काश तुम समझ पाते…-   मीनू झा

काश तुम समझ पाते…ये खुद को सांत्वना थी, स्वयं को धिक्कार था या फिर वो अफसोस था जिससे “सुंदर” उबर ही नहीं पा रहा था ??इन अनुत्तरित प्रश्नों से लड़ते लड़ते महीना भर होने को आया पर वो इनका जवाब नहीं ढूंढ पाया था।

 

क्या सोचते रहते हो दिनभर??—घर बाहर हर कोई यही सवाल करता था उससे…क्या बताता और कैसे बताता कि वो खुद लड़ रहा है अपने आप से,पर ना हारा है और ना जीत ही पाया है।

 

मात्र साल भर ही रही मां उसके पास लगातार…।उससे साल भर पहले जबतक पिताजी थे दोनों गांव में रहते,हफ्ते दस दिन को साथ आते साथ जाते..पर जब पिताजी नहीं रहे तो वो मां को साथ ले आया था…।

 

मिताली और मां के बीच छत्तीस का आंकड़ा था….बड़े ही बोझिल मन से लेकर आया था वो मां को अपने घर…

 

सच्चाई यही थी कि अगर सामाजिक और पारिवारिक दवाब ना होता तो शायद वो मां को गांव में ही छोड़ देता…ना मां की इच्छा थी कि वो जाए ना मिताली चाहती थी कि वो आए…पर मर्द को तो हमेशा पिसना ही पड़ता है मां और पत्नी के बीच में…यही सोच सोचकर खुद की नजर में असहाय बनता रहा वो तो।

काहे ले जावत है बिटवा हमका.. तोहार मेहरारू…

 




जानती हो ना मां कि वो थोड़े गर्म मिजाज की है तो उसके हिसाब से ही एडजस्ट क्यों नहीं कर लेती, पर नहीं सास हो ना बोलना कैसे छोड़ दोगी भला?? और ये तोहार मेहरारू क्या लगा रखा है…तुम्ही पसंद करके लाई थी ना उसे.. मैंने कोई लव मैरिज तो नही की है ना??

 

मां से उम्मीद थी कि वो कहेगी–मैं तो बाहर से देख कर ही लाई थी ना अंदर समझ पाऊं इतनी ताकत कहां!!

पर वो चुप्पी लगा गई…ऐसे भी पिताजी के साथ ही मानों मां की ठसक भी चली गई थी…ये महसूस करता था वो,पर स्वीकार नहीं करता था ।

 

मां फिर बिना सवाल जवाब किए साथ आ गई उसके…इस बार मिताली ने बजाय बच्चों के कमरे के मां की तख्त गेस्ट रूम में लगवा दी थी।

 

मां के हमेशा मंत्र जाप और बेमतलब के सवाल जवाब और टोका टाकी से बच्चे और उनकी पढ़ाई डिस्टर्ब हो जाती ना इसलिए गेस्टरूम में ही उनका इंतजाम कर दिया है–मिताली ने सफाई दी और एहसान का भाव भी जताया।

 

दीप और दीया दोनों की शुरूआती परवरिश मां के हाथों से ही हुई थी तो दोनों से मां का बड़ा लाड़ था..पर अब दोनों बड़े होते बच्चे भी खुद में मगन रहते और जब उनकी मां के लिए ही वो उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी तो बच्चे भला अपनी अलग सोच क्या रख पाते। दादी के आसपास भी ना फटकते दोनों।

 

रूम में ही खाना नाश्ता चाय और पानी भिजवा कर मिताली ने उन्हें घर के काम तक से मुक्त कर रखा था…मगर वो क्यों नहीं देख पाया कि मां उस दस बाय बारह के कमरे में कैद होकर रह गई है…।

दो तीन महीने बाद उसने पूछा था मां से —कोई तकलीफ़ तो नहीं है ना मां…ठीक हो ना??

 

हां ठीक हूं—इतना पूछते ही कभी फट पड़ने वाली मां अब संक्षिप्त सा जवाब देने लगी थी।

 

पिताजी के फोन को हमेशा अपने बिस्तर के पास वाले टेबल पर सजा कर रखती…कभी अपनी बहनों, भाईयों और सहेलियों से घंटों बतियाने वाली मां अब उसे सिर्फ समय और पिताजी की फोटो देखने के लिए ही उठाती थी।

 




फोन नहीं आता आजकल मां के फोन पर किसी का,बात करती नहीं दिखती —सुंदर ने एक दिन मिताली से पूछा।

 

करती तो होंगी ही..धीरे धीरे करती होंगी। एक दिन दीया के ट्यूटर यहीं हाॅल में बैठकर पढा रहे थे और मां किसी से जोर जोर से बात कर रही थी तो दीया ने उन्हें कह दिया था–दादी बात धीरे करो ना, लाउडस्पीकर क्यों बजा रही हो…।आजकल देखती हूं छोटी मोटी बातें भी बुरी लग जाती है उन्हें …पर बच्चे की बात पर क्या नाराज़गी। तबसे बात करती होंगी तो शायद धीरे धीरे करती होंगी…।

 

एक दिन सुंदर कुछ किताबें और पत्रिकाएं ले आया था सोचकर कि मां कितनी खुश होती थीं नई नई किताबें देखकर…शायद उनके चेहरे पर वही खुशी दिख जाए…।

 

मां लो ये किताबें और पत्रिकाएं…पढना मन लग जाएगा।

 

