जयंती -पुष्पा पाण्डेय

कभी जिन्दगी इस तरह एक इंसान से परीक्षा ले सकती है, विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है। जयंति न किसी चलचित्र की नायिका थी और न ही किसी नाटक का किरदार निभा रही थी। वो एक छोटे शहर के जमींदार घराने में जन्मी सीधी-सादी पति का हाथ पकड़कर सड़क पार करने वाली सामान्य सी खूबसूरत महिला थी। इंजिनियर पति पाकर बहुत खुश थी।जल्द ही एक होनहार बेटे की माँ भी बन गयीं। माता-पिता ने जब जयंती नाम रखा होगा तो उन्हें क्या पता था कि मेरी इस जयंती को जीवन में कई जंग लड़ने पड़ेंगे।

जयंती को पैंतालीस वर्ष की उम्र में ही वैधव्य का दुख सहना पड़ा। दो साल से पति कैंसर से पीड़ित रहे। उनकी सेवा में दिन-रात सबकुछ भूल चुकी थी। असहनीय पीड़ा से कराहते पति का सिर अपनी गोदी में ले कभी सान्त्वना के शब्द तो कभी कान्हा से प्रार्थना करती रहती थीं। दर्द से मुक्ति मिली और पतिदेव भी मुक्त हो गए। बेटे की एक साल की पढ़ाई अभी बाकी थी। उस समय जयंती की माँ ने बेटी को सम्भाला।  जयंती अब दुनिया की इस भीड़ में चौराहे पर खड़ी थी। उसकी माँ ने उसके लिए एक विश्वसनीय सहायिका का इंतजाम कर दिया, जो हमेशा जयंती के साथ रहती थी। जयंती जहाँ भी जाती ,रास्ता दिखाने के लिए वो सहायिका साथ रहती थी। समय गुजारने की वाबत एक स्कूल में नौकरी करने लगी। बेटे की पढाई भी पूरी हो गयी और संयोग से उसी शहर में  नौकरी भी मिल गयी।

 अब दोनों एक दूसरे के सहारे थे। बेटा भी पिता की मौत से मानसिक रूप से टूट चुका था। बेटे की नौकरी के बाद भी जयंती नौकरी करती रही। घर की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। पति रिटायर्मेंट से पहले ही वोलेंटियर रिटायर्मेंट ले चुके थे। वो व्यापार करना चाहते थे। घर बनाने और उनकी बीमारी में ही बहुत पैसे खर्च हो चुके थे। अतः जयंती ने पूरी तरह बेटे पर आश्रित होने के बजाय स्कूल में नौकरी करना उचित समझा। जिन्दगी पटरी पर आने लगी।दिल का घाव अब रिसना बंद हो गया था। बेटा भी माँ को सक्रिय देखकर खुश था।


दो साल तक वो सहायिका जयंती के साथ एक छाया की तरह लगी रही। एक दिन वह हमेशा के लिए गाँव जाने की बात कर चली गयी। अब-तक जयंती अन्दर-बाहर का काम भलि-भाँति समझ चुकी थी। वह सहायिका बैंक से लेकर ट्रेन का टिकट करने तक का सारा कुछ सिखा दिया था। कुछ साल बाद उसके स्कूल की एक सहेली अपनी भांजी का रिश्ता लेकर आई। जयंती को भी यह रिश्ता ठीक ही लगा। अधिक जाँच-पड़ताल कैसे और किसके सहारे करती? सहेली पर भरोसा कर रिश्ता पक्का हो गया। शादी की तैयारी होने लगी। जयंती अपने जेवर ही बहू को चढ़ावा में देने के लिए  इतने दिनों बाद जब अपना तिजोरी खोल कर गहने के बक्स को देखी तो वहीं बेहोश हो गयी। बक्स खाली था।

 उसकी अपनी शादी में बहुत जेवर मिले थे। पति की मौत का दर्द सहने की आदि हो चुकी जयंति को एक दूसरी विपत्ति ने उस घाव पर पुनः चोट की। सभी एकमत थे कि वह सहायिका ही जेवर लेकर गायब हो गयी। जब उसके गाँव जाकर पता किया गया तो पता चला कि वह तो कई सालों से घर लौटी ही नहीं। लाखों का जेवर लेकर चम्पत हो गयी। जयंती की माँ इस घटना का जिम्मेदार स्वयं को मानने लगी और बेटी का दर्द उसे अधिक दिन तक जीवित न रख सका। यहाँ भी जयंती को फिर से सम्भालने में समय लगा। बेटा भी माँ के दुख से दुखी था।

शादी एक साल बाद हुई। फिर तकदीर एक और प्रहार करने के लिए तैयार खड़ी थी।

बहू अपने पति को मम्मा वाॅय समझने लगी और पति को दूसरे शहर में तबादला के लिए दबाव डालने लगी। जयंती चाहती थी कि बेटा का घर बसा रहे। वह बार-बार उसे जाने के लिए बोलती रही और बेटा माँ को छोड़कर जाना नहीं चाहता था। परिणाम स्वरूप छे महीने में भी तलाक हो गया। जयंती तो दुखी थी ही,बेटा पर इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह पागलखाने तक पहुँच  गया। जयंती काँच की तरह टूट कर बिखर गयी। आठ साल के अथक परिश्रम से बेटा सामान्य हो घर लौटा। यदि जयंती नौकरी नहीं कर रही होती तो क्या होता??


बेटा फिर से जीवन को अपना लिया और नौकरी की तलाश शुरू हुई। नौकरी मिली, लेकिन दूसरे शहर में। माँ ने किसी तरह मनाकर नौकरी पर भेज दिया। अधिक दूरी नहीं होने के कारण जयंती सप्ताह के अंत में आकर बेटे का घर भी व्यवस्थित कर जाती थी। एक बार फिर जयंती ने बेटे की शादी के लिए  लड़की तलाशना शुरू किया। विधाता के खेल को कौन जानता है। लड़की मिली ,शादी भी हो गयी,लेकिन यहाँ भी जयंती की तकदीर प्रहार करने के लिए तैनात थी। तब-तक जयंती  नौकरी से निवृत्त हो चुकी थी। बेटा भी खुश था कि सभी साथ रहेंगे। दूध का जला मट्ठा भी लोग फूक कर पीते हैं। जयंती समय देखकर बेटा से बात करने ही वाली थी कि बहू ने सास के खर्चे का हिसाब करना शुरू कर दिया। बेटे से बहाना बना बिना देर किए जयंती वापस अपने पति के घर में आ गयी। यहाँ आने के कुछ दिन बाद एक बार फिर जयंती एक विश्वासी के हाथों ही विश्वासघात का शिकार हो गयी। स्कूल से मिले पाँच लाख रूपये फिक्स डिपोजिट करने के नाम पर गायब कर दिया। अब दर्द सहने की आदत सी हो गयी। पति की तस्वीर के सामने खड़ी हो अपने आँखों के आँसू को पोंछते हुए यह संकल्प लेती है कि मेरे भाग्य में भोग की रेखाएँ है ही नहीं। अब मैं तिहाड़ी मजदूरन की भाँति रोज कमाऊँगी और रोज इस पेट की अग्नि बुझाऊँगी। बस किसी तरह बेटे का घर बस जाए। शायद अब आँसुओं का समुन्दर सुख चुका था। जयंती उसी स्कूल की सहायता से एक कोचिंग सेन्टर चलाने लगी और घर में सिलाई की स्कूल खोल जिन्दगी नये सिरे से जीने लगी। अब तो जैसे वह हर तूफान का सामना करने के लिए तैयार बैठी हो।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

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