ज़रूरत – डॉ रत्ना मानिक

पूरे आंगन में लोगों की भीड़ लगी हुई थी। तिल धरने की भी जगह न थी।अंदर के कमरे में माँ दहाड़े मार-मार कर ,छाती पीट-पीट कर रोये जा रही थीं। पापा आंगन में ही एक किनारे तख़त पर विक्षिप्त की सी अवस्था में बैठे हाथों की अंगुलियों पर  बुदबुदाते हुए जाने क्या गिन रहे थे।न जाने ज़िन्दगी का कौन सा हिसाब लगा रहे थे।

कलप तो मैं भी रही थी। मन के भीतर एक अजीब सी ऐंठन हो रही थी।कलेजे को जैसे कोई पूरी ताकत से दबाये जा रहा था। दम घुटा जा रहा था। किसी से कुछ बोलने की कोशिश करती तो आवाज़ कच्चे घर की तरह भरभरा कर, टूट कर बिखर जाती। आंसुओं को रोकने के प्रयास में गले में कांटें जैसी तेज़ चुभन हो रही थी। माँ…पापा…शगुन…सबको…सबको मुझे ही तो देखना था और मेरे पति कुशल घर में आये लोगों को देखने-सुनने तथा दूसरी तैयारियों में घर और बाज़ार एक किये हुए थे।

शगुन यानि मेरे छोटे भाई की पत्नी वो घंटों से बेहोश पड़ी थी । थोड़े देर के लिए यदि चेतना लौटती तो पागलों की तरह चीख़ कर घर से भागने की कोशिश करती। बुआ और बाकी महिलाएं बड़ी मुश्किल से उसे संभाल पा रही थीं । चीखते-चीखते उसका गला सूखने लगता,आवाज़ बैठने लगती बेसुध,बेदम होकर वह फ़िर बिस्तर पर निढाल पड़ जाती।

थोड़ी ही देर में श्रेयश(मेरा छोटा भाई,शगुन का पति) के सारे करीबी दोस्त भी आ गए थे ।सबके चेहरों पर मातम पसरा था। श्रेयश के दोस्तों को देखकर अतीत की किताब के कई पन्ने फड़फड़ा कर मेरे सामने उघर गए।


“दीदी! आप मान जाएंगी तो माँ पापा को भी आसानी से राज़ी कर लेंगी,मान जाइये न दी…आप एक बार शगुन से मिलिए तो सही…प्लीज… यदि आपको वो पसंद न आई तो…तो… मैं फ़िर कभी शगुन से नहीं मिलूंगा।” तीन साल पहले श्रेयश किसी बच्चे की तरह मेरे पैर के पास बैठ कर शगुन और अपने प्रेम पर से पर्दा उठाते हुए विवाह के लिए माँ पापा से बात करने की ज़िद कर रहा था।

जब लोगों को अपने किसी अजीज़ पर पूरा भरोसा रहता है न तभी लोग बड़ी बेबाकी से ऐसी शर्तें लगाते हैं। श्रेयश को पता था कि शगुन न सिर्फ़ बेइंतहा खूबसूरत है बल्कि इतनी उच्च शिक्षा हासिल करके भी घर-गृहस्थी के कामों में भी रुचि लेने वाली लड़की है और ‘दी’ यानि मैं उससे मिल कर तो पक्का अपनी राय(प्रेम विवाह,अक्सर असफल होते हैं) बदल ही दूंगी। श्रेयश के साथ उसके दोस्त भी मुझसे मनुहार कर,श्रेयश के प्रेम की दुहाई दे रहे थे।

चूंकि घर की बड़ी लड़की(संतान के रूप में ) मैं ही थी। मां,पापा के साथ घर की जिम्मेदारियों को बड़ी खूबी से विवाह के पहले तक मैं भी निभाती रही थी इसलिए मां,पापा कई मसलों पर मेरी बात सुनते भी थे और घर के छोटे-बड़े फैसलों में एक बार ज़रूर मुझसे राय भी लेते थे और रही बात श्रेयश की…तो उसकी बात तो मैं टाल ही नहीं सकती थी उसमें मेरी जान जो बसती थी।

खैर… मैं अपने भाई की खुशी के लिए शगुन से मिली और जैसा कि श्रेयश का दावा था कि शगुन को देखकर मैं उसके लिए ‘ना’ कर ही नहीं सकती थी, हुआ भी यही। शगुन ने न सिर्फ अपनी सुंदरता से बल्कि अपने सौम्य व मिलनसार स्वभाव से भी मुझे अपना बना लिया था। फिर मैंने धीरे-धीरे मम्मी,पापा को मना कर इस विवाह के लिए राजी किया। मम्मी ने एक बार कुंडली मिलान की बात ज़रूर की थी लेकिन मैंने ही ” क्या माँ! आप भी गजब करती हैं…अरे जब श्रेयश उसी से विवाह करना चाह रहा है तो फिर कुंडली-वुण्डली की बात करने से क्या फ़ायदा…?”कह कर मैंने ही उन्हें चुप करा दिया था।

“दी!पोस्टमार्टम के बाद बॉ..डी.. कल ही मिलेगी। कल का सा..रा.. सामान हम लोग लेने जा रहे हैं। कुछ और ज़रूरत हो तो हमें फ़ोन कर दी..जि..ये..गा।”

श्रेयश के दोस्त की अटकती आवाज़ सुन मैं फ़िर खौफ़नाक वर्तमान में लौट आई गई थी। एक ऐसा वर्तमान जिसके रास्ते से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ थी,हर रास्ता अंधकार, उदासी और दर्द से भरा था ।

सारे नाते, रिश्तेदारों को मैंने खबर कर दिया था। मम्मी,पापा किसी को कोई होश ही नहीं था कि कब, क्या करना है ।सब कुछ मेरे,कुशल,बुआ जी और श्रेयश के दोस्तों के कंधों पर था। आसपास के लोग भी हाथ जोड़कर,हम सबको ढांढस बंधा कर आंखों में उदासी का कतरा लिए विदा हो चुके थे।


घर में सन्नाटा भयानक शोर कर रहा था और मेरा जी…मेरा जी… बुरी तरह से घबरा रहा था। घर की चीख़ती खामोशी से मन दहल रहा था । मन कर रहा था कि चीख़ें मार-मार कर रोऊँ। मेरा छोटा भाई…श्रेयश…कैसे…कैसे… मन को यकीन दिलाऊं कि अब वो इस दुनिया…।

ऑफिस से लौटते हुए तेज रफ्तार से आती हुई गाड़ी की टक्कर से वह सड़क पर ही तड़प-तड़प कर दम तोड़ चुका था…वह भाई… जो मेरे लिये भाई कम मेरे बेटे जैसा था। कलेजे में एक तेज़ टीस उठी। दर्द आंखों से बहकर चेहरे को भिगोने लगा था। काफी देर बाद कुशल और श्रेयश के दोस्त आए। हम सभी एक ही जगह हॉल में नीचे बिस्तर बिछा कर,आंखें फाड़े रात के बीतने का इंतजार करने लगे थे…एक ऐसी रात के बीतने का… जो हमेशा के लिए हमारे जीवन में ठहर गई थी…जिस रात का कोई बिहान नहीं था।

पिछले पंद्रह दिनों में जिंदगी जैसे अपना सबसे खौफनाक चेहरा दिखा रही थी…बिल्कुल शिव के तांडव सा…उग्र…क्रोध से भरा हुआ…जिसमें सिर्फ़ विनाश ही विनाश था। सब कुछ खत्म हो गया था… सारी खुशियां… सारी उम्मीदें…घर में गूंजती हम भाई-बहन की नोक-झोंक…सब कुछ हमेशा के लिए घर से विदा हो चुके थे।

पापा इन पंद्रह-बीस दिनों में और बूढ़े लगने लगे थे। कमर थोड़ी और झुक गई थी…बुढ़ापे का सहारा जो छिन गया था। अब भी दरवाज़े की घंटी बजने पर एक छोटी सी उम्मीद उनकी आंखों से चिपक जाती । सब्जी काटते हुए मां के हाथ न जाने कितनी देर से रुके होते…घंटों शून्य में कुछ तलाशती हुई उनकी उदास…निस्तेज आंखें किसी अदृश्य  बिंदु पर ठहर सी जाती।

एक दिन हम सभी हॉल में बैठे थे… बिल्कुल खामोश… घड़ी की टिक-टिक-टिक करती सुइयों के बीच कुशल ने धीरे से मुझसे पूछा था– “मनु! अब लौट चलें अपने घर…?” यह सुनते ही शगुन की घायल हिरणी सी आंखें मेरी ओर एकदम से उठ गईं जैसे कह रही हों– दी! आप भी चली जायेगी…? उसकी कातर आंखों और चेहरे पर आसन जमाये उदासी की मौन चीत्कार से मेरा मन एकदम से पसीज उठा । मैंने शगुन को अपनी गोद में समेटते हुए धीरे से कहा–”अभी इस घर को मेरी थोड़ी सी और ज़रूरत है कुशल!” शगुन मुझ से वैसे ही चिपकी रही । बस उसके हाथों का घेरा मेरी पीठ पर थोड़ा और कस गया था।

मैंने अपने आप से कहा–हाँ! इस घर को अभी और मेरी ज़रूरत है। मेरी छोटी बहन शगुन को मेरी ज़रूरत है।

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