खुशहाल जीवन – कंचन श्रीवास्तव

अपना घर अपनों का ख्याल,यही तो किसी लड़की की स्त्री बनकर  कोरी कल्पना होती है,बढ़ती उम्र और निखरते यौवन के साथ ,एक लड़की कितना अच्छा सपना देखती है।जिसे सोचकर यदा कदा मुस्कुराती है तो कभी आइने में खुद को निहार कर लजा जाती है।

जिस पर सिर्फ और सिर्फ मां की नज़र पड़ जाती है,पड़े भी क्यों ना उफनती जवानी के साथ डरी सहमी सी ” कि कहीं ऊंचे नीचे न हो जाए के के भाव ” जो उसी के इर्दगिर्द घूमती है।

फिर भला कैसे न समझेगी , बेटी की इच्छा।आखिर वो भी तो इसी दौर से गुजरी है।

सुनैना को  अच्छे से याद है कि बढ़ती उम्र के साथ मां कदम कदम पर कैसे हिदायतें दिया करती थी।

उफ़!

कभी कभी तो वो झल्ला जाती ,पर तब शायद मुंह खोलने का चलन नहीं था सो बर्दाश्त कर गई।

और कोई चारा भी तो नहीं था।फिर शादी भी उन्ही की पसंद से करके घर बसा लिया, जो भी मिला अच्छा बुरा उसके साथ जीवन निर्वाह कर लिया।और आज उम्र के उस पड़ाव पर है जहां उसके मन का कुछ भी नहीं है।

फिर भी चेहरे पर मुस्कान सजाए रखती है।और सबके मन का काम भी करती है,  यह जानते हुए भी कि थोड़ी जिद्दी,थोड़ी सिर फिरी,और थोड़ी मूडी है।

ख्याल रखती है।

नहीं रखेंगे तो पैर फिसलते देर न लगेगी। पर समझ नहीं आ रहा क्या करें ,जैसा कि उसे रवीना के रंग ढंग से लग रहा कि वो थोड़ा बहक रही ,पर इसी के साथ उसे ये भी पता है कि दृढ़ संकल्पी भी है अपने पैरों पर खड़े होने का संकल्प ,उसके बहाते कदमों में बेड़ी का काम करेगा, जिंदगी का फैसला सोच समझ कर ही करेगी।




फिर भी।

पर कहें कैसे, अखबार के पन्ने पलटते हुए सोच ही रही थी कि बेटी ने अपने प्रिंसिपल बनने की खबर मां को सुनाई ,साथ ही जीवन साथी के चुनाव भी खुद कर लिया है कि भी चर्चा मां से की।

इस पर उसने मुस्कुराते हुए बधाई दिया साथ ही मिलाने की बात कही।

खैर सारे घर में खुशी का माहौल है सभी उसे सरकारी नौकरी की बधाइयां दे रहे ।पर मां को एक डर सता रहा कि यदि इसके पापा नहीं माने इस रिश्ते के लिए तो क्या होगा।

पर ये क्या उसकी समस्या का हल तो बिना किसी बात चीत के ही निकल गया।

रसोई में सबके लिए नाश्ता बनाती पत्नी से आकर जब रमेश ने  कहा- सुनो बेटी अब सैटल हो गई है तो सोचता हूं उसके हाथ भी पीले कर देने चाहिए।मैंने एक लड़का देखा है।पर समय बदल गया है अब बच्चे खुद से भी अपने जीवन साथी का चुनाव कर रहे , तो मैं अपनी बात कहूं इसके पहले उससे पूछ लो कहीं उसने देखा तो नहीं है।

ये सुन उसने  चैन की सांस ली कि उसकी समस्या बिना कहे ही हल हो गई।

फिर उसने नाश्ते की टेबल पर उसकी बात रखी तो वो मिलने की बात की तो लड़के से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की।

फिर एक समय निर्धारित करके मिले।




मिलते ही प्रभावित हो गए, एक सुलझा हुआ कौशल व्यक्तित्व वाला संस्कारी लड़का उनके सामने खड़ा पाया।

जिस स्कूल में उनकी बेटी प्रिंसिपल अप्वाइंट हुई ,वो वहीं पर पहले से अध्यापक है और कंपटीशन की तैयारी भी कर रहा ।

सच बहुत अच्छा लगा उससे मिलकर ,दोनों ने साथ बैठकर नाश्ता किया।

और थोड़ी मुलाकात के बाद अपने माता पिता से भी मिलवाने की बात कही।

ये देख सुनैना खुश हैं कि इन्होंने भी उसे स्वीकार लिया।

कुछ दिनों बाद दोनों परिवारों की सहमति से दोनों ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया।

सही ही है बदलते वक्त के साथ खुद को बदलो तभी  जीवन खुशहाल होता है वरना जीवन भर परेशान रहो।

जैसा कि इसके मां बाप ने किया।

कंचन श्रीवास्तव आरजू

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