जीवन यात्रा… – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

सबके चेहरों पर खुशी झलक रही थी… केवल एक को छोड़कर… वे खुश नहीं थे…

 रामनरेश जी लाख मन को मनाने की कोशिश कर रहे थे कि सबकी खुशी के लिए खुश हो लूं… लेकिन नहीं हो पा रहे थे…

 बेटी… दामाद… दोनों बेटे बहु… सब के बच्चे… पत्नी प्रभा… सभी तो थे… सभी खुश भी थे… पर वे खुश नहीं थे…

” क्या हुआ जी… ऐसे क्यों मुंह लटकाए घूम रहे हैं… यह जश्न आप ही के लिए है ना… हमारे ही लिए है ना…!”

” हां सही तो है… मैं कहां मुंह लटकाए हूं…!”

 प्रभा जी बच्चों में लग गईं… बहुत काम था आज… यह आखिरी रात थी इस घर में… शाम को होटल में पार्टी थी… फिर बड़े बेटे के साथ रामनरेश जी और उनकी पत्नी प्रभा उसके घर जाने वाले थे…सारा प्रोग्राम तय था…

 पूरे 35 साल नौकरी करने के बाद रामनरेश जी रिटायर हुए थे… बच्चों की जिद थी कि यहीं कहीं फ्लैट ले ले… पर पत्नी चाहती थी कि गांव में ही घर बनाएं… वह बाकी की जिंदगी गांव में बिताना चाहती थी… मगर रामनरेश जी वह क्या चाहते थे… पूरी जिंदगी तो बस यही करते आए… जो बच्चों को चाहिए… जो पत्नी को चाहिए…

 एक फ्लैट यहीं खरीद लिया… उसमें बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ रह रहा था… उसका यहीं कारोबार था… छोटा बेटा काफी दूर रहता था… बेटी अपने घर में खुश थी…

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 एक घर प्रभा जी की पसंद से अपने पुश्तैनी घर के ऊपर खड़ा किया… सभी आधुनिक सुविधाओं से लैस… बड़ा सा बंगला… जहां जाकर सभी बच्चे अपने परिवार के साथ… जब जी चाहे छुट्टियां बिता सके… वहां सारा सामान भी शिफ्ट कर दिया… इस घर में अब कुछ नहीं था…

 वह घर जो जीवन के महत्वपूर्ण 35 सालों का गवाह था… वह खाली हो चुका था… बस कुछ जरूरत के सामान थे… जिन्हें लेकर कल सुबह ही निकल जाना था…

 सभी रामनरेश जी को रिटायरमेंट की बधाइयां देने में लगे हुए थे… जहां निकलते हर नया, पुराना, परिचित, अपरिचित, दूध वाला, पेपर वाला, राशन वाला, गाड़ी वाला…

 एक इंसान जहां इतने साल रहा हो… वहां का तो हर कोई अपना हो जाता है… सभी उन्हें रिटायरमेंट की बधाई और आगे की जिंदगी की शुभकामनाएं दे रहे थे…

 रात का जश्न बहुत शानदार रहा… सुबह सारे बच्चे अपने-अपने घर की ओर निकल गए… रामनरेश जी भी प्रभा के साथ… बड़े बेटे के घर आ गए…

 भले ही वह घर उन्हीं का खरीदा हुआ था… पर पिछले 5 सालों से उस घर में सुमित और संध्या रहते आ रहे थे… पूरा घर उनकी पसंद और जरूरत के हिसाब से ढला हुआ था… इस घर में आकर रामनरेश जी गुमसुम हो गए… 

“क्या हुआ…अब आप पहले की तरह नहीं रह गए…!”

” अब मैं बेरोजगार हो गया ना प्रभा… मुझे लग रहा है… जैसे अब मेरी जीवन यात्रा पूरी हो गई… जीवन की ढलती सांझ में… मुझे अपना जीवन भारी लग रहा है…!”

” पूरी जिंदगी क्या काम ही करेंगे… अब तो आराम से बैठने का… खाने-पीने का समय आया है… तो…!

” नहीं प्रभा… मैंने कभी बैठकर जीवन नहीं बिताया… इस तरह मुझसे नहीं होगा… मुझसे यह निष्क्रियता सही नहीं जा रही…!”

” तो चलिए गांव चलें… वहां रहेंगे तो बेहतर लगेगा…!”

 प्रभा जी ने बेटे सुमित से बात की तो सुमित और संध्या सोच में पड़ गए…

” नहीं… इस तरह आप लोगों को गांव भेजना सही नहीं होगा…!” सुमित रामनरेश जी को… अपने साथ… वहीं थोड़ी दूरी पर चलने वाले योगा क्लास में लेकर जाने लगा… दो-तीन दिन सुबह शाम साथ में जाते हुए राम नरेश जी को अच्छा लगा… अब अकेले भी चले जाते थे…

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 संध्या उन्हें अलग-अलग बहाने से व्यस्त रखने की कोशिश करने लगी… सभी बच्चों का ध्यान इस ओर आकर्षित हो गया… कि पापा को अकेलापन ना लगे…

 कुछ दिनों में रामनरेश जी योग में पूरी तरह प्रशिक्षित हो गए… तो छोटे बेटे ने उन्हें सलाह दी…” पापा आप अपना मुफ्त का ट्रेनिंग सेंटर क्यों नहीं खोल लेते…!” राम नरेश जी को यह बात बहुत पसंद आई… लेकिन यह काम वह यहां नहीं… गांव में करना चाहते थे…

 प्रभा जी के साथ वह गांव चले गए… घर के ही सामने वाले बड़े से कमरे में… उन्होंने योग की शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया… थोड़े ही दिनों में लोगों से जुड़ने लगे…

 इस बार गर्मी की छुट्टियों में… सभी बच्चे दोबारा गांव आए तो पापा ने यहां अपनी एक छोटी सी खूबसूरत दुनिया फिर बना ली थी…

 एक गाय के साथ खेलती छोटी बछिया ने दरवाजे पर ही सबका स्वागत किया… फिर करीने से सजी साग, सब्जी, फूल, पत्ती की… अपने हाथों से तैयार फुलवारी… और सुबह शाम चलने वाले योग ध्यान की मंडली से सब का चित्त प्रसन्न हो गया…

 मगर इस बार सिर्फ बच्चे ही नहीं… रामनरेश जी भी प्रसन्न थे… अपनी जीवन यात्रा की ढलती सांझ में… स्वयं को व्यस्त पाकर… अब उन्हें कोई दुख नहीं था…

रश्मि झा मिश्रा

ढलती सांझ…

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