कभी मेरा दर्द भी देख लेते… – रश्मि प्रकाश

“ जानती भी हो ये कितने का था….. ।” सामने फ़र्श पर पड़े फूलदान को टुकड़ों में बिखरा देख रितेश पत्नी नित्या पर बरस रहा था 

“ जी वो साफ करते हाथ से छूट गया….. पता था बहुत क़ीमती था… तभी तो कमली को हाथ लगाने ना देती थी… अब जान बूझकर तोगिराया नहीं ।“ नित्या ने ज्यों ही कहा रितेश को और ग़ुस्सा आ गया…उसने आव देखा न ताव नित्या पर हाथ उठा दिया….

नित्या आँखों में आँसू भर उन टुकड़ों को सहेज कर उठा रही थी…. फिर भी एक टुकड़ा चुभ ही गया… हाथ से खून निकल आया… कराहते हुए भी वो सफ़ाई करती रही…. समझ नहीं पा रही थी ये दर्द चुभने का है या फिर रितेश की इन हरकतों का जो जब देखो तबजताता रहता है… उसके शौक़ महँगे है….

रविवार के दिन सुबह का समय नित्या को घर की सफ़ाई करनी होती थी क्योंकि ये रितेश का हुक्म था….. उसकी निगरानी में उन चीज़ोंकी सफ़ाई हो जो उसने बड़े जतन से ख़रीद कर रखें है।

नित्या सफ़ाई कर उठी तो दोपहर के खाने की फ़रमाइश सुना दिया…. 

नित्या रसोई में लगी पड़ी थी… हाथ में लगी चोट पर तो रितेश की नज़र भी नहीं गई थी…..नमक लगते वो और जल  उठता…. वो किसीतरह खाना बनाकर कटे भाग की थोड़ी मरहम पट्टी कर आराम करने चली गई 

सामने दोनों की शादी की बड़ी ही प्यारी तस्वीर लगी थी…

नित्या पाँच महीने पीछे के उस दिन को याद करने लगी जब सुमिता जी खुद अपने बेटे रितेश के लिए नित्या का हाथ माँगने आई थी…,“ बहन जी हमें तो आपकी नित्या राशि के ब्याह में ही भा गई थी, पर रितेश उस वक्त शादी के पक्ष में नहीं था….आप लड़के वालों कीतरफ़ से ब्याह में शरीक हुईं थीं फिर राशि से पता चला नित्या….आप उसकी सास की चचेरी बहन है….अब हमें नित्या चाहिए तो हमें हीआना था यहाँ ।”

मधुमालती जी इस प्रस्ताव पर तत्काल कुछ कह नहीं पाई पर परिवार वालों की सहमति से नित्या का विवाह रितेश से हो गया…. नित्याका परिवार सभ्य था पर पैसों से ज़्यादा अमीर नहीं…… फिर भी जो बन पड़ा मधुमालती जी में बेटी की गृहस्थी का सामान जुटाया था… ये कह कर हमारा भी मन है बेटी के नए जीवन की शुरुआत की वस्तुएँ उसे दे।

जब सारा सामान रितेश की पोस्टिंग वाली जगह पर गया वो देखते ही बोला,“ ये सब सामान यहाँ क्यों मँगवाया…अरे उधर ही रहनेदेती… मेरे स्टैंडर्ड से कुछ मेल नहीं खाता… पता नहीं माँ ने क्या देख कर तुम्हें मेरे साथ बाँध दिया….सीधी सादी नित्या बस सुना करती… माता-पिता ने हमेशा यही कहा था बिटिया ब्याह बाद दामाद जी जैसा चाहे वैसा करना… सास ससुर का हमसे ज़्यादा मान करना…. अब जो है बस तेरा ससुराल…। कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए…. समधन जी खुद तुम्हें पसंद की है.. तो बस उन सबको खुश रखना।” और नित्या इसी गाँठ के साथ रितेश की हर बात गले के नीचे यूँ उतार रही थी जैसे उसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता ।