एक महीन सी मुस्कुराहट देकर मां ने वो किताबें अपने सिरहाने रख लीं…सुंदर थोड़ा सा चिढ़ भी गया कि वो कितनी मेहनत से चुनकर लाया था ये किताबें और मां को कदर भी नहीं…।

 

बेकार लाए किताबें…सुबह से दस बजे तक अपने नि‌त्यकर्म निपटाती है फिर जबतक बच्चे नहीं आते स्कूल से टीवी देखती है,फिर खाकर सो जाती है,शाम में पता नहीं बाहर बालकनी में बैठकर बजाय दुनिया देखने के एक पुरानी सी डायरी में कुछ लिखती रहती है…एक दिन मैं गई तो झट से बंद कर ली अपनी डायरी…क्या लिखतीं होगी भला…हम सबकी शिकायतें और क्या???—मिताली ने किताब पर फालतू के खर्चे के लिए अफसोस जताया।

खैर,सुंदर ने उस दिन तो ध्यान नहीं दिया…पर जब छह से आठ महीने बीतते बीतते मां बिल्कुल कमजोर और असमर्थ सी दिखने लगी तो वो उन्हें डाॅक्टर के पास ले गया।

 

इनकी आंखों की रोशनी ,सुनने और समझने बुझने की शक्ति बहुत कम हो गई है…शायद कोई शाॅक या डिप्रेशन है इनके अंदर…–डाॅक्टर ने एक्जामीन करके कहा

 

वो पिताजी आठ नौ महीने पहले चल बसे थे तब से ये परेशान रहने लगी है वरना पहले तो खुब हंसती बोलती थी।

 

शाॅक की स्थिति में ये सब आम बात है…आपने इन्हें इस स्थिति से निकालने के लिए क्या क्या किया…आई मीन इन्हें बाहर घुमाना फिराना,जगह बदलना, पारिवारिक खुशनुमा माहौल देना,हंसने बोलने का दायरा बनाना??

 

क्या कहता सुंदर…उसने तो मां को अपने घर लाकर एक नौकर मिताली की मदद के लिए एक्स्ट्रा रखकर और तो कुछ किया ही नहीं था….उसे लगता इस उम्र की जरूरतें तो खाना,मनोरंजन और भगवान का नाम जपना है,सब कर ही रही है मां, बीपी शुगर जैसी कोई बीमारी भी नहीं है मां को !!तो मुझे लगा थोड़ी बहुत परेशानी तो उम्र का भी असर होती है।




 

पर….मां गेस्टरूम में कैसे रहीं,बहू पोता पोती के होते हुए कितने अकेलेपन से गुजरी,वो फोन पर बात करने के लिए डांट सुनना, कब उनकी कान कमजोर हुई, किताब पत्रिका लाकर उसने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, एकबार दोबारा पूछा तक नहीं कि कहां तक पढ़ी..कैसे पढ़ती आंखें ही बेकार हो रही थी…शायद रोती रहती होंगी चुपके चुपके…।

 

इतना कुछ हो गया और वो कुछ नहीं जान पाया समझ पाया..जाने और क्या क्या हो उसके दिल में सोचकर सुंदर मां की वो पुरानी डायरी ढूंढने लगा जिसमें मां के लिखने की बात मिताली ने कही थी उससे।

ये तो वही डायरी है जो उसने मां को दी थी अपनी पाॅकेट मनी से उनके जन्मदिन में, पर इसमें तो मिताली कहती थी मां रोज लिखा करती थी…पर इसके तो सारे पन्ने खाली है…बस… अंतिम पन्ने पर लिखा है….काश तुम समझ पाते…।

 

ये देखने और डाक्टर की बातें सुनने के बाद ,फिर तो मां की सेवा करने में उसने दिन रात एक कर दिया…पर मां की उस संतुष्टि भरी मुस्कान के अलावा कुछ भी वापस नहीं ला पाया….ना वो काया,ना आंखें ना कान…कुछ कुछ बोलने जरूर लगी थी अब…।

 

सुंदर….मां मन साफ कर के जा रही है बेटा…तू हमेशा खुश रहना—जाने से पहले वाली रात को बोल गई थी मां।

 

पर महीना होने को आया….काश तुम समझ पाते उसका पीछा नहीं छोड़ रहा….।उसका भी मन करता चिल्लाकर कहे… एकबार कान पकड़ के तुम्हीं समझा लेती ना मां जाने क्यों दिया।

 

पापा…आप बहुत उदास रहते हो ना आजकल अच्छा नहीं लगता…चलो ना बाहर चलते हैं घुमने—आज दीया ने आकर प्यार से कहा बालकनी में बैठे सुंदर से…।

 

चला जा ना बेटा…. मैं तो अपना मन साफ करके गई हूं…तू भी साफ कर लें..अपना और सबका ख्याल रखना है तुझे—लगा बगल में बैठकर मां समझा रही हो।

 

पिता की तरफ से कोई जवाब ना पाकर दीया वापस जाने लगी…।

 

बेटा…. मम्मा और भैया से भी कहो तैयार हो जाएं हम बाहर चल रहे हैं —

 

अब आगे उसे “काश तुम समझ पाते ” के दंश से नहीं गुजरना है,अपने तो वहीं है ना जिन्हें हर बात कहनी न पड़े वो हर वो बात भी समझ लें जो कही जा सकती भी ना हो….सुंदर ने गहरी सांस लेते हुए अपने आपको समझाया।

मां शायद तब भी  यही समझाना चाहती थी,अभी भी यही समझाना चाहती है।

#अपने_तो_अपने_होते_हैं

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