Moral stories in hindi : राखी,…राखी…उठो बेटा सुबह हो गई देखो तो…तुम्हारे चारो भाई तैयार होकर बैठ गए हैं आँगन में!!
मेरी रानी तुम्हें पता भी है सब तुम्हारे लिए ढेर सारे रंग बिरंगे खिलौने और सुंदर -सुंदर गुड्डे गुड़िया भी लाए हैं उपहार में देने के लिए !
माँ प्यारी सी पांच साल की राखी को प्यार से जगा रही थीं और वह थी कि गहरी नींद में परी लोक की सैर कर रही थी।
सारे भाई एक- एक कर उसे जगा कर थक चुके थे ।जब वह नहीं जगी तब सब माँ के पास गए गुहार लेकर कि उनकी नन्ही सी दुलारी बहन को जगा दे ताकि वह उससे अपने कलाइयों पर राखी बंधवा सके।
चार भाइयों के बाद हुई थी यह छोटी-सी बहन ! और वह भी रक्षा बंधन के दिन ! माँ की मनसा पूरी हुई थी। उन्होंने तो ठान लिया था कि चाहे जो भी हो उनको एक बेटी चाहिए। माँ को पहले बेटे के बाद से ही इच्छा थी कि उन्हें एक बेटी हो। इंतजार करते- करते तीन बेटे हो गये । घर परिवार के लोगों ने माँ को बहुत समझाया कि नसीब से बेटी का सुख का मिलता है अब रहने दो तीन बच्चे हो चुके हैं । उन्हें भी तो पालना है पढ़ाना लिखाना है।
पर माँ जिद पर अडिग रही। सबको मना लिया पर अगली बार फिर से बेटा ही हुआ। अब की पिताजी भी गुस्से में आकर माँ से बोले -” सिर्फ बेटी का शौक रखने नहीं होता है परवरिश भी तो करना है। अब चलो ऑपरेशन करवा लो। मेरी नौकरी ऐसी नहीं है कि चार -पांच बच्चों का पालन पोषण अच्छे से हो जाये। बेटी होने का जिद छोड़ दो।”
उस समय तो माँ ने कुछ नहीं बोला। ना- नुकर कर टाल दिया। पर घर के पास मंदिर में जाकर खूब रोई…माँ जगदम्बा से भीख माँगा ….माँ सब लोग तो तुम्हारे पास बेटा मांगने के लिए आते हैं मैं तो तुमसे अपने लिए एक बेटी ही मांग रही हूँ। भर दो मेरी झोली…आओ न मेरे घर में बेटी का रूप लेकर मेरी इच्छा पूरी करो !!
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माँ जगदम्बा ने शायद माँ की पुकार सुन ली थी। तीन महीने तक माँ ने किसी को नहीं बताया कि वह फिर से माँ बनने वालीं हैं । जब पता चला तो पिताजी जबरदस्ती माँ को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे ।डॉक्टर ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि-” बच्चे को होने दीजिये वर्ना जच्चा-बच्चा दोनों की जान जा सकती है। “
दादा-दादी ताई बुआ और घर के अन्य सदस्यों ने पिताजी को समझाया कि जो धरती पर आने वाला है उसे कोई नहीं रोक सकता है। जहां चार बच्चे हैं वहां एक और सही ! इसलिए इस बच्चे को माता की इच्छा समझकर स्वागत करो!”
