काश तुम लौट आती – मीनाक्षी सिंह 

श्याम लाल की पत्नी का हाल ही में स्वर्गवास हो गया ! उनके मन की व्यथा वो कुछ इस तरह बयां कर रहे हैँ !

कितना अच्छा होता मधू कि तुम देख पाती तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे बहू बेटे कितना बिलखकर रो रहे हैँ ! कहती थी कोई नहीं रोयेगा तुम्हारे सिवा ! सब मेरी टी बी की बिमारी से परेशान हो गए हैँ ! तुम्हारी बेटी भी अमेरिका से आ गयी हैँ ! उसे भी समय मिल गया अब तुम्हे देखने का ! जीते जी तो कहती रही आऊंगी समय मिलते ही ! अब उसे भी समय मिल गया ! दामाद जी और तुम्हारे नन्हे सोन चिरौटे गोलू ,रिंकी भी आये हैँ ! सब चीख रहे हैँ ! तुम्हे पुकार रहे हैँ ,,आ जाओ ना नानी ! क्यूँ नहीं उठ रही ! मेरे लिए ना सही उनके लिए ही उठ जाओ मधू ,,बनाओ उनके लिए गाजर का हलवा  ,,घी के लड्डू ! कब से घी ज़मा कर रही थी उनके लिए ! मुझे भी नहीं देती थी ज्यादा कि कम पड़ जायेगा बच्चों के लिए ! सब कुछ सूना कर गयी हो तुम मधू !

कितना अच्छा होता ना कि जब तुम मरती और तुम्हारी बहुएं तुम्हें नहलाने के बाद तुम्हे साड़ी पहना कर तैयार कर रही होती और पंडित मुझे बुलाता की आखिरी बार इनकी मांग में सिंदूर भरिये और मैं सफेद धोती पहने मोटा पावर वाला चश्मा ठीक करते हुए लाठी टेकता तुम तक आता …….और फिर काँपते हाथों से जब मैं ये काम कर रहा होता तो कुछ सिदुंर छिटक कर चेहरे

पर बिखर जाता !!

..मैं याद करता कि तुम कहा करती थी कि नाक पर सिन्दूर गिरना शुभ होता है

पर चेहरे पर गिरा….कुछ ज्यादा शुभ हो गया….साँस खींच कर सोचता कि ये शुभ होना मुझे कभी नहीं रास आया और अशुभ होना तुम्हे!!

रिश्तों की तसल्लियों के बीच तुम्हारा होना अभी भी महसूस होता है,,,

आज सुबह ही जब बहु ने चाय के लिए आवाज दी तो फिर कुछ खाली सा हो गया,,,




जाना हमेशा से टीस दे कर जाता है,,, आज 12 दिन बाद वो टीस और तेज होती जा रही है,,,।

बात बेबात खिलखिलाती थी ,,जाने की बात पर चुप हो कहती

लौटूँगी मैं  बेनूर रातों के सपनों  की मौन दस्तानों में बस तुम

आँखों में उम्मीद  रखना मिलूँगी फिर पकी शाख़ों से छनती धूप की तरह  कहाँ ढूँढूँ उसे अब ये मौसमों के लिबास भी अब नहीं बदलते वादे हो गए सारे अपाहिज यहाँ पर बारिशें अब बहुत हैं उसकी तस्वीर बनवाई है किसी से। मोटे चश्मे से कहाँ दिखता है अब मुझे।  इसमें भी तुम खिलखिला कर हँस रही हो, रात की रानी सी महक रही हो।  मैं आज भी इसे तकिये के नीचे रख के सोता हूँ।

और रोज़ सुबह अपनी अँगूठी में सिंदूर पिरो कर तुम्हारी माँग भरता हूँ। ये सिंदूर अब भी वफादारी करता है, नाक पर गिर जाता है, तस्वीर में भी। और तुम्हारी वो खिलखिलाती हुई मुस्कुरहाट मुझे रुला जाती  हैँ !

मैने तुम्हारी तस्वीर पर  माला भी नहीं डाली हैँ ! सबने बहुत कहा ! पर मेरा मन ऐसा करने को राजी नहीं हुआ ! तुम्हारी तस्वीर पर माला देखता तो उठते ही धक्का लगता कि क्या तुम सच में चली गयी हो ! अभी भी महसूस करता हूँ तुम्हे कमरे की कुरसी पर ,तुम्हारी चारपाई पर ! और हाँ अब मैं बेड के उस मखमली गद्दे पर नहीं सोता ! सोता हूँ तुम्हारी उस टूटी चारपाई पर ! अभी भी तुम्हारे तेल की खुशबू उसमे आती हैँ !!

काश तुम लौट आती तो देखती तुम्हारी याद में बस सांसे चल रही हैँ ! आत्मा तो कबकी तुम्हारे साथ जा चुकी है ..मुझे भी बुला लो मधू ! एक एक दिन सालों सा बीत रहा हैँ तुम्हारे बिना !! तुम्हारा वो गीत गुनगुनाता  रहता हूँ अकेले में  —

तेरा  साथ है तो मुझे क्या कमी हैँ ,,सितारों से भी आ रही रोशनी हैँ !

अब सिर्फ  अंधेरा नजर आता  हैँ मधू !!

मीनाक्षी सिंह की कलम से

आगरा

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