जीवन की पूर्णता का सुख  – मधु झा

कुसुम ने अपनी सहेली सविता को अपनी बहू मीता के आने की खुशखबरी देते हुए  घर आने का निमंत्रण भी दे दिया। वो तो चार दिन पहले से ही बहू के आने की  तैयारी में लग गयी थी ।

बेटा-बहू या बेटी-दामाद कोई भी आते हैं तो कुसुम इसी तरह बड़े उत्साह और ख़ुशी से उनके स्वागत की तैयारी सप्ताह भर पहले से ही शुरु कर देती है,। ये देख उसकी सहेलियाँ खूब मज़ाक भी करती हैं।

अभी दो साल पहले ही बेटे की शादी हुई है और अभी तक दोनों   बेटे-बहु साथ ही ही आये थे,,।

मगर आज पहली बार बहू अकेली आ रही थी, बेटे को छुट्टी नहीं मिल सकी, अभी-अभी उसने नयी कंपनी जो ज्वाइन किया था। अतः इस बार कुछ और भी खास लग रहा था कुसुम को।

आज सविता सहित कुछ और सहेलियाँ भी चाय पीने के बहाने कुसुम के घर आ धमकी। सबने बहु के आने की तैयारी के बारे में जानकर कुसुम की चुटकी लेनी शुरु की और साथ ही सावधान भी कर रही थी,,,,

एक ने कहा– अरे,,तू तो ऐसे तेयारी करती है जैसे तेरी बेटी आने वाली है,,। बहु के सामने अपनी अहमियत बनाकर रख,इतनी छूट देना ठीक नहीं, वरना कल को कोई महत्व नहीं देगी,, सारे काम तुझसे ही करायेगी,,। तो दूसरी सहेली ने तपाक से कहा,, वो तेरी सेवा करेगी या तू ही लगी है उसकी सेवा करने में,,।आख़िर उसकी भी तो कुछ जिम्मेदारी है घर की,,।

“हाँ,,बेटी नहीं बहू आने वाली है ,” कुसुम ने जोर देकर कहा,,

और क्यों न करूँ उसके आने की तैयारी,,वो भी तो मेरी ही है,,।वो भी कुछ दिनों के लिए छुट्टियों में ही आती है,,तो उसका स्वागत क्यों न करूँ,,।

मुझसे सीखेगी भी तो ये सब,,। प्यार दूँगी उसको तभी तो देना भी सीखेगी,,।

फ़िर आगे कुसुम ने कहा–और सुनो,, ये सेवा नहीं ,प्यार है ,भाव है, लगाव है,,। वो भी छुट्टियों में ही आती है,,तो थोड़ा आराम  उसे भी तो चाहिए,,उसको भी आफ़िस और घर संभालना पड़ता है और उसे भी यहाँ आने पर घर और छुट्टी जैसी फीलिंग्स होनी चाहिए,, ।और मुझे बहुत अच्छा लगता है अपने बच्चों के लिए कुछ करने में,,वो भी तो मेरी ही बच्ची है। उसके आने पर हमदोनो ही मिलकर किचेन संभालते हैं,,कुछ वो भी मेरे पसंद का बनाती तो कुछ मैं उसके पसंद का,,

और घूमने ,शापिंग करने भी हम साथ जाते,,गोलगप्पे ,चाट सबके मज़े लेते,,वो जैसी है मुझे स्वीकार है और मै जैसी हूँ, मुझे आदर-सम्मान देती है,और किसी भी रिश्ते में प्यार और सम्मान के अलावा और क्या चाहिए ।

मैं हूँ ही इसी स्वभाव की और किस्मत वाली भी हूँ कि बहू भी ऐसी ही मिली,,।इसके बाद किसी के लिए कुछ भी कहने को शेष न था,,,,।

अक्सर हमने सुना है कि बहु को बेटी की तरह मानती हूँ और दामाद तो बिल्कुल बेटे की तरह ध्यान रखता है,,आख़िर ऐसा क्यों,,??

क्या हम बहू को बहू ही मानकर प्यार नहीं दे सकते,,या दामाद को दामाद मानकर ही अपना नहीं मान सकते ,,प्यार देने या अपनाने के लिए बहू को बेटी या दामाद को बेटा बनाना क्यों जरूरी है ,,!!!!

हर रिश्ते की अपनी लज्जत और शोभा होती है,, हर रिश्ता एक-दूसरे से अलग होता है,,

इनका अलग-अलग सुख होता है और जीवन में सबको महसूस करना ही जीवन की पूर्णता है,,।

मधु झा,,

स्वरचित

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