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कैद खाने से छुट्टी – डी अरुणा 

जीवन भर का एक दर्द मेरे दिल में रह गया अपने भतीजे से ना मिलने का। दसवीं के बाद मेरे इकलौते और प्यारे मासूम सिद्धार्थ को विशाखापट्टनम पढ़ने भेज दिया गया। 

मासूम इसलिए कि उसमें चालाकी नहीं थी। भोला भाला और उसकी दुनिया मां के इर्द-गिर्द ही थी। मां का आदेश पत्थर की लकीर थी। इन 2 वर्षों में मैं जब भी मायके जाती वह हॉस्टल में ही रहता जिससे उससे मुलाकात ना हो पाई।

 हॉस्टल की जिंदगी उसे कैद खाने सी लगती।

 मुझे और पति को किसी काम से विशाखापट्टनम जाना पड़ा। काम समाप्त कर हम सिद्धार्थ की पसंद की अनेक वस्तुएं साथ लिए हॉस्टल मिलने चले गए।

 हॉस्टल में पता चला, पूर्व संध्या ही परीक्षाएं समाप्त होते ही सिद्धार्थ घर चला गया था। हम वापस होटल आ गए और रात की गाड़ी से वापस जाने की तैयारी करने लगे ।

करीबन 7:30 बजे भैया का फोन आया सिद्धार्थ के एक्सीडेंट की और उसकी संकटपूर्ण अवस्था की।

 वापस जाना कैंसिल कर हम सफर कर सिद्धार्थ को देखने आ गए। सफर के दौरान मोबाइल में मैंने उसका मैसेज पढ़ा,” बुआ मुझे इस कैदखाने से छुट्टी मिल गई ।अब मैं आजाद हो गया”।साथ ही एक बड़ी सी मुस्कुराती स्माइली। रास्ते भर हर देवी देवता से मनौती मांगती रही ,सिद्धार्थ ठीक हो जाए।

 अस्पताल के बेड पर निश्चल पड़ा था सिद्धार्थ ।अनेक मशीनें उसके शरीर से जुड़ी थी। कहीं कोई चोट, रक्त का निशान नहीं। सड़क पर मोटरसाइकिल से गिरते ही सिर के अंदरूनी हिस्से में कहीं चोट आ गई और अंदरूनी रक्तस्राव हो गया जिस वजह से वह कोमा में था।

” बुआ की आवाज से शायद उठ जाए” “जाइए दीदी सिद्धार्थ को आवाज दीजिए” भाभी के कहते ही सारा शरीर कांप गया मेरा।

 देर तक उसके हाथों को सहलाती, कान के पास आवाज लगाती रही… पर ना वह उठा.. ना ही उसे उठना था।

 अचानक उसके शरीर में हलचल हुई, एक तेज झटका और सब शांत हो गया।

 हम सबकी आंखों के सामने निशब्द विदाई ले ली उसने। सिद्धार्थ का मैसेज याद आया हॉस्टल के कैद खाने से छुट्टी नहीं… जीवन रूपी कैद खाने से वह हमेशा के लिए आजाद हो गया।

 मात्र 17 वर्ष की उम्र.. जीवन में ना कुछ देखा.. ना उसने जीवन का आनंद ही उठाया था।

 सिद्धार्थ से 2 वर्षों से ना मिलने का दर्द मुझे कभी-कभी बहुत कुछ कचोटता। एक स्थाई दर्द बन रह गया।

#दर्द

डी अरुणा 

 

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