Moral stories in hindi : आज बहुत दिनों के बाद अमृता के मन में गहन शांति थी। इतने दिनों से इसके मन में पीहू को लेकर जो कसमकश चल रही थी उस पर विराम लग गया था। वैसे भी पीहू कोई गैर तो नहीं थी उसकी दिवंगत सगी ननद दिव्या की बेटी थी।अब अमृता और उसके पति सुधाकर ने पीहू को कानूनी तौर पर अपनाने का फैसला लेकर अमृता को फिर से मां बनने का अधिकार दे दिया।
कल पीहू को अपनाने की सारी कार्यवाही पूरी हो जायेगी। आज की रात जहां अमृता को सुकून दे रही थी वहीं उसको अतीत के उन गलियारों में भी ले जा रही थी जिनसे उसने हमेशा बचना चाहा है।ना चाहते भी उसे बीते हुए कल की सारी बात याद आ गई।
वो उन दिनों में पहुंच गई जब आज से लगभग बीस वर्ष पूर्व वो इस घर में सुधाकर की दुल्हन बन कर आई थी। सुधाकर बैंक में मैनेजर थे। छोटा सा परिवार था। घर में सुधाकर के अलावा उनके माता-पिता और उनसे दस वर्ष छोटी बहन दिव्या थी। माता-पिता को सुधाकर और उनका परिवार भा गया था।
इस रिश्ते के लिए अमृता की मौन स्वीकृति समझ चट मंगनी पट विवाह की तर्ज़ पर शादी कर दी गई थी। अमृता ने उस समय कॉलेज पूरा किया ही था। स्वभाव से वो बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं थी पर घर के कामों में निपुण और काफ़ी समझदार थी। जब वो विवाह करके इस घर में आई थी तब मात्र बाइस साल की थी और सुधाकर पच्चीस साल के थे।
मायके का माहौल ऐसा था कि उसके दिल में ससुराल के लिए कोई भी नकरात्मक विचार ना था। उसको लगा था कि सास-ससुर के रूप में उसको माता-पिता और ननद के रूप में छोटी बहन मिल जायेगी।
पर यहां आकर देखा तो उसकी सोच से उलट ही माहौल था। वैसे भी कहते हैं ना कि हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती ऐसा ही कुछ अमृता की ससुराल का हाल था। सुधाकर अपने काम में व्यस्त रहते थे और ससुर जी की भी रिटायरमेंट में अभी काफ़ी समय बाकी था।
घर पर सासू मां का एकछत्र राज्य था जिसमें वो और उनकी बेटी किसी का भी हस्तक्षेप नहीं चाहती थी। सुधाकर से दस वर्ष उपरांत पैदा होने की वजह से वो काफ़ी ज़िद्दी और नकचढ़ी थी। घर में अमृता का आना और उसका सुधाकर के साथ हंसी के दो बोल बोलना तक दिव्या को रास नहीं आता था।
वैसे भी अगर इसके खाना बनाने में या घर के काम में कुछ कमी हो जाती तो सासू मां सारा घर सर पर उठा लेती और मायके से कुछ ना सीख कर आने का ताने विभिन्न तरीके से सुसज्जित कर उसका दिल दुखाने से ना चूकती। इधर दिव्या अमृता के मेकअप से लेकर नए नए कपड़ों को बिना पूछे बेकद्री से उपयोग में लाती।
कभी अमृता कुछ कह देती तो उस एक बात में चार लगाकर सुधाकर के सामने परोसती। अमृता के लिए सब कुछ बहुत असहनीय हो रहा था। वो तो सुधाकर का व्यवहार उसके प्रति काफ़ी प्रेमपूर्ण था साथ-साथ ससुर जी भी उसको बेटी की तरह मान देते थे,नहीं तो उन लोगों के पीछे तो वो दो बोल प्यार के लिए भी तरसती थी। बाहर वालों के सामने उसकी सास इतना मीठा बोलती थी कि कोई अमृता के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