सच में माँ की इच्छा माता रानी ने पूरी कर दी और निज रक्षा बंधन के दिन नन्ही सी परी माँ की गोद में बेटी बनकर आ गई। सबने मिलकर उस गुड़िया का नाम “राखी” रख दिया। घर में खुशी का ठिकाना नहीं था। वह रक्षा बंधन यादगार बन गया। चार भाइयों की बहन सबकी प्यारी सबकी दुलारी ! घर की लक्ष्मी! दादी तो उसे इसी नाम से बुलाती थीं।
सब प्रसन्न थे। पिताजी भी बहुत खुश थे नन्ही सी जान को गोद में लेकर। धीरे-धीरे सब बच्चे बड़े हो रहे थे। उम्र बढ़ने के साथ ही साथ सबके खर्चे भी बढ़ते जा रहे थे। परिवार में कमाने वाला एक यानि पिताजी थे और खाने वाले दस थे। फिर भी पिताजी ने बच्चों की परवरिश में और उनकी पढ़ाई- लिखाई में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बेटी तो उनकी जान थी। कभी-कभी बेटों के खर्चे में कमी हो भी जाती थी लेकिन वो बेटी की सारी जरूरत सिर- आँखों पर रखते थे। दादी हमेशा टोकती -” बेटा ,बेटी के दुलार में पैसा झोंकते हो कुछ इसके भविष्य के लिए भी बचा कर रखो।”
मगर वह किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते थे। पिताजी चाहते थे कि वह अपने सीमित आय में भी सभी बच्चों का लालन-पालन अच्छी तरह से कर पाएं ताकि कोई यह नहीं कह सके कि बेचारा क्या करे ! बच्चों की भीड़ लगी है।
भले ही पिताजी ने एक रुपया बैंक में जमा नहीं किया पर रिटायर होते -होते चारों बेटों की पढ़ाई पूरी करवा दी। दो बेटों की नौकरी भी लग गई । दो की पढ़ाई अंतिम दौर में थी । बेटी राखी सबसे छोटी थी इसलिए वह अभी निचली कक्षा में पढ़ रही थी।
पिताजी के एक ही अरमान थे कि सभी बच्चे लायक बन जायें और उनके बाद घर गृहस्थी की जिम्मेदारी सम्भाल लें। उनका कहना था कि पैसा बचा कर क्या करना… मेरे बच्चे ही मेरा बैंक बैलेंस हैं।
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समय बीता पिताजी रिटायर हो गए। जिन दोनों बेटों की नौकरी लग गई थी उन्हें बुलाकर उन्होंने कहा-” बेटा अब तक मैंने घर की सारी जिम्मेदारी संभाली अब तुम दोनों की बारी है। दोनों ने सिर हिलाकर सहमति दी और पिताजी की जिम्मेदारी को अपने कांधे पर उठा लिया।
पिताजी को अपने सारे अरमान पूरे होते दिख रहे थे। वह बहुत ही खुशी महसूस कर रहे थे।
लेकिन कहते हैं न कि भाग्य का लेख और कर्म का रेख शायद ही मिटे। जैसे ही दोनों बेटे का विवाह हुआ उनके रंग ढंग बदलने लगे। पैसे खर्च करने में आनाकानी करने लगे।
पिताजी ने नजरंदाज किया और अपने पेंशन के पैसों से दोनों छोटे बेटों को पढ़ाया और उनकी भी नौकरी पक्की हो गई। बेटी राखी अब बड़ी हो चुकी थी । उसकी पढाई -लिखाई अभी सबकुछ अधूरी थी।
पिताजी ने कई बार बेटों को इसका ध्यान दिलाया और समझाया पर सब अपनी दुनियां में मशगूल हो गये। अंत में उन्होंने अपना पेंशन को गिरवी रख कर बेटी को पढ़ाया । जब भी उसकी शादी का जिक्र पिताजी ने बेटों से किया तब किसी भाई ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। माँ बेटों से बात करना चाहती थी तो बहुएं बीच में टीका टिप्पणी करने लगतीं थीं और अपने पतियों की कमाई का रोना रोने लगतीं थीं।
इकलौती बहन जिसको चारों भाई अपने माथे पर बिठाया करते थे और जिसके बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे उसके लिए उनके पास समय भी नहीं था । पिताजी के अरमानो पर ग्रहण लगने लगा था। बेटों की इच्छा नहीं थी पर लोक समाज हँसे नहीं इसलिए उन्होंने अपने घर के आधे खाली हिस्से की जमीन बेच कर बेटी की शादी कर दी।
अनमने से बेटे बहू शादी में तो आए पर उनकी बात -बात पर जमीन बेचने की नाराजगी झलक रही थी। खैर, पिताजी जैसे- तैसे अपनी जिन्दगी के जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए। बेटी के बिदा होते ही बेटे बहुओं ने उन्हें उलाहने देने शुरू कर दिये। उन्हें इस बात की खुशी नहीं थी कि बहन की शादी अच्छे से हो गई ।बल्कि इस बात का गम था कि पिताजी ने जमीन क्यों बेचा !