अचानक रितेश की आवाज़ सुन वो उठ बैठी…

“ कब से आवाज़ दे रहा हूँ यहाँ सोई पड़ी हो…..कॉफी बना दो…।”  रितेश ने कहा 

“ अभी बनाती हूँ….।” कह जैसे ही वो उठने को हुई रितेश की नजर उसके हाथ पर बँधी पट्टी पर पड़ी 

“ ये क्या हो गया जो पट्टी बाँध रखा है ?” रितेश ने पूछा 

“ वो सुबह फूलदान का टुकड़ा चुभ गया था…।” नित्या ने कहा और रसोई की ओर जाने लगी

“ रूको..।“ कहते हुए रितेश ने उसका हाथ पकड़ रोक लिया 

“ लाओ दिखाओ…।” कह रितेश बाएँ हाथ से जैसे तैसे बँधी पट्टी खोलते हुए बोला

गहरे कट लगे थे और नित्या चुपचाप खड़ी थी… घाव का दर्द शायद वो जज़्ब करना सीख चुकी थी 

“ कमाल हो तुम …. कहना भी ज़रूरी नहीं समझा….!” कह रितेश घाव साफ कर फिर से पट्टी करने लगा

“ तुम ऐसे चुप रहोगी तो मुझे तुम्हारे दर्द का अहसास कभी नहीं होगा…. बोलोगी तो समझ आएगा … अब तुम रहने दो मैं खुद कॉफीबना लूँगा ।” कह रितेश जाने को हुआ तो नित्या उसे पकड़ कर रोक ली

“ रितेश मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ… मैं तुम्हारे साथ हर समझौता करने को तैयार हूँ पर… तुम जो ये बात बात पर ताने मारते हुएकहते हो ये कितने का है…. मुझे अंदर तक कचोट जाते है… तुम्हारी नज़रों में सामान की क़ीमत है इंसान की नहीं…. मैं तुम्हारी पत्नी हूँतुम ग़ुस्से में से भी भूल जाते हो… मेरे डर और दर्द से ज़्यादा तुम्हें सामान की फ़िक्र होती हैं… कभी तुम मेरे दर्द को समझते तो मुझे ज़्यादाख़ुशी होती …मैं सब कुछ बर्दाश्त कर लूँगी पर अपनी तुलना सामान के साथ नहीं… बहुत दिनों से हिम्मत जुटा रही थी….आज जब तुमनेमेरी पट्टी की तो लगा थोड़ी इंसानियत बाकी है तभी मैं ये कह पाई।” नित्या ने दिल की बात कह दी

रितेश पल भर को ख़ामोश रहा फिर सिर झुकाते हुए बोला,“ मुझे भी अभी तुम्हारी चोट देख लगा नित्या मैं कुछ ज़्यादा ही ज़्यादती कररहा हूँ तुम पर…. हो सके तो मुझे माफ कर दो…।” 

नित्या नज़र उठा कर रितेश को देखी और रितेश के बढ़े बाँहों का सहारा ले उसके सीने से लग गई…. आज उसे किसी तरह का दर्द अबमहसूस ही नहीं हो रहा था ।

दोस्तों हक़ीक़त में इंसान को बदलने में वक़्त भी लगता और कई बार वो बदलें ये ज़रूरी भी नहीं … हमें कहानी के रूप में लिखना होता तो हम उसे एक सकारात्मक मोड़ देकर छोड़ देते हैं…. पाठकों के विचार मेरे विचार से मेल खाए ये ज़रूरी नहीं ..इसलिए कभी कभी कहानी या ब्लॉग को उस नज़रिए से भी पढ़ने का प्रयास करें….चारों तरफ़ नकारात्मकता फैली है हम भी नकारात्मक संदेश दे ये मुझे सही नहीं लगता इसलिए कहानी को कहानी की तरह पढ़े और अपने बहुमूल्य विचार दें।

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धन्यवाद 

रश्मि प्रकाश

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