कड़वे बोल जो बदले सोच – संगीता त्रिपाठी

 बचपन में तो हर दोस्त न्यारा लगता था, जो खेलने को मिल जाये वही पक्का दोस्त। बचपन में कृष्ण -सुदामा की दोस्ती पढ़ी थी। मन के अंदर कुछ ऐसा ही करने का जज्बा जोर मारने लगा था, पर जज्बे से क्या होता। हम भी छोटे थे दोस्त भी छोटे थे।बड़े हुये तो दोस्ती की परिभाषा समझ में आई। दोस्त सिर्फ खेलने -कूदने वाले नहीं होते, दोस्त तो वो होते हैं जिनका साथ आपको आनंदित कर दे, जिसे आप बेझिझक सब कुछ कह दे।जिसे आप पूरे हक़ से गालियाँ भी दे सकते, प्रेम भी कर सकते। दोस्त जो बिना कहे आपके मन की बात जान जाता हैं।पर कुछ दोस्त ऐसे होते हैं, जिनकी अहमियत बहुत बाद में पता चलती हैं।ऐसी ही हमारी एक पारिवारिक मित्र थी।

 

             कुछ वर्ष पहले दशहरे के समय हमारे जेठ असमय चले गये।परिवार शोक में डूबा था। सब हँसना भूल गये, अक्सर दिल में चुभन होती ऐसा हमारे साथ ही क्यों हुआ? मन के कश्मकश के बीच हम पति की पोस्टिंग वाले शहर लौट आये। जीवन की भाग -दौड़ शुरु तो हुई पर कहीं एक अव्यक्त ख़ामोशी भी पसर गई। दिवाली पास थी।बेटे को पटाखों से बहुत प्यार था। दशहरे के बाद ही पटाखे चलाना शुरु कर देता था। मैंने बेटे और बेटी दोनों को समझाया “इस बार हम दिवाली नहीं मनायेंगे “बेटी तो मान गई, पर बेटा थोड़ा उदास हो गया।

 

               धनतेरस पर सब तरफ पटाखों के शोर से बेटा विचलित हो गया। माँ, मै दिवाली के बाद तो पटाखे चला सकता हूँ। मेरे मना करने पर -नहीं इस साल कुछ नहीं..वो नाराज हो गया।मैंने भी डांट कर दोनों को पढ़ने बैठा दिया। पर बेटा किताब हाथ में लिये हर दस मिनट्स में बाहर झाँक लेता। ये देख मुझे बहुत दुख हो रहा था गुस्से, खींझ और विवशता में मैंने बेटे को थप्पड़ लगा दिया। खुद भी रो पड़ी. वो तो नासमझ हैं, फिर मै क्यों अपने गुस्से को कण्ट्रोल नहीं कर पाई। तभी घंटी बजी। देखा हमारे पड़ोस की वो महिला खड़ी थी जिसे सब झगड़ालू कहते थे और कोई उनसे दोस्ती नहीं करता था। मै भी उनसे दूर भागती थी।वो बहुत कड़वा बोलती थी।


 

             “रमा बच्चे को इस तरह नहीं मारना चाहिये, वो तो बच्चा हैं, उसका मन चंचल हैं, उसको मत रोको, कह मुझे भी समझाया। माना तुम्हारे परिवार में बड़ी घटना हुई, पर तुम दुख से उबरने के बजाय, बच्चों को रीति -रिवाज़ के नाम पर उनकी खुशियाँ से क्यों रोक रही हो, क्या तुम्हारे इस तरह शोक मनाने से तुम्हारे जेठ वापस आ जायेंगे या दुख कम हो जायेगा,या ये रीति -रिवाज़ मानने से दुख कम हो जायेगा। दुख तो बड़ा हैं, पर जीना भी पड़ेगा चाहे हँस कर जीयो या रो कर, तुम पर निर्भर करता हैं तुम अपना दुख किस तरह कम -ज्यादा कर सकती हो., किस तरह आगे बढ़ सकती हो…., मै कुछ बोल नहीं पाई क्योंकि उनकी बातें तर्कपूर्ण थी।”चलो बेटा मेरे घर, “और मेरे दोनों बच्चों को अपने घर ले गई, मै चाहते हुये भी रोक नहीं पाई। दो घंटे बाद बच्चे हँसते -खेलते घर आये। बेटी ने बताया -आंटी तो बहुत अच्छी हैं, अपने बेटे से पटाखे ले, हमलोगो को ये कह कर जलाने को दिया कि अरे ये दोनों तो जला ही नहीं पा रहे हैं, और रजत को जलाने को दे दिया। हमलोगो को केक और मिठाइयाँ भी खिलाई। मेरा मन उमा के सौहार्दपूर्ण व्यवहार से प्रभावित हुये बिना ना रहा।हमारे दुख की घड़ी में मेरी सब सहेलियां अपने में मग्न थी।सिर्फ वही झगड़ालू उमा ही अपना समय निकाल हमारे घर आई। दिवाली वाले दिन उमा खाना बना कर ले आई, मेरे रो पड़ने पर डांट कर सबको खाना खिलाया। इस घटना ने मेरा नजरिया दोस्ती और दोस्त के प्रति बदल दिया। जिनके साथ हम मस्ती करते हैं, पार्टी करते हैं, सिर्फ वही दोस्त नहीं होते, दोस्त तो वो होते जो मुसीबत में आपके साथ खड़े हो।चमक वाले बाहरी आवरण के व्यवहार को हम अच्छा समझ लेते पर कई बार खराब व्यवहार या कड़वे बोल वाले लोग भी बेहतरीन दोस्त साबित होते हैं।क्योंकि उनके पास भी सुन्दर मन होता हैं, जो किसी को दुखी देख विचलित होता हैं।बस हमें देखने या पहचानने की जरूरत होती हैं।

 

                                  —संगीता त्रिपाठी

                                 गाजियाबाद

#दोस्ती -यारी 

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