दिमागी तनाव के कारण बेटी की शादी के साल गुज़रते ही पिताजी दुनियां से चले गये। किसी भाई ने बहन को कोई खबर नहीं दी। और ना ही उसे बुलाया गया। बाद में जब उसे पता चला तब वह दहाड़ मार कर रोई । माँ से मिलने आना चाहती थी पर ससुराल वालों ने बिन बुलाये मायके ना जाने की नसीहत देकर रोक दिया।
पिताजी के जाने के शोक में माँ बीमार रहने लगीं। जिस बेटी के लिए उन्होंने दुनियां से ठान ली थीं उसे एक नजर देखने के लिए तरस गईं । बेटों से कहती कि वे जाकर बहन को देख आये या उसे बुला लें तो वे छुट्टी का बहाना बनाकर टाल जाते । पिताजी के अरमानों को बिखरते देख उनकी आंखें भींगती रहतीं।
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राखी का त्योहार आ रहा था। हिम्मत कर उन्होंने दो बेटे जिनकी नौकरी इसी शहर में थी उन्हें बुलाकर कहा-” बेटा तुम्हारी इकलौती बहन है इस रक्षा बंधन पर उसे. बुला लो… .. धन दौलत नहीं तुम्हारी बलाएँ लेगी और चली जाएगी। आखिर भाई का हृदय था पिघल गया। दोनों भाइयों ने उसके ससुराल जाकर बहन को आने के लिए मना लिया। भाई बुलाये और बहन ना आये ये तो हो नहीं सकता! बहन के खुशी का ठिकाना नहीं था ।
रक्षा बंधन पर वह रंग- बिरंगी राखियाँ लेकर अपने पति के साथ मायके पहुंच गईं । माँ की खुशी आँखों से आंसू बनकर झर रही थी। आज उनके सामने उनके पांचो बच्चे इकठ्ठे हुए थे। वो बार -बार दीवार पर पिताजी के टंगे तस्वीर को देख मन ही मन कह रही थी “- आज आप रहते तो कितने खुश होते देखिये आपके बेटे मेरे सारे अरमान पूरे कर रहे हैं।” माँ अपने गालों पर लुढ़क आये आंसुओ को आंचल से पोंछ रहीं थीं।
उन्होंने सभी बहुओं को बुलाकर कहा-” बेटा तेरे पिताजी नहीं हैं । बेटी और दामाद जी की ऐसी खातिरदारी करना की उन्हें लगे नहीं की ससुराल में कोई कमी हुई है। जी माँ जी ठीक है आप निश्चिंत रहिये। बहुओं के मूंह से यह सुनकर माँ के मन खिल उठे।
“रंग बिरंगी राखी लेकर आई बहना राखी बंधवा ले मेरे वीर…” सुबह -सुबह गाने की आवाज़ कानों में पड़ते ही माँ बिस्तर पर से उठकर बैठ गई। “राखी…राखी कहाँ है तू उठ बेटा ! चारों भाई तैयार होकर बैठ गए होंगे राखी बाँध दे!”
-माँ जी अभी तक कोई नहीं जगा हुआ है लेकिन राखी दीदी और दामाद जी कहीं नहीं दिख रहे हैं?-” छोटी बहू ने माँ को बताया।
“नहीं दिख रहे! तो कहां गये दोनों !”
दौड़ते हुए बड़े बेटे का पांच साल का बेटा दादी के बिस्तर पर चढ़ते हुए बोला-” दादी…बुआ तो पापा से पैसा लेने आई थी न! …मम्मा तो यही कह रही थी !”
“पैसा माँगना तो गंदी बात है…है न दादी!”
मम्मा ने मना किया होगा …. इसीलिए गुस्सा होकर चली गई!”
पैसा माँगना इज़ बैड हैबिट !!
माँ पिताजी की तस्वीर को एकटक से देख रही थीं उनके सारे अरमान आँखों से अपने आप झर रहे थे ।
स्वरचित एंव मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार