जमीर – विजया डालमिया

अबकी बार छुट्टियों में रैना जब गाँव आयी तो मामा को बेहद गुमसुम पाया। वो मामा जिन्होंने उसके माता-पिता के गुजरने के बाद उसे कभी भी उनकी कमी महसूस नहीं होने दी। यहाँ तक कि उन्होंने उसके लिए खुद शादी करके अपना घर भी नहीं बसाया। उसने  मामा से जब उनकी उदासी की वजह पूछी तो वह कहने लगे कि ….

“तुझे तो पता है ना कि ठाकुर जी बेटा-बहू और पत्नी की अचानक मौत से  एकदम बुझ से गए हैं। दिल का दौरा पड़ने के बाद वे आज तक भी संभल नहीं पाये। मुझसे उनकी हालत देखी नहीं जाती। तू नहीं जानती बेटा उन्होंने हमेशा मुझे  बहुत माना है और हमारे लिए बहुत किया है। यदि वे साथ नहीं देते तो मैं तुम्हारी इतनी अच्छी परवरिश नहीं कर पाता । ना ही तुम्हें पढ़ने के लिए शहर भेज पाता”। 

रैना को वह दिन याद आ गया जब पिछली बार वह आई और ठाकुर जी की तबीयत देखने  गई ।मामा के साथ सारा दिन वह हवेली में ही थी। ठाकुर जी की हर छोटी से छोटी जरूरत का वह ध्यान रख रही थी। मामा बेहद खुश नजर आ रहे थे। ठाकुर जी ने कहा….. “जब तक रैना है इसे रोज ले आया करो”। 

मामा ने यही किया। वह रोज जाती ।अपनी चटपटी बातों से ठाकुर जी को खूब हँसाती। ठाकुर जी ने एक  दिन मामा से कहा कि …..”रैना को जब मैंने पहली बार देखा तो उसमें  मुझे मेरी सावित्री दिखी और यह कहते हुए एक आँसू उनकी आंखों से टपक गया”। मामा की बातें रैना बड़े ध्यान से सुन रही थी ।…..”तो फिर”?  मामा ने रैना के करीब आकर उसका हाथ थामा और कहा …..”तू चाहे तो ठाकुर जी को फिर से खुशियां दे सकती है”।

इतना  कहकर वे रैना को आशा और प्रार्थना भरी नजरों से देखने लगे। रैना सकते की हालत में आ गई। कैसे कहती कि वह रंजन से प्यार करती है। उसने कुछ नहीं कहा, पर उस रात वह सो नहीं पाई। सुबह उसने रंजन को सारी बातें बताई तो रंजन ने तुरंत कहा ….”अरे यह तो लॉटरी लग गई। तुम शादी कर लो उनसे। दिल के मरीज हैं। कितने दिन जिएंगे ।




उसके बाद सब कुछ हमारा ।…..”और हमारा प्यार”? जैसे ही रैना ने कहा, उसने कहा…..” अरे हम मिलते रहेंगे ऐसे ही। तुम्हारी शादी के बाद भी। बस तुम हाँ कह दो”। रंजन की बातें सुनकर वह खामोश हो गई। उसे बहुत अजीब  लगा। मामा ने उसकी ख़ामोशी को सहमति जान आर्य पद्धति से ठाकुर जी के साथ फेरे पड़वा दिए। विदाई के समय मामा ने एक ही बात कही ….”बेटा ठाकुर जी के लिए कुछ करने का तुम्हें मौका मिला है और मेरी लाज अब तुम्हारे हाथों में है”।

 रैना विदा होकर हवेली में चली आई । इतनी बड़ी  हवेली की सारी व्यवस्था रैना ने  बहुत जल्दी समझ ली ।वह अपना सारा फर्ज बहुत ईमानदारी से निभा रही थी । ठाकुर साहब की दवाइयों से लेकर खाने-पीने और लेन-देन का सारा हिसाब वह बखूबी देखने लगी ।

जिसकी वजह से  ठाकुर साहब निश्चिंत  होकर ठीक होने लगे। पर ठाकुर जी को अब वह पहले वाली रैना  कहीं नजर नहीं आ रही थी। उन्होंने रैना से कहा  कि….” देखो तुम अगर इस रिश्ते से खुश नहीं हो तो मुझे छोड़ कर जा सकती हो। मुझे जरा भी बुरा नहीं लगेगा।

 अपने मामा की तुम चिंता मत करो। उसे मैं समझा दूँगा। मुझे तुममे सावित्री दिखती है इसका मतलब यह नहीं था कि मैं तुम्हें उस नजर से देखता या चाहता हूँ ।पर हाँ तुम्हारा रहना मुझे अच्छा लगता है”। रैना ने कुछ नहीं कहा पर उसकी ख़ामोशी उनसे बहुत कुछ कह गई।

 रैना की रंजन से रोज बातें होती रही। एक  दिन रंजन ने कहा ….. यार यह तो मरने की जगह जी उठा। तुम भी वहाँ मजे कर रही हो ।थोड़े मजे हमें भी करा दो”। रैना ने पूछा….” क्या मतलब”? तो रंजन ने कहा ….वहाँ से जो कुछ बटोर सकती हो बटोर लो और चली आओ “।उस रात रैना फिर से सो नहीं पाई। एक तरफ ठाकुर जी और मामा थे जिन्होंने उस पर विश्वास कर सब कुछ उसे सौंप दिया, और एक तरफ रंजन जिसे उसने सब कुछ माना, चाहा। पर आज उसकी सोच ने उसे हिला कर रख दिया। आज उसे अपनी ही पसंद पर शर्म आने लगी। वह धीरे से उठी। ठाकुर जी के सिरहाने जाकर चाबियां रखी व  निश्चिंत होकर सोने चली आई क्योंकि उसका जमीर जाग उठा  था।

विजया डालमिया संपादक मेरी निहारिका

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