दिन बीत रहे थे अमृता गर्भवती थी वो अपनी पहली संतान को जन्म देने वाली थी जहां उसको बहुत प्यार और देखभाल की जरूरत थी वहीं सास और ननद का व्यवहार उसका दिल दुखा जाता। उसकी गोद भराई की रस्म थी। इसके मां ने बड़े प्यार से वर्षो से संजोए बहुत ही सुंदर झुमके बाकी सब सामान के साथ अमृता को दिए थे।
अमृता को बचपन से ही वो झुमके बहुत पसंद थे। सभी मेहमानों के जाने के बाद दिव्या ने वो झुमके उठा लिए और कहा कि ये मेरे को पसन्द आ रहे हैं इनको मैं ही रखूंगी। अमृता ने उसको बहुत समझाने की कोशिश की यहां तक कहा कि वो और कुछ भी ले सकती है पर वो टस से मस नहीं हुई।
सास ने भी अमृता की भावना को ना समझते हुए दिव्या का ही साथ दिया। सुधाकर ने भी अमृता की तरफ से बोलना चाहा तो सास ने उनको भी चुप करा दिया। सास ने अमृता को बहू के कर्तव्य याद दिलाते हुए वो झुमके दिव्या को दिला दिए। बेटे के जन्म के बाद भी चालीस दिन के जापे में दोनों सास-ननद ने अमृता को बहुत तंग किया।
इस तरह अमृता के दिल पर ना मिटने वाली कई सारी खरोंच लग चुकी थी।वो तो गनीमत रही कि बेटे के एक साल होते होते सुधाकर का ट्रांसफर दूसरे शहर हो गया और वो अपने एक साल के बेटे को लेकर अपनी नई दुनिया बसाने आ गई। यहां आकर उसको कलहपूर्ण वातावरण से छुटकारा मिल गया।
दो साल बाद प्यारी सी बेटी भी उसकी गोद में आ गई। उसने अपनी सास और ननद से कोई अपेक्षा ना रखते हुए सुधाकर का साथ और वहां पर उपलब्ध कामवाली बाई की मदद से इस बार सही मायने में गर्भावस्था के सुंदर समय को बिताया था।
समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। देखते- देखते पांच-छः वर्ष बीत गए अब अच्छा घर देखकर दिव्या की भी शादी कर दी गई। शादी में भी सुधाकर और अमृता ने बड़े भाई-भाभी के सभी कर्तव्य अच्छे से निभाए वो अलग बात थी कि इतने समय के बाद भी अमृता को घर की बहू के अधिकार प्राप्त नहीं थे।
शादी के बाद भी दिव्या और सासू मां के व्यवहार में अमृता के प्रति कोई बदलाव नहीं था। बस इतना जरूर था अब दिव्या अपनी ससुराल में व्यस्त हो गई थी और एक बेटी की मां भी बन गई थी। सासू मां की भी उम्र हो चली थी अब स्वास्थ्य पहले जैसा साथ नहीं देता था। ससुर जी भी सेवा निवृत हो गए थे तब जबरदस्ती जाकर सुधाकर उन दोनों को अपने साथ ले आए थे।
बच्चे भी बड़े हो रहे थे। अमृता ने पिछली बातों में दिमाग ना लगाने की जगह घर और बच्चों की देखभाल के साथ साथ पेंटिंग्स के रंगों और ब्रश के साथ दोस्ती कर ली थी। पर कहते हैं ना कि समय की गति अभेद होती है,हम अचार भले ही सालों के लिए डाल लें लेकिन पता हमें अगले पल का भी नहीं होता है।
ऐसे ही पूरे विश्व में करोना रूपी महामारी ने अपना जाल बिछा दिया था। पूरे देश में लॉकडाउन लग गया था। पहली लहर तो किसी तरह निकल गई थी पर दूसरी लहर में काफ़ी परिवारों ने अपने लोगों को खो दिया था। एक छोटे से वायरस के आगे बड़े से बड़े डॉक्टर और वैज्ञानिक भी असमर्थ थे। बहुत भयावह समय था। इसी बीमारी की दूसरी लहर की चपेट में दिव्या और इसके पति भी आ गए थे।
दोनों पति-पत्नी चार पांच दिन के अंतराल पर काल गलवित हो गए थे पीछे मासूम सी बच्ची पीहू को अकेली रह गई थी। पीहू मुश्किल से नौ-दस साल की होगी। वो तो एक सहृदय पड़ोसी परिवार में पीहू को अपने यहां शरण दी हुई थी। उन्होंने ही किसी तरह से सुधाकर को फोन करके सारी स्थिति से अवगत कराया था।
अपनी इकलौती छोटी बहन और बहनोई का इस तरह से जाना सुधाकर के लिए हृदय विदारक था। अमृता के सास- ससुर की तो मानों किसी ने दुनिया ही छीन ली थी। जो भी उस छोटी सी बच्ची का सुनता तो कलेजा मुंह को आता। दिव्या के ससुराल में उसके जेठ और देवर ने अपनी जिम्मादारियों के चलते पीहू को अपने पास रखने से मना कर दिया था।
यहां अमृता भी दिव्या और सास के कहे हुए जहरीले शब्दबाण को भूल नहीं पाई थी। उसने कहा जिस घर में आजतक उसे बहू होने का अधिकार ना मिला हो वो उस घर की नाती को कैसे अपना सकती है? वो भी पीहू को अपने पास रखने को तैयार नहीं थी पर सुधाकर की अश्रुपूरित आंखें और ससुर जी की मौन याचना ने उसे चुप्पी साधने पर विवश कर दिया।
सुधाकर जाकर अपने साथ मासूम सी पीहू को ले आए। कहते हैं पीड़ा सबसे बड़ी शिक्षक होती है। वो लड़की पहले भी अपने मामा मामी के यहां आई थी पर तब और आज की पीहू में ज़मीन-आसमान का अंतर था। वो बहुत सहमी सी लग रही थी। उसकी हालत देखकर अमृता का दिल भर आया फिर भी उसने पीहू के प्रति अपने जज्बातों पर नियंत्रण रखा। कुछ दिनों बाद पीहू का एडमिशन भी बेटे और बेटी के साथ उनके स्कूल में करवा दिया गया। वैसे भी इस बार बेटी का दसवीं और बेटे का बारहवीं की परीक्षा थी।
थोड़े समय बाद जब बीमारी पर थोड़ा नियंत्रण हुआ तो स्कूल भी खुल गए। तीनों बच्चे एक साथ स्कूल जाते और आते। बच्चों के स्कूल आने पर अमृता अपने दोनों बच्चों को गले से लगाती पर पीहू को देखकर जैसे पत्थर हो जाती।वो बच्ची भी पता नहीं जैसे सब कुछ जान रही थी।
बिना कुछ कहे कपड़े बदलकर आ जाती और दोनों भाई-बहन के साथ खाने बैठ जाती। कई बार अमृता महसूस करती कि पीहू ने ज़िद करना, अपनी पसंद और नापसंद बताना तो जैसे छोड़ ही दिया था। पढ़ाई में भी कुछ समझ नहीं आता तो दोनों भाई बहन या सुधाकर से पूछ लेती पर किसी को भी तंग नहीं करती थी। कभी अमृता पेंटिंग भी बना रही होती तो चुपचाप अपनी ड्राइंग की कॉपी और कलर्स लेकर बैठ जाती। खूब ध्यान से अमृता के रंग संयोजन और ब्रश चलाना देखती।
एक दिन सुधाकर को बैंक के कार्य के चलते दो-तीन दिन के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा। सासू मां और ससुर जी को भी किसी पारिवारिक आयोजन में हिस्सा लेने गांव जाना पड़ा। घर पर अमृता और तीनों बच्चे ही थे। आज अमृता की तबियत कुछ ठीक नहीं थी। उसका सारा शरीर दर्द से टूट रहा था।
उसने दोनों बच्चों से भी कहा पर दोनों ही उसको दवाई खाने और आराम करने की नसीहत देकर अपनी दोस्तों के घर पार्टी करने चले गए। घर पर सिर्फ अमृता और पीहू रह गए। अमृता का बुखार जब थोड़ा बढ़ा तो वो जाकर लेट गई। वो हल्की सी बेहोशी की अवस्था में थी।
ऐसे में पीहू ने बर्फ के पानी की पट्टी तैयार की और तब तक उसके पट्टी करती रही जब तक उसका बुखार कम नहीं हुआ। जब बुखार कम होने पर उसकी अवस्था में थोड़ा आराम आया तो उसे भूख लग रही थी।ऐसे में पीहू ने अमृता के लिए चाय बनाई और ब्रेड के दो पीस हल्के से सेक कर ले आई।
