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जनम जनम की जोगन  – अमित किशोर

त्रेता युग की घटना है। एक राजा थें। उनकी रानी का नाम परमहिसी था।एक बार राजा रानी दोनों को ही कुम्भ के मेले में जाने का सुयोग लगा। राज शिविर से बाहर जब रानी परमहिसी ने बाहर का दृश्य देखा तो पाया कि हर तरफ केवल ऋषि ही ऋषि थें। हवन कुंड प्रज्वलित थी। मंत्रोच्चार से वातावरण भक्तिमय था। रानी परमहिसी की तीव्र इच्छा हुई कि वो भी इन मंत्रोच्चार और हवन पूजन में सम्मिलित हो। शिविर में ही राजा के पास जाकर आज्ञा मांगी। राजा को ये बात अजीब लगी। राजा ने अपनी रानी को समझाते हुए कहा, “प्रिये, ऋषियों के बीच जाकर तुम्हारा बैठना शोभनीय नहीं है। मत भूलो, तुम एक राज स्त्री हो। और राज स्त्रियों के लिए इस तरह संत समागम सार्वजनिक रूप से उचित नहीं। तुम एक रूपवती नारी हो। तुम्हारे सौंदर्य की आभा ऋषियों को उनके सदकार्यों से विमुख भी कर सकती है।”

रानी परमहिसी को अपने पति के इन वचनों से गहरा आघात लगा। अपने कक्ष में जाकर वह रोने लगी। रात्रि को रानी परमहिसी अपने कक्ष से निकल कर त्रिवेणी तट पर गयी, वहां मां गंगा से अश्रुपूर्ण याचना करने लगी। कहा, “हे माता, अगर मुझे दूसरा जन्म मिले तो, रूपवान और राज स्त्री मत बनाना। जो गुण ईश्वर से दूर करे, उसे जीवन में नहीं धारण करना। मुझे आज्ञा दें, मां। मैं अब आपमें समाना चाहती हूँ।” इतना कहकर, रानी परमहिसी ने अपना देह त्याग दिया और जल समाधि ले ली।

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त्रेता युग में ही फिर भील जाति के कबीले के मुखिया अज के घर एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम श्रमणा रखा गया। मां इंदुमती ने बड़े प्यार से अपनी बेटी को अपनी जाति के नाम पर “शबरी” कहकर पुकारा। बाल्यावस्था से ही प्रकृति की और आकर्षित रहने वाली श्रमणा कब विवाह योग्य हो गई, पता ही नहीं चला। मन में वैराग्य समा गया और प्रकृति की गोद ही श्रमणा को सुहानी लगी। अज ने जब अपनी पुत्री की इस मनोस्थिति की चर्चा की तो किसी ने सलाह दी। श्रमणा का विवाह ही एकमात्र विकल्प समझकर अज और इंदुमती ने प्रयास आरंभ कर दिया। विवाह आयोजन के लिए पशु पक्षियों से निर्मित व्यंजनों की व्यवस्था की गई। इन सब बातों से श्रमणा का ह्रदय बहुत व्यथित हुआ। वैराग्य भाव से ओत प्रोत श्रमणा ने सभी पशु पक्षियों को मुक्त किया और गृह त्याग कर दिया।

भटकते भटकते श्रमणा ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंची। वहां कई ऋषियों के आश्रम थें जहां नित्य धार्मिक अनुष्ठान हुआ करते थें। श्रमणा को ये भली भांति ज्ञात था कि निचली जाति के होने के कारण उसे धार्मिक कार्यों में स्थान नहीं मिल सकता। इसके बाबजूद भी श्रमणा कई दिनों तक छुपते छिपाते ऋषि सेवा में लगी रही। प्रतिदिन सवेरे ऋषियों के आश्रम में आने वाले पत्तों को साफ कर देती थी, और हवन के लिए सूखी लकड़ियों की व्यवस्था भी कर देती। मन में पवित्रता लिए वह लकड़ियों को ऋषियों के हवन कुण्ड के पास रख देती थी। पर एक दिन उसकी ये गतिविधि पकड़ी गई।ऋषियों ने श्रमणा से उसका परिचय पुछा तो उस ने बताया कि वह एक भीलनी थी। ऋषियों ने भीलनी को नीच जाति का बताकर उसे प्रताड़ित किया। तभी उन्हीं ऋषियों में से एक ऋषि, ऋषि मतंग ने दया दृष्टि दिखाई और श्रमणा का बचाव करते हुए अपनी कुटिया में शरण दी। श्रमणा की भाव भक्ति से प्रभावित होकर उसे अपनी पुत्री बनाया और “शबरी” कहकर पुकारा। शबरी अब ऋष्यमूक पर्वत पर रहकर ही ऋषि मतंग की सेवा में लग गई।

 समय बीतता गया, मतंग ऋषि बूढ़े हो गए। मतंग ऋषि जब देह त्याग कर रहे थे तब शबरी ने पूछा, ” पुत्री को इस तरह संसार में अकेला छोड़कर यदि आप चले जायेंगे तब मेरा क्या होगा ?” मतंग ऋषि ने कहा – “पुत्री, तुम्हारा ख्याल अब श्रीराम रखेंगे।” शबरी ने कौतूहल से पूछा, ” राम कौन हैं? और मैं उन्हें कहाँ ढूंढूंगी ? ” मतंग ऋषि ने कहा, “पुत्री, तुम्हें उनको खोजने की आवश्यकता नहीं हैं। वह स्वयं तुम्हें खोजते हुए तुम्हारी कुटिया पर चलकर आयेंगे।” शबरी ने मतंग ऋषि के इस वचन को मन में स्थापित कर लिया कि उसके लिए राम आयेंगे। 




शबरी प्रतिदिन अपने इष्ट के लिए पुष्प बिछा कर रखती, उनके लिए फल तोड़कर लाती, और पूरे दिन श्री राम की प्रतीक्षा करती। कई साल बीत गए। शबरी बूढी हो गई, परंतु श्री राम नहीं आए। एक दिन श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में वन में भ्रमण कर रहे थे। श्रीराम को प्यास लगी तो निकट तालाब के पास पहुंचे। कुछ ऋषियों ने राम और लक्ष्मण को सरोवर की तरफ जाते देखा तो रोक दिया। ऋषियों ने कहा कि एक अछूत भीलनी के द्वारा तालाब और उसका जल दूषित था। श्रीराम की प्रबल इच्छा हुआ कि वे उस स्त्री से मिलें जिसके बारे में ऐसी बातें हो रही थी। उन्होंने ऋषियों से कहा,” जब एक नारी किसी को जन्म दे सकती है, तो वो अछूत कैसे हो सकती है ? इस ब्रह्मांड की कोई नारी अछूत नहीं हो सकती। श्रीराम ने उनसे उस नारी का पता पूछा। ऋषियों ने शबरी की कुटिया का पता बता दिया। जैसे ही श्रीराम कुटिया में पहुंचे, शबरी ने उन्हें पहचान लिया। वो तेजी में आई और श्रीराम के चरणों में गिर गई। इसके बाद शबरी ने श्रीराम और लक्ष्मण दोनों की प्रेम और श्रद्धा से आवभगत की। शबरी ने भगवान का खूब आदर सत्कार किया, और उनको झूठे बेर खिलाये। इस प्रकार शबरी के वर्षों की प्रतीक्षा समाप्त हुई। उन्हें अपने मुंह से चखे हुए बेर परोसे। श्रीराम ने सहर्ष बेर खा लिए। लक्ष्मण ने कहा, ” ये बेर शबरी के जूठे हैं, इसे कैसे खा सकते हैं, आप ? इस पर श्रीराम ने कहा, ” ये जूठे नहीं सबसे पवित्र बेर हैं। इसमें मां शबरी का प्रेम छिपा है।” 

इसके बाद शबरी ने भगवान श्रीराम से देह त्याग की इच्छा जताई। श्रीराम ने शबरी के पैर छुए जैसे एक पुत्र अपनी माता से आशीर्वाद ले रहा हो। शबरी अपने इष्ट के समक्ष नतमस्तक थी। अत्यंत कारुणिक दृश्य था वह। अगले ही क्षण शबरी ने प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण के सामने ही अपना शरीर त्याग दिया।

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

अमित किशोर

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