जीवट – बालेश्वर गुप्ता

बचाओ- बचाओ का आर्तनाद गूँज उठा,आस पास के लोग उस आवाज की ओर दौड़ पड़े।देखा सेठ जी की दुकान के गोडाउन में मुनीम जी कई भारी बोरियो के नीचे दबे पड़े थे।सहायता की गुहार उन्ही की थी।झटपट सभी ने मुनीम जी को बाहर निकाला, पानी पिलाया।मुनीम जी जैसे ही उठने को तत्पर हुए तो फिर दर्द भरी कराह के साथ बैठ गये।बोरियो के ऊपर गिरने के कारण पैर की हड्डी टूट गयी थी।कुछ जानने वालों ने मुनीम जी को डॉक्टर के यहाँ पहुँचा दिया।जहां उनके पैर पर प्लास्टर चढ़ा दिया गया।

         1965 -1966 के लगभग हरियाणा के हिसार जिले से रोजगार की तलाश में मुरारीलाल जी अब के झारखंड के बोकारो पहुंच गये, जहाँ दामोदर नदी के किनारे रूस की मदद से बड़ा स्टील प्लांट लगने जा रहा था।हजारों मजदूर और अन्य निर्माण कार्य मे लगे थे।वही सेठ जी की दुकान पर मुरारीलाल जी को भी नौकरी मिल गयी।अपनी मेहनत और ईमानदारी तथा अपनेपन के भाव से मुरारीलाल सेठ सहित सभी के चहेते बन गये।सेठ जी दुकान यूँ तो पहले भी अच्छी चल रही थी,पर मुरारीलाल जी के मृदु व्यवहार के कारण दुकान और अधिक अच्छी चलने लगी। सुबह सुबह दुकान मुरारी लाल जी ही खोलते ,उस दिन सफाई करने वाला कर्मचारी नही आया तो खुद ही सफाई करने में जुट गये और बोरियो की ढांग से बोरियो के गिर जाने पर पैर में फ्रैक्चर करा बैठे।डॉक्टर ने कह दिया मुनीम जी पैर का मामला है, कम से कम दो तीन महीने आराम करना पड़ेगा।माथे पर परेशानी की रेखाये लिये मुरारीलाल जी घर वापस आ गये।बिना काम किये कैसे घर चलेगा?रोजगार की तलाश में तो अपना घर बार छोड़ इतनी दूर आये और यहाँ आकर ये मुसीबत।दो बेटे ,छोटी उम्र के और पत्नी उनका वहन कैसे होगा?चिंता खाये जा रही थी,कि पत्नी ने आकर बताया कि घर मे आटा समाप्त हो गया है।दुखी मन से मुरारीलाल जी ने अपने छोटे बेटे मामराज को सेठ जी के पास भेजा ताकि इस खराब समय मे कुछ मदद हो सके।सेठ जी ने मामराज को घर का कुछ सामान तो दे दिया साथ ही जता दिया कि मुरारीलाल का कुछ बकाया नही है और आगे वो दूसरे मुलाजिम को रख रहे हैं। 




       सुनकर मुरारीलाल जी की आंखों के आगे अंधेरा छा गया।असहाय स्थिति में वो करे तो क्या करे?क्या दामोदर नदी में समाना पड़ेगा? बड़े बेटे ने वहां से कोलकाता अपने रिश्तेदार के यहां काम ढूढ़ने की अनुमति पिता से मांगी।क्या कहते मुरारीलाल?जिन बच्चों की जिम्मेदारी उन पर थी,जिनके दिन आज पढ़ने लिखने के थे वो आज खुद अपना भविष्य नादान उम्र में ढूंढ रहे थे।बड़ा बेटा चला गया।छोटा बेटा मामराज जिसकी उम्र मात्र 12 वर्ष थी जो स्कूल जाता था,उनके पास रह गया।कैसे इसे पढ़ाऊंगा, पढ़ाना तो दूर उसका पेट भी कैसे भरूंगा, सोच सोच कर मुरारीलाल की आंखों से पानी बहने लगता।गरीब सब तरह का पुरूषार्थ तो कर सकता है, पर असहाय होकर अपने बच्चो को रोटी भी ना दे सके तो उसका दिल फट पड़ता है।

       12 वर्ष का मामराज सब अपनी आंखों से देख रहा था,उसने सेठ की बेरुख़ी भी देखी थी।समय से पहले ही मामराज मानो एक वयस्क बन गया।उसने पिता की ओर देखा और चुपचाप घर से बाहर आ गया।एक निश्चय किया और एक अन्य दुकान पर जाकर उसने लाला जी से कहा कि मैं मुरारीलाल जी का बेटा हूँ, सब मुनीम जी को जानते थे सो लाला जी ने स्नेह से कहा बताओ बेटा क्या बात है, घर के लिये कुछ चाहिये?स्नेह के दो बोल सुन मामराज फफक पड़ा।उसने बस इतना कहा कि लाला जी मैं स्कूल जाता हूँ और आगे भी जाना चाहता हूं ,पर मेरे पिता की स्थिति अब मुझे स्कूल भेजने की नही है।वो घुट घुट कर मर जायेंगे लाला जी।आप बस मुझे स्कूल जाने से पहले के तीन घंटे और बाद में तीन घंटे के लिये अपनी दुकान में काम दे दीजिये,मैं आपको शिकायत का मौका नही दूंगा।लाला जी मामराज के चेहरे के तेज और आत्मविश्वास को देख दुकान से खड़े हो उसके पास आ गये और उसके सिर पर हाथ रख बोले भगवान तुझे लंबी उम्र दे ऐसा बेटा सबको मिले और लाला जी मामराज के घर के लिये कुछ राशन दे उससे कहा बेटा सुबह से आ जाना दुकान पर।




       प्रफ्फुलित मामराज घर आ सीधे पिता के पैरों में गिर गया और अपने आप अपने ऊपर ओढ़ी जिम्मेदारी पूरी करने की इजाजत माँगी।मुरारीलाल कुछ बोल नही पाये बस मामराज को अपने सीने से लगा लिया।

         मुरारी लाल भी ठीक हो गये, दोनो पिता पुत्र ने फिर से घर संभालने का यत्न प्रारम्भ कर दिया।उधर बोकारो प्लांट बनकर तैयार हो गया था प्रवासी मजदूर वापस जाने लगे थे दुकानदारी कम होने लगी थी। मामराज ने अब रद्दी अखबार लेकर घर मे लिफाफे बनाने और दुकानों पर उन्हें बेचने का कार्य भी शुरू कर दिया था।

         मेहनत कस और ईमानदार व्यक्ति की परीक्षा भी ईश्वर लेता है।एक दिन लाला जी बोले मामराज अब मैं यह दुकान बंद कर रहा हूँ,वापस अपने गावँ जाकर शेष जीवन पूर्ण करूँगा।तुम्हारा मेरा बस इतना ही साथ था।सुन कर मामराज अवाक रह गया।बस लाला जी के चेहरे को देखने के अतिरिक्त उसे कुछ सूझ ही नही रहा था।लाला जी ने बकाया वेतन के 800 रुपये मामराज के हाथ मे रख दिये।अचानक मामराज बोला लाला जी क्या आप यह दुकान छोड़ देंगे?तो क्या, अब रख कर क्या करूँगा?लालाजी आप यह दुकान किराये पर मुझे दिला दीजिये और इन 800 रुपये का सामान दुकान में छोड़ दीजिये।आश्चर्य से लाला जी मामराज का चेहरा देख रहे थे,इतना आत्मविश्वास और जीवट  तो उनमें भी कभी नही रहा।वो बोले मामराज दुकान के मालिक आज से तुम हुए।और सामान करीब 5000 रुपये का दुकान में शेष है, वो भी छोड़ कर जा रहा हूँ,जब तेरा मीजान बने मुझे लौटा देना।मामराज ने कृतज्ञता से लाला जी के चरण स्पर्श किये और नई जिंदगी में प्रवेश किया।लालाजी की गुड विल थी सो उस आधार पर मामराज को उधार माल मिलने लगा।कुछ ही दिनों में मामराज ने अपने पिता से कह दिया,पिता जी अब आप केवल आराम कीजिये,आपको कुछ भी करने की जरूरत नही है।




           स्टील प्लांट तैयार हो चुका था, व्यापार समाप्तप्राय हो गया था।पिता नही रहे थे,मामराज दो बेटों और एक पुत्री के पिता बन चुके थे।सो उन्होंने झारखंड छोड़ उत्तरप्रदेश के रामपुर में एक इंडस्ट्री में नौकरी कर ली।जिंदगी रफ्तार पकड़ने लगी।मामराज ने अपने बच्चों की शिक्षा में कोई कोरकसर नही छोड़ी।

      पत्नी ने भी मामराज का पूरा साथ नही निभाया और अकेला रह गया मामराज,जिंदगी से झूझने को।

       आज मामराज अपनी बेटी और बेटो की शादी कर चुके हैं, एक बेटा कमल और उसकी पत्नी देबाश्री न्यूजीलैंड में जॉब कर रहे है और छोटा बेटा मुकेश और उसकी पत्नी निकिता नोयडा में आई टी कम्पनी में कार्यरत है। मामराज द्वारा दिये संस्कारो का परिणाम है कि मामराज जी की एक छींक पर भी बेटा उन्हें डॉक्टर के पास ले दौड़ता है।बाहर घूमने को प्रेरित करता है।

        मन का आत्मविश्वास, करने की दृढ़ इच्छाशक्ति ,अपनी जिम्मेदारियों का अहसास मनुष्य को निश्चित रूप से सफल बनाते है और मामराज जी ने ये करके दिखाया है।

#जिम्मेदारी 

           बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक,सत्य कथा(मामराज मेरी ही सोसाइटी में रहते हैं)

3 thoughts on “जीवट – बालेश्वर गुप्ता”

  1. ट्रेन में हूँ। वापस नोयडा की ओर। यह कहानी पढ़ कर बहुत देर तक विचार शून्य हो गया, चिंतन रुक सा गया। जीवन-संघर्ष की यथार्थवादी किस्से सुनकर कहीं न कहीं उसके मुख्य पात्र एवं परिस्थितियाँ अपनी स्वयं की अनुभूतियाँ लगने लगती हैं। अभी बस इस कहानी के विषय में इतना ही कह सकता हूँ कि क्या लिखूँ, शब्द नहीं हैं।

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  2. ट्रेन में हूँ। वापस नोयडा की ओर। यह कहानी पढ़ कर बहुत देर तक विचार शून्य हो गया, चिंतन रुक सा गया। जीवन-संघर्ष के यथार्थवादी किस्से सुनकर कहीं न कहीं उसके मुख्य पात्र एवं परिस्थितियाँ अपनी स्वयं की अनुभूतियाँ लगने लगती हैं। अभी बस इस कहानी के विषय में इतना ही कह सकता हूँ कि क्या लिखूँ, शब्द नहीं हैं।

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  3. Wow
    Kya kahani hai
    Eeshvar kismat mehnat sab ka saath ho to kya kehne
    Taaliyan bajane ke alawa kuch nahee soojh raha
    Very nicely written
    Is kahani ko bhut achche se vyakt kia gaya hai

    Thanks

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