ऐसे में यही चाय और ब्रेड अमृता को किसी अमृत से कम नहीं लग रहे थे। अब अमृता को अपनी हालत में थोड़ा सुधार लग रहा था वो सोचने लगी दोनों बच्चे तो फिर भी अपने दोस्तों के यहां खा पीकर आ जायेंगे पर पीहू भी तो भूखी होगी। वो जैसे ही उठने लगी तब पीहू ने उसको उठने नहीं दिया। उसके बिना बोले ही कहा मामी मेरे को मैगी बनानी आती है।
मैं अपने लिए और आपके लिए बना लूंगी। आप आराम कीजिए। ऐसा कहकर मैगी बनाकर ले आई और दोनों ने एक साथ बैठकर वो खाई। आज अमृता के दिल में पीहू के लिए जो दीवार थी वो कहीं ना कहीं पिघल रही थी। आज पीहू ने उसके कोखजाए बच्चों से भी ज्यादा उसका ख्याल रखा था।
दवाई लेने के बाद उसकी कुछ देर के लिए आंख लगी तब भी पीहू उसका सिर दबाती रही। अगले दिन तक वो पूरी तरह मन और तन दोनों से स्वस्थ थी। कुछ दिन बाद पीहू के स्कूल मीटिंग थी।हमेशा तो कुछ भी होता था तो सुधाकर ही जाते थे पर इस बार अमृता भी गई। अमृता ने भी बहुत दिनों पीहू के चेहरे पर मुस्कान देखी थी।
जब अमृता पीहू की टीचर्स से मिली तो सबने पीहू की बहुत प्रशंसा की। ड्राइंग वाली टीचर ने तो यहां तक कहा कि ये बहुत अच्छी चित्रकारी करती है और कहती है कि ये सब इसने अपनी मामी से सीखा है।घर आते ही अमृता ने पीहू को अपने गले से लगा लिया और फूटफूट कर रोने लगी।
अब तक जो भी आवेग उसके हृदय में दबा था वो सब आंसू के रूप में बाहर निकल आया। इन आंसुओं से उसके मन में छिपे सारे पुराने गुब्बारों को धो दिया था। वो तो जाने कब तक रोती पर पीहू ने उसके आंसू पोंछते हुए जब उसे बोला कि कितना रोती हो मां? तब बरबस ही उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई।
सासू मां तो पहले ही अपने किए पर पछतावे की आग में जल रही थी। उन्होने भी अपने किए पर अमृता से हाथ जोड़ माफ़ी मांगी। अब सबके सामने अमृता ने कानूनन पीहू को अपनाने की बात कही। सुधाकर और पूरे परिवार की इसमें सहमति थी।अमृता की सास ने तो यहां तक कहा कि चूंकि पीहू का स्कूल में नाम धरा है अब से इसका पूरा नाम धरा अमृता सिंघानिया होगा क्योंकि ये अब अमृता की ही तो कलाकृति है।
इसके मासूम बचपन को अमृता ने ही पुनः आबाद किया है। वैसे भी सदियों से हमारे यहां पालने वाले का अधिकार जन्म देने वाले से ज़्यादा रहा है। उनकी ऐसी बातें सुनकर सब ताली बजाने लगे। वैसे भी अमृता के दोनों बच्चों के लिए तो पीहू एक प्यारा खिलौना थी जिस पर वो जान छिड़कते थे।आज पूरा परिवार बहुत खुश था।
सुधाकर के दिल में अमृता के लिए इज्ज़त कई गुना और भी बढ़ गई थी। वो ये सब सोच ही रही थी कि इतने में घड़ी ने सुबह का अलार्म बजा दिया। रात भर ना सोने के बाद भी वो पूरी तरह तरोताज़ा थी क्योंकि आज पीहू मतलब धरा अमृता सिंघानिया कानूनन उसकी हो जायेगी।
दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी?समय का पहिया कब घूम जाए पता नहीं चलता,कुछ बंधन कुदरत ने पहले से तय किए होते हैं। ये बात भी सौ प्रतिशत सही है कि जन्म देने से ज्यादा अधिकार पालने वाले का होता है क्योंकि बच्चे तो कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। उन्हें सुंदर कलाकृति का रूप देने में पालनपोषण की बहुत बड़ी भूमिका होती है।
डॉ पारुल अग्रवाल,
नोएडा
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