टी के दिन डॉ वसुधा के साथ 

कभी-कभी डॉ मनीष भी आ जाते। वो भी पापा और डॉ वसुधा के साथ किचन में मदद करवाते।पहले-पहले मुझे अच्छा नहीं लगता था, लेकिन उनके सरल स्वभाव के कारण जल्दी ही मैं उनके साथ सामान्य हो गया।अब मुझे एक की जगह दो मार्गदर्शक मिल गये थे।

एक बार डॉ वसुधा रात रुकने के हिसाब से  शनिवार को ही कॉपी-किताबें ले कर आ गयीं । हम दोनों रात को पढ़ाई कर रहे थे।

मुझसे एक फ़िज़िक्स का सवाल नहीं बन रहा था सो समझने के लिये उनके पास गया, हम दोनों के सर एकदम निकट थे।उन्होंने कहा- “थोड़ा पास आ तो”! मैं और निकट गया तो मुझे उनकी चिर-परिचित गंध आने लगी और मैं आनंदित होने लगा।

उन्होंने भी कुछ सुघंने के तरीक़े से नाक उपर नीचे की और पूछा-“ तूने सिगरेट पी”? 

मुझे काटो तो खून नहीं ।मेरी चोरी इस तरह पकड़ी जाएगी, मैंने सोचा भी नहीं था। घड़ों पानी गिर गया मुझ पर। डर के मारे हालत ख़राब हो गई। अब तो डॉ वसुधा, पापा और भैया को भी बता देंगी।

पर मैं डॉ वसुधा से झूठ नहीं बोल सकता था।मै फूट-फूट कर रोने लगा। शर्म के मारे नज़रें उपर नहीं हो पा रही थी।

उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई, मुझे पानी पिलाया और संयत किया।

मैं आँखें नहीं मिला पा रहा था डॉ वसुधा से!

बड़ी मुश्किल से मैं नज़रें नीचे करके ही बोला-“आज पहली बार …………दोस्तों ने ज़बरदस्ती…………………..”

वो बोलीं-“ठीक है ठीक है…………. कोई बात नहीं…………… होता है कभी-कभी ऐसा…..”

“डर मत”

मैं बोला-“ पापा और भैया को पता चलेगा तो………..”और मेरी रुलाई फिर फूट पड़ी।

वो बोलीं-“नहीं पता चलेगा……… प्रॉमिस “।

मैं आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखने लगा ।

वो बोलीं-“ तू भी एक प्रॉमिस कर कि जब तक कमाएगा नही, तब तक सिगरेट, गुटका शराब जैसी किसी भी चीज़ का व्यसन नहीं पालेगा”।

इस घटना के बाद वो मेरी सबसे बड़ी राज़दार भी बन गयीं।

डॉ वसुधा से किया वो प्रॉमिस मैं आज तक निभा रहा हूँ ।

प्रतियोगिता परीक्षा उत्तीर्ण कर मैं भी इंजीनियरिंग कर दो साल के लिये विदेश चला गया।

इसी बीच डॉ मनीष और डॉ वसुधा केंसर विशेषज्ञ हो गये । विवाह कर उन्होंने इसी शहर में अपना अस्पताल खोल लिया । अपने सरल स्वभाव और कम से कम खर्च में इलाज कर वे शहर की सम्माननीय चिकित्सकों में शामिल हो गये।

भैया-भाभी पापा के साथ रहते थे।

जब मैं विदेश से आया तो पापा ने पूछा-“कोई पसंद की लड़की चुन रखी है क्या हमसफ़र के लिये”?

मैंने ना में सिर हिलाया, क्या बताता उनको कि कोई सांवले रंग की मोटे गोल चश्में वाली लड़की मिली ही नहीं! 

पापा ने एक तस्वीर और बायोडेटा मेरे सामने रख दिया। कहा- “ ये रिश्ता आया है, परिवार भी अच्छा हैऔर लड़की भी समकक्ष पढ़ी-लिखी है”।

मैंने तस्वीर देखी “ गोरा रंग, सुतवां नाक, बड़ी-बड़ी आँखें दुबली पतली लड़की”।

मैंने बग़ैर कुछ जवाब दिये तस्वीर रख दी।

शाम को पापा ने डॉ वसुधा और डॉ मनीष को खाने पर बुला लिया था ताकि बहुत समय बाद सभी की एक मुलाक़ात हो जाए।

आते ही बोली डॉ वसुधा-“ वाह मेरे स्मार्ट तू तो और स्मार्ट हो गया रे विदेश में रह कर”

मैं मुस्कुरा दिया।

वे बोलीं-“अंकल अब फटाफट इसकी शादी कर दो किसी स्मार्टी से

“मैं तो बोल रहा हूँ पर ये हाँ तो करे” पापा ने ये बोलते हुए फ़ोटो और बायोडेटा डॉ वसुधा के हाथ में थमा दिया।

बायोडेटा और तस्वीर देख बोलीं-“ये हैं ना परफ़ेक्ट मैच, मेरे स्मार्ट की स्मार्टी।

अब मेरे पास ना कहने के लिये कुछ नहीं था।

मेरी नौकरी महानगर में थी, विवाह पश्चात मैं यहाँ आ गया।

पापा जब तक रहे मेरा आना-जाना बना रहा, उसके बाद भैया भी स्थानांतरित हो गए ।

घर , गृहस्थी, बच्चे,नौकरी में उलझने के बाद इस शहर में न के बराबर ही आना होता।

आज एक रिश्तेदार के यहाँ विवाह समारोह में आना हुआ और डॉ वसुधा से भी आत्मीय मुलाक़ात हुई । आत्मीयता देख कर बच्चों ने पूछा था कि पापा क्या रिश्ता है डॉ वसुधा से आपका?

और मेरे मुँह से निकला कुम्हार और घड़े का…..

जिस तरह कुम्हार कच्ची मिट्टी से कई घड़े बनाता है। वे घड़े कई घरों में शीतलता प्रदान करता है।हालाँकि घड़े की शीतलता का श्रेय कई लोग लेते है! जैसे बेचने वाला कहता है-“ एक बार ले जाइए साहब, पूरी गर्मी याद रखेंगे “। ख़रीद कर लानेवाला कहता है-“मैं चुन कर लाया”। पानी पिलाने वाला कहता है कि मैंने सही घड़े में से निकाल कर पानी पिलाया।इत्यादि इत्यादि………।लेकिन हर घड़े को यह पता होता है कि उसे किस कुम्हार ने बनाया है, उसकी शीतलता को गढ़ने में किसका हाथ है। कुम्हार घड़े बना कर याद नहीं रख पाता लेकिन घड़े के पूरे जीवन पर कुम्हार का प्रभाव होता है।

मैंने बच्चों को बताया कि कुछ ऐसा ही रिश्ता है मेरे और डॉ वसुधा के बीच जैसे घड़े और कुम्हार का।

स्वरचित 

सीमा पण्ड्या 

उज्जैन म.प्र.

#एक_रिश्ता

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