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कैसे कहें – अमित किशोर 

ज्योति ने  अभिनव से  लव मैरिज किया था। जानती थी कि “लव”  करना जितना आसान था उतना ही मुश्किल था “लव मैरिज”  करना और उससे भी मुश्किल था  लव मैरिज को निभा देना। फिर भी अभिनव के विश्वास ने ज्योति के विश्वास को कभी कमजोर होने नहीं दिया। जब भी आने वाली चुनौतियों पर दोनों के बीच चर्चा होती अभिनव बस यही कहकर उसे चुप करा देता, ” डरती क्यों हो तुम !! मैं हूं ना ……”

अभिनव और ज्योति की मुलाकात एक साथ काम करते हुए हुई थी। पहली नजर का प्यार था और वो भी दोनों का ही एक दूसरे के लिए। तीखे नैन नक्श वाली गोरी चिट्टी ज्योति ने टॉल डार्क और हैंडसम अभिनव को पसंद कर कोई गलती नहीं की थी। पूरा ऑफिस जानता था कि दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हुए हैं। साथ घूमना, एक ही साथ एक ही प्रोजेक्ट पर काम करना, पता ही नहीं चला दोनों को कि इस रिलेशनशिप को तीन साल कैसे हो गए !!! टिपिकल टाइपकास्टेड बॉलीवुड वाला प्यार  सबके आंखों के सामने ही था। बस एक ही समस्या थी। दोनों अलग अलग जाति के थे जहां आगे चलकर दोनों परिवारों को समस्या आने वाली थी। ज्योति का परिवार आजाद ख्यालों वाला था पर उनकी भी प्राथमिकता यही थी कि बेटी की डोली सजातीय के घर जाए। हालांकि, ज्योति की परवरिश आधुनिकता के तले हुई फिर भी उसके मन में  शादी को लेकर संकोच हमेशा ही रहा। ठीक इसके उलट, अभिनव का परिवार बहुत ज्यादा रूढ़िवादी था और ऊपर से अभिनव घर का सबसे बड़ा बेटा था। बहुत सी समस्याएं आने वाली थी पर अभिनव का ज्योति से बस ये कह देना कि ” डरती क्यों हो तुम !! मैं हूं ना ……” उसके सारी आशंकाओं पर लगा हुआ मरहम था।

जब ज्योति और अभिनव ने आखिरकार फैसला किया कि उन्हें शादी कर लेनी चाहिए तब अभिनव का असल संघर्ष शुरू हुआ। मैं हूं ना, मैं हूं ना…. कहते कहते उसे साकार करने का वक्त था। पर काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार अभिनव अपने घरवालों को मनाने में सफल रहा। उसके पापा रमेश जी तो बहुत समझदार थें। बत्तीस साल नौकरी की थी सरकारी विभाग में तो दुनियादारी का बहुत अनुभव था। अभिनव की बातों से ही समझ गए कि इसे ठंडे दिमाग से नहीं संभाला गया तो नतीजे बहुत मुश्किल में डाल सकते थें। पर अभिनव की मां नीरजा जी नहीं मान रही थी। एक सवाल किया अपने बेटे अभिनव से, ” तुम घर के बड़े हो, और, अगर तुम ही ऐसा करोगे तो बाकी अभिजीत क्या सीखेगा तुमसे ? समाज क्या कहेगा, यही न, कि हम तुम्हारे लिए अपनी बिरादरी में एक लड़की ढूंढ न सके, तभी तुम्हें दूसरी जाति की लड़की खोजनी पड़ी। और ये लव मैरिज होता क्या है ? जिस दिन बुखार उतरेगा न, मेरी यही बातें याद आएंगी।” अभिनव दुलारा था नीरजा जी का तो मान मनाते मानते आखिरकार नीरजा जी मान ही गई। अक्सर माता पिता को बच्चों के सामने झुककर वक्त के साथ थोड़ा बदलना पड़ता ही है।




शादी हो गई और ज्योति अभिनव के घर की बड़ी बहू बन गई। अभिनव के पिता को हमेशा ही अपनी बहु की शिक्षा और नौकरी पर गर्व था और ये बात वो सबके सामने जोर शोर से बताया भी करते। “एम टेक इंजीनियर है मेरी बहु और थ्रू आउट फर्स्ट डिवीजन रही है। हाथ पे दीया लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलती ऐसी दुल्हन अभिनव के लिए।” और इधर मन मसोसकर रह जाती नीरजा जी। मन में एक व्याधि थी, भ्रांति सी थी। कामकाजी बहु कैसे संभालेगी घर ? आज हम हैं, कल हमारे न रहने पर बाकी देवर देवरानियों को कैसे संभालेगी। इसका तो मन नौकरी में लगा रहेगा घर के लिए फुरसत कहां होगी ? अक्सर शिकायत करती अपने बेटे से पर अभिनव भी था जिद्दी, हंसते हुए कहता, मां क्यों चिंता करती हो, मैं हूं ना !!!

इसी तरह शादी के कई साल बीत गए और दोनों ने अभी तक रमेश जी और नीरजा जी को  दादा दादी बनने का सुख नहीं दिया था। अक्सर होली और दशहरे में अभिनव और ज्योति का घर आना जाना होता। एक तो अपनी बहु से पहले से ही नाराज थी नीरजा जी और ऊपर से घर वीरान सा था बिना पोता पोती के किलकारियों से। जब भी ज्योति आती, नीरजा जी ताना देती उसे, ” इतने साल हो गए, फिर भी तुम घर के काम नहीं सीख पाई। पता है मुझे, मुंबई में, तुम दोनों का जीवन मेड के सहारे ही चलता है पर कभी तो जिम्मेवारी लाओ खुद में, दुल्हन। मेड जिंदगी भर साथ नहीं देगी। अगले साल अभिजीत की भी शादी होगी। कम से कम बड़ी हो, तो, बड़ी होने की ही जिम्मेवारी निभाओ।” ज्योति कुछ जवाब नहीं देती बस मुस्कुराकर अभिनव की तरफ देखती जैसे कह रही हो। इसी का डर था मुझे। इतना आसान नहीं है एडजस्टमेंट। संघर्ष है ये, जो पल पल करना पड़ रहा है। पर इन सब पर अभिनव भी बिना कुछ कहे मुस्कुरा देता। एक बार तो सास बहू की इस रस्साकसी ने इतना बेकार रूप ले लिया कि नीरजा जी को कहना पड़ा, ” जब मैं मरूं, तो मेरी लाश को तुम मत छूना, दुल्हन “

मई का महीना था। जोरों की गर्मी थी भोपाल में। इतनी की कहीं आना जाना दूभर था। अचानक से नीरजा जी की तबियत बिगड़ी। डॉक्टरों ने इसे लू का असर बताया। तबियत संभलने का नाम नहीं ले रहा था। अभिजीत भी नौकरी पर लखनऊ में था। घर पर रमेशजी और नीरजा जी ही अकेले थे। हालत में कोई सुधार न देख रमेश जी ने ज्योति को फोन किया और बोले, ” बेटा, तुम्हारी सास की तबियत बहुत खराब चल रही है। कोई दवा या डॉक्टर का इलाज काम नहीं आ रहा। मैं चाहता हूं कि इसे कहीं बड़े जगह डॉक्टर से दिखाऊं। मुझे पता है, तुम्हारे पास समय की कमी है और अभिनव भी बिजी है फिर भी सोचा एक बार तुमसे बात करूं इस बारे में। ज्योति ने जवाब दिया, ” पापा, इतनी बड़ी बात हो गई और आपने बताया नहीं। अभिनव को पता चलेगा तो मुझे वो पक्का डांटेंगे कि मैंने खोज खबर कैसे नहीं ली। मैं अभी रिजर्वेशन करवाती हूं आप मां को लेकर सीधे मुंबई आ जाइए। यहां अच्छे डॉक्टर से दिखलाते हैं। रमेशजी को लगा जैसे ज्योति नहीं अभिनव ने उन दोनों को अपने पास बुला लिया। नीरजा जी को बिना सारी बात बताए रमेशजी उन्हें लेकर मुंबई आ गया। अभिनव और ज्योति खुद आए स्टेशन लेने उन्हें। 




अगले दिन से ही इलाज शुरू हो गया। स्पेशलिस्ट से दिखाया गया तो पता चला कि नीरजा जी कैंसर से ग्रसित थी। नीरजा जी ने सोचा, चलो, कुछ दिन अभिनव के पास रहकर वापस भोपाल लौट जायेंगे तो सब ठीक हो जायेगा पर यहां मामला कुछ और ही था। विस्तार से इलाज शुरू हुआ। डॉक्टर ने साफ साफ कह दिया था कि ” आप सबने पेशेंट को लाने में बहुत देर कर दी है। इलाज तो अब संभव नहीं, हां, अनहोनी को कुछ और दिनों तक टालने की कोशिश किया जा सकता है। ” बस डॉक्टर समेत पूरा परिवार अनहोनी को ही टालने में लग गया। दो महीनों तक लगातार कीमोथेरेपी होती रही। इस दौरान ज्योति ने नई और बड़ी बहू का हर फर्ज़ निभाया और ऑफिस से छुट्टी ले लेकर सेवा की। नीरजा जी का भी नजरिया धीरे धीरे बदलने लगा। उन्हें अपने पति रमेश जी का बात याद आती कि, ” एक ही घर में साथ रहने का ये कतई मतलब नहीं है कि हम एक दूसरे को जानते हों। अगर एक दूसरे को जानना है तो, पहले सामने वाले को दिल से स्वीकार करो, भाग्यवान !!! ” रमेश जी भी नीरजा जी में आए इस नए बदलाव को लेकर खुश तो थें, पर अनहोनी की आशंका उन्हें हमेशा भयभीत करती रहती। 

अगस्त का महीना था। रक्षाबंधन आने वाला था। ज्योति के घरवालों ने ज़िद की। ज्योति मायके आए और इस रक्षाबंधन अपने हाथों से अपने भाई की कलाई पर राखी बांधे पर ज्योति ने खुद मना कर दिया। नीरजा जी को लगा जैसे उन्होंने मुंबई आकर गलती कर दी। बेटे बहु की सामान्य सी जिंदगी को डावांडोल कर दिया। रमेश जी से तो कुछ न कहती पर अभिजीत से फोन पर सब बताती और रमेश जी चोरी छिपे सब सुनते और बस आंसू बहाते। नीरजा जी के मन में ज्योति को लेकर ग्लानि थी पर ये बात कैसे कहती अपनी बहू से वो। बस इतना ही कहा, ” दुल्हन, तुम्हारे साथ रहकर ही तुम्हें अच्छे से जान पाई। भला हो, इस बीमारी का जो मुझे मौका मिला नहीं तो जिंदगी भर अपनी दुल्हन को मैं कभी जान ही नहीं पाती। अगर मुझे कुछ हो गया न, और मैं वापस भोपाल न पहुंच पाई न, तो तुम्हारे सहारे अपना घर छोड़ जाऊंगी। माफी तो नहीं मांगूंगी, तुमसे, पर इतना जरूर कहूंगी कि अगर ईश्वर ने मुझे बेटी दी होती तो, तुम्हें जानने में इतना वक्त नहीं लगाती और वो बिल्कुल तुम्हारी तरह ही होती।” सास बहू ने एक दूसरे को गले से लगा लिया और आंसुओं की धारा बहने लगी।

अगले दिन नींद में ही नीरजा जी ने दम तोड़ दिया। अभिनव के फ्लैट की गहमा गहमी अचानक से सन्नाटे में बदल गई। मन के भय ने यथार्थ का रूप ले लिया और वो दिन रक्षाबंधन का ही था। अभिनव अभिजीत और रमेश जी ने तय किया कि सारे अंतिम अंत्येष्टि भोपाल से ही होंगे। नीरजाजी की लाश को ताबूत में कर अंतिम यात्रा मुंबई से भोपाल की शुरू हुई।  पूरे सफर के दौरान इस ताबूत को ज्योति एकटक देखती रही। मानो, नीरजा जी से घर संभालना सीख रही हो और वो अपनी बहू को हर एक बात विस्तार से बता रही हों।

अगले बीस दिनों तक अभिनव और ज्योति भोपाल में रहे। अभिजीत तो श्राद्ध के बाद ही वापस लखनऊ चला गया पर अकेले रमेश जी को भोपाल में छोड़ना और मुंबई वापिस आ जाना दोनों के लिए बहुत मुश्किल था। इस बार ज्योति ने फैसला किया कि किरायेदारों के सहारे भोपाल वाले घर को छोड़ पापाजी मुंबई शिफ्ट करेंगे। अभिनव ने उसके इस फैसला पर आश्चर्य करते हुए कहा, ” कैसे करोगी ये सब, नौकरी है, वर्क प्रेशर है और टाइम कहां है तुम्हारे पास !!! ” ज्योति ने जवाब दिया, ” तुम चिंता मत करो, सब मैनेज हो जायेगा। पापाजी हमारे साथ ही चलेंगे। बड़ी बहु हूं मैं, तुम बेवजह फिक्र न करो। डरते क्यों हो तुम, मैं हूं ना……..” अभिनव ने मुस्कुरा दिया। अब आगे उसे कुछ भी कहने की कोई जरूरत नहीं थी। 

( पाठकगणों से आग्रह है कि, इस रचना को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें….. त्रुटियों की तरफ इंगित करें, ताकि लेखनी का विकास संभव हो सके  )

#संघर्ष

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

अमित किशोर

धनबाद (झारखंड